फोटो गैलरी

काहे का डर

डर मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। जंगल में विपरीत परिस्थितियों में रहकर मनुष्य ने जीने की कला सीखी, अपनी बुद्धि का उपयोग किया और सभ्य समाज की रचना हुई। जीवन जीना सहज नहीं है, वह विरुद्ध परिस्थितियों के...

काहे का डर
महेंद्र मधुकरMon, 19 Jun 2017 09:46 PM
ऐप पर पढ़ें

डर मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। जंगल में विपरीत परिस्थितियों में रहकर मनुष्य ने जीने की कला सीखी, अपनी बुद्धि का उपयोग किया और सभ्य समाज की रचना हुई। जीवन जीना सहज नहीं है, वह विरुद्ध परिस्थितियों के खिलाफ खड़ा होना है। डर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति की तरह काम करता है, हम जरा सी आहट से चौंक जाते हैं, अचानक कोई आवाज हमें थर्रा देती है। कहीं विस्फोट हो, तो हम बुरी तरह हिल जाते हैं। फिर भी, ये डर तो बाहरी हैं। कुछ भीतरी डर भी हैं, जो हमारे बीमार ख्यालों से पैदा होते हैं। अक्सर माताएं बच्चों की चिंता में बुरा अपशकुन सोच बैठती हैं, वे नहीं जानतीं कि विचारों में बड़ी ताकत होती है। जिंदगी हमारे सोचने के ढंग पर ही तो चलती है। हमारे सकारात्मक और नकारात्मक विचारों की टकराहट से ही हमारा द्वंद्व पैदा होता है। 

यह भी कहा जाता है कि मनुष्य से ज्यादा देवता भयभीत रहते हैं। उन्हें बात-बात पर तो भय होता ही है, बिना बात का भी भय होता है। संस्कृत के समस्त स्रोत्र साहित्य का एक बड़ा हिस्सा रक्षा के लिए देवताओं द्वारा परमात्मा की स्तुति के रूप में है। जब-जब दैत्यों का आक्रमण होता है, विलासी देवता हरि की शरण लेते हैं। कालिदास ने शाकुंतल  में ‘मा भेतव्यम्’- डरो मत शब्द के प्रयोग से ही दुष्यंत का प्रेम प्रकट कर दिया है। रीतिकालीन कवि ने एक गोपी द्वारा अपने प्रेम, रोमांच और सात्विक भाव का संकेत किया है कि ‘सखि! यह काले रंग का डरावना कृष्ण इस घर में क्यों आता है, जिसे देखकर डर से मेरा शरीर थर-थर कांपने लगता है? कारे बरन डरावनो कत आवत इहि गेह/ कै वा लख्यौ सखि लखै लगै थरथरी देह।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें