अर्थहीन शब्दों की ताकत
बोलना हमारी जरूरत भी है, बहुत हद तक आदत भी। मौन व्यक्ति मूर्ति की तरह होता है, उसमें मुद्राएं-भंगिमाएं नहीं होतीं। विविधता तब पैदा होती है, जब हम बोलते हैं, हमारे शब्द हमारा स्वरूप गढ़ते हैं, पर...
बोलना हमारी जरूरत भी है, बहुत हद तक आदत भी। मौन व्यक्ति मूर्ति की तरह होता है, उसमें मुद्राएं-भंगिमाएं नहीं होतीं। विविधता तब पैदा होती है, जब हम बोलते हैं, हमारे शब्द हमारा स्वरूप गढ़ते हैं, पर भावावेश के समय हम रुद्धकंठ हो जाते हैं, मुख से शब्द नहीं निकलते, पर आंखें बोलती हैं। इसी को ‘सेन्स ट्रांसफर’ कहा गया है। महाकवि कालिदास ने इसे ‘करण विगम’ कहा है। इसमें हम एक इंद्रिय का काम दूसरी से लेते हैं। भावावेश में हम प्राय: कुछ अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। वे सिर्फ शब्द होते हैं, उनमें एक उच्चारण, एक ध्वनि भर होती है। ये शब्दकोश में नहीं हैं, पर हैं बड़े काम के। उनमें एक लय, एक गुनगुनाहट होती है। संगीतकार आलाप में एक ही शब्द को कई मोड़ देकर चमत्कृत कर देता है। आज भी गानों में ला ला ला या नना नना जैसे प्रयोग आम हैं। रवि बाबू ने बाल्यकाल में एक अद्भुत कविता रची थी जिसका एक वाक्य था- खट खट खटास, पट पट पटास। संस्कृत काव्यों में खलु, किल जैसे शब्दों के प्रयोग हुए हैं। तंत्र और मंत्र विज्ञान के ‘मंत्र महार्णव’, ‘रुद्रयामल’ जैसे ग्रंथों में भी शाबर मंत्रों की रचना मिलती है, जिसमें अर्थहीन मगर चमत्कारी शब्दों का प्रयोग हुआ है। अर्थहीन शब्दों का प्रयोग माताएं अपने बच्चों को दुलारते समय अक्सर करती हैं। सूर की यशोदा कृष्ण को पालने में झुलाते समय कुछ-कुछ गाती हैं-जोइ सोइ कछु गावै। प्रेम के क्षणों में आज ‘जानू’ शब्द लोकप्रिय है, उर्दू में यह ‘जान’ और संस्कृत में ‘जानि’ है। हमारे मुख से जो भी शब्द निकलता है, वह एक भाव है, बोध है; जैसे कोई सरोवर में कंकड़ी गिरे, वैसे एक हल्की चोट है, जो एक हिलोर पैदा कर देती है।