बीज और हम
जे कृष्णमूर्ति का मशहूर वक्तव्य है- ‘यू आर द वल्र्ड’, यानी आप ही जगत हैं। यह एक पहेली जैसी लगती है, लेकिन इसकी कुंजी इसके भीतर ही छिपी है। जब हम कहते हैं कि दुनिया में हिंसा, क्रोध,...
जे कृष्णमूर्ति का मशहूर वक्तव्य है- ‘यू आर द वल्र्ड’, यानी आप ही जगत हैं। यह एक पहेली जैसी लगती है, लेकिन इसकी कुंजी इसके भीतर ही छिपी है। जब हम कहते हैं कि दुनिया में हिंसा, क्रोध, घृणा और युद्ध का तांडव चल रहा है, समस्याएं हैं कि सुलझती नहीं, बड़े-बड़े दार्शनिक इस पर चिंतन करते हैं, लेकिन हल ढूंढ़ नहीं पाते, तो इसलिए क्योंकि इसका हल बाहरी दुनिया में नहीं है, व्यक्ति के भीतर है। सामाजिक समस्याएं कभी नहीं सुलझेंगी अगर व्यक्ति को नहीं सुलझाया।
संत दरिया ने बड़ी पते की बात कही है- दरिया गैला जगत का क्या कीजै सुलझाय। सुलझाये सुलझे नहीं, सुलझ सुलझ उलझाय। बाहर का झमेला कभी सुलझ नहीं सकता, क्योंकि वह प्रतिबिंब है मनुष्य के अंतस का। प्रतिबिंब को बदलना हो, तो बिंब को बदलिए। यह जो कुरूप जगत है, उसमें हर व्यक्ति साझीदार है, इसका उत्तरदायित्व सब पर है, क्योंकि व्यक्ति ही तो फैलकर समाज बन जाता है। ओशो की सुनें और गुनें कि व्यक्ति ही समाज है। मगर व्यक्ति है महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रस्त। हर कोई कुछ होना चाहता है। बुनियादी सच यह है कि कोई केवल वही हो सकता है, जो वह है। स्वयं के अतिरिक्त होना असंभव है। जो बीज में नहीं है वह वृक्ष में कैसे हो सकता है? कुछ होने की दौड़ से एक ज्वरग्रस्त जीवन पैदा होता है, जो विध्वंस में ले जाता है। बीज का नैसर्गिक विकास होने दिया, तो उसमें न तो दौड़ होती है और न ज्वर। बाहर की समस्याओं में न उलझें, भीतर की जड़ों को उखाड़ दें। इससे स्पद्र्धा में होने वाला शक्ति का अपव्यय बचता है और व्यक्ति शक्ति का संरक्षित सरोवर बन जाता है। फिर यही समाज में प्रतिफलित होता है।