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छाप तिलक सब छीनी

हमारा मन भले ही आजाद तबीयत का हो, हमेशा अपनी मर्जी चलाना चाहता हो, पर उसमें एक दबी-छिपी इच्छा यह भी होती है कि उससे भी कोई श्रेष्ठ हो। कोई हो, जो उस पर शासन कर सके, अंकुश लगा वश में कर ले। बड़े से बड़े...

छाप तिलक सब छीनी
महेंद्र मधुकर,नई दिल्लीTue, 01 Aug 2017 12:12 AM
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हमारा मन भले ही आजाद तबीयत का हो, हमेशा अपनी मर्जी चलाना चाहता हो, पर उसमें एक दबी-छिपी इच्छा यह भी होती है कि उससे भी कोई श्रेष्ठ हो। कोई हो, जो उस पर शासन कर सके, अंकुश लगा वश में कर ले। बड़े से बड़े पत्थरदिल शासकों के बारे में पढ़ें, उनका जीवन आश्चर्यचकित कर देगा। साधारण तौर पर वे अपने परिवार में अलग ढंग से जीते हैं, पत्नी या प्रेमिका, पुत्र-पुत्री, माता-पिता या मित्रों के साथ वे बेहद खुले, अत्यंत सरल और आज्ञाकारी प्राणी होते हैं।

इसका एक कारण है, हमारा शरणागति-भाव। दुनियावी रूप में यह प्रेम में पड़ जाने की दशा है, पर भाव-लोक में हम हमेशा चाहते हैं कि कोई हमें आदेश दे, हमें अपनी उंगलियों पर नचाए, हमें झकझोर कर रख दे, चूर कर दे हमारा अहंकार, जमी बर्फ पिघल जाए और हम एक झरना बनकर नीचे उतरें। हमने ब्रह्म को भी गोपियों के इशारे पर नचाया है। उस अनादि ब्रह्म का कोई पार नहीं पा सकता। शेष, गणेश, महेश, दिनेश, सुरेश सभी उसी को भजते हैं, वेद उसे ‘नेति-नेति’ कहते हैं, न जाने नारद, शुकदेव, व्यास जैसे कितने ऋषि उसका नाम रटते रहे, फिर भी उसका पार नहीं पा सके।

उस ब्रह्म को अहीरों की बालिकाएं छाछ भर मक्खन के लिए नचा रही हैं- ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं  (रसखान)। ब्रह्म की यह परवशता मनुष्य की भी दूसरों के अधीन होने की रसमयता को दर्शाती है। कोई हमारी पहचान मिटा दे, छाप तिलक ले ले, बाहर के सारे आवरण तोड़कर हमें असली रूप में ला दे। सदियों से हम यही तो चाहते आए हैं- पूछते हैं वो कि गालिब कौन है/ कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?
    
 

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