संबंधों के दायरे
मनुष्य अकेला हो सकता है, पर अकेले रह नहीं सकता। जीने के लिए उसे वस्तुओं और व्यक्तियों से किसी-न-किसी रूप में जुड़ना पड़ता है। यह जुड़ना क्षणिक या स्थाई भी हो सकता है। नए परिचय से आत्मीयता भी बढ़ती है, पर...
मनुष्य अकेला हो सकता है, पर अकेले रह नहीं सकता। जीने के लिए उसे वस्तुओं और व्यक्तियों से किसी-न-किसी रूप में जुड़ना पड़ता है। यह जुड़ना क्षणिक या स्थाई भी हो सकता है। नए परिचय से आत्मीयता भी बढ़ती है, पर बाद में यह संबंध टिक नहीं पाता। समय की मार से संबंध मृत हो जाते हैं। नजदीकी रिश्ते भी भुला दिए जाते हैं। हम पौधों को जल देते हैं, हवा और धूप की सेंक देते हैं, तो पौधा भी फलता-फूलता है। वैसे ही मनुष्य को भी अपने संबंधों का ध्यान रखना होता है। मन का आकर्षण बना रहे, इसके लिए हमें निरंतर प्रयत्न करना पड़ता है, बिना खाद-पानी के ये रिश्ते मजबूत नहीं होते, निरंतरता और सक्रियता इनमें जान डालती है।
संबंधों की प्रगाढ़ता के पीछे है, त्याग का भाव, एक-दूसरे को समझना। भारतीय संस्कृति की पूरी बुनियाद ही संबंध-रचना पर आधारित है। पृथ्वी, अंतरिक्ष, नदियां, पहाड़, पूरा पर्यावरण हमारे सुख-दुख में शामिल है। तुलसी के राम भी सीता के वियोग में हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी/ तुम देखी सीता मृगनयनी की पुकार से भर जाते हैं। नीलकंठ ने एक श्लोक में दर्शाया है कि शिव अद्र्धनारीश्वर की मुद्रा में खुली चट्टान पर विश्राम कर रहे हैं, वाम भाग में पार्वती और दक्षिण भाग में वे स्वयं हैं। पूरी रात शिव दाहिनी करवट ही लेटे रहते हैं, वे करवट नहीं बदलते, ताकि पार्वती को खुरदुरी चट्टानों से कष्ट नहीं पहुंचे। संबंधों की यह आत्मीयता और दृढ़ता ही उसे दीर्घजीवी बनाती है। हमें बड़ों का सम्मान और छोटों को स्नेह देने के लिए अलग-अलग भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं। संबंध नदी के जल की भांति है, जैसा पात्र हो, वैसा ही हमें ढलना पड़ता है, यही तरलता इसकी जीवन-शक्ति है।