हम भी आम ही हैं
वह नाकामयाब कैसे हो गए? यह सवाल उनके लिए सिरदर्द बन गया था। अब तक कामयाबी ही कामयाबी मिली थी उन्हें। वह अपने को बेहद खास समझने लगे थे। ‘हम आम आदमी ही हैं। कोशिश करते हैं। गड़बड़ियां करते...
वह नाकामयाब कैसे हो गए? यह सवाल उनके लिए सिरदर्द बन गया था। अब तक कामयाबी ही कामयाबी मिली थी उन्हें। वह अपने को बेहद खास समझने लगे थे।
‘हम आम आदमी ही हैं। कोशिश करते हैं। गड़बड़ियां करते हैं। नाकामयाब होते हैं। फिर कोशिश करते हैं। यही जिंदगी है।’ यह मानना है डॉ. मार्सिया रेनॉल्ड्स का। वह मशहूर लीडरशिप कोच हैं। फिलहाल, एसोसिएशन फॉर कोच ट्रेनिंग ऑर्गेनाइजेशन की अध्यक्ष हैं। उनकी खासा सराही गई किताब हैं, आउटस्मार्ट योर ब्रेन और हाउ टु हैव दैट कॉन्वर्सेशन यू हैव बीन अवॉइडिंग।
हम जब कामयाब नहीं होते, तो छटपटाते हैं। कामयाबी मिलती चली जाती है, तो हम खुद को बेहद खास समझने लगते हैं। अचानक जब गोता खा जाते हैं, तो हिल जाते हैं। अरे, मैं भी नाकामयाब हो सकता हूं। यह एहसास बुरी तरह चोट करता है। कामयाबी मिलने, न मिलने की अपनी वजहें होती हैं। उसमें हमारी तय भूमिका होती है। लेकिन जरूरी नहीं कि नाकामयाबी के पीछे महज हम ही हों। उसकी ढेर सारी वजहें हो सकती हैं। कभी-कभी तो हमारे काम में कोई कमी नहीं होती, फिर भी कामयाबी नहीं मिलती। इसके उलट भी होता है। हमारे काम में कमी होती है और कामयाबी मिल जाती है। तमाम कामयाबियां हमारे भीतर खास होने के भाव भरती हैं। जब कभी वह नहीं मिलती, तो इसी खास पर चोट होती है। हम इसी खास पर अटके रह जाते हैं। जिस वक्त हम मान लेते हैं कि आम हैं, हम गलतियां कर सकते हैं। हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद जरूरी नहीं कि कामायाबी मिले। वहीं से हम अपने को ठीक करने लगते हैं। सब भूलकर एक और कोशिश करने में जुट जाते हैं।