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Hindi News ओपिनियन नश्तरदो पाटन के बीच साबुत कैसे बचें किसान

दो पाटन के बीच साबुत कैसे बचें किसान

इस देश में किसानों की जातियों जैसी ही मान्यता है। सुमित्रानंदन पंत जी की पंक्ति भारत माता ग्रामवासिनी  इस तथ्य की साक्षी है। जहांंं तक राजनीतिक दलों का प्रश्न है, तो उनका सीमित लक्ष्य...

दो पाटन के बीच साबुत कैसे बचें किसान
गोपाल चतुर्वेदीSun, 18 Jun 2017 10:40 PM
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इस देश में किसानों की जातियों जैसी ही मान्यता है। सुमित्रानंदन पंत जी की पंक्ति भारत माता ग्रामवासिनी  इस तथ्य की साक्षी है। जहांंं तक राजनीतिक दलों का प्रश्न है, तो उनका सीमित लक्ष्य ग्रामवासियों के वोटों का सामंती आखेट है। अगर ऐसा न होता, तो बिजली, सड़क और साफ पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं से गांव अब तक वंचित क्यों रहते?

हमारे यहां कई नेता तो ऐसे हैं, जिन्होंने न हल देखा है, न बैल। ऐसों को कोई सुने, तो उसे भ्रम हो जाए कि ऊपर यदि भगवान हैं, तो नीचे किसान हैं। एक की सत्ता जन्म पर है, तो दूसरे की अन्न पर। मगर यदि अन्नदाताओं को आत्महत्या करनी पड़े, तो यह मौखिक हमदर्दी का नहीं, गंभीर चिंता का विषय है। यह व्यवस्था की ऐसी खोट है, जो बिना खोजे ही नजर आती है, बशर्ते देखने वाला धृतराष्ट्र न हो।

आज जहां सरकार है, वहां भ्रष्टाचार है, वरना यह कैसे होता कि कागजों में नहर है, लेकिन जमीन पर नाली तक नहीं? बीज-खाद की खरीद से लेकर बैंक के लोन तक सबका प्रावधान है, मगर बिना कमीशन कुछ भी मिलना मुमकिन नहीं। इन हालात में किसानों का कर्ज में डूबे रहना क्या आश्चर्यजनक? ताज्जुब तो तब होता है, जब कोई किसान ऋणमुक्त रह पाए, हालांकि ऐसे अजूबे भी अपने देश में मौजूद हैं।

दरअसल, किसान दो प्रकार के हैं। एक वे, जो खुद फसल उगाते हैं; दूसरे वे भाग्यशाली, जो दूसरों से फसल उगवाते हैं। कर्ज, अभाव, आत्महत्या जैसी दुर्घटनाएं पहली श्रेणी के किसानों की ही नियति है। उनकी जोत छोटी है और साधन सीमित। यही किसान गुड़ाई के समय ट्रैक्टर और सिंचाई के वक्त बूंद-बूंद को तरसते हैं। सब सामूहिक रूप से इस प्रार्थना के साथ आकाश में ताकते हैं कि बादल पधारे ही नहीं, बरसें भी। आखिर सारे सरकारी सुभीते बड़े किसान ही तो हथियाते हैं, सारी मुसीबतें तो छोटे किसानों के पाले में आती हैं। ये ही बदकिस्मत सरकार और बाजार के दो पाटों के बीच लगातार पिसते हैं।
 

 

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