आधे-अधूरे
उस मीटिंग से लौटे तो आहत थे। बॉस को सिर्फ उनकी खामियां ही नजर आती हैं। उन्हें तो ऐसा कुछ महसूस नहीं होता। ‘हम परफेक्ट नहीं हैं, यह मानने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।’ यह कहना है डॉ....
उस मीटिंग से लौटे तो आहत थे। बॉस को सिर्फ उनकी खामियां ही नजर आती हैं। उन्हें तो ऐसा कुछ महसूस नहीं होता। ‘हम परफेक्ट नहीं हैं, यह मानने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।’ यह कहना है डॉ. सुजैन डिजिस व्हाइट का। वह मशहूर काउंसलर हैं। नॉर्दन इलिनॉय यूनिवर्सिटी में एडल्ट हायर एजुकेशन की चेयरपर्सन हैं। उनकी बेहद चर्चित किताब है, टॉक्सिक फ्रेंडशिप: नोइंग द रूल्स ऐंड डीलिंग विद द फ्रेंड्स हू ब्रेक देम।
हम जब तक अपनी कमियों को नहीं जानते, तब तक उन्हें दूर कैसे कर सकते हैं? अपनी खामियों को पहचान कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। असल में, हमें अपनी खूबियों को पहले बरकरार रखना होता है। फिर धीरे-धीरे उन्हें बढ़ाना होता है। खामियों को कम करते जाना और खूबियों को बढ़ाते जाना। शायद यही कामयाबी का राज है। कोई मुकम्मल नहीं होता। मुकम्मल होना एक चाहत है। उसे हम ही तय करते हैं। कभी लगता है कि वह तो एक सीढ़ी है और कभी एक मंजिल। सीढ़ी ही ज्यादा ठीक है। उसके बाद अगली सीढ़ी पर नजर रहती है। आखिर एक मंजिल हासिल होती है, तो दूसरी की तलाश शुरू हो जाती है। एक मुकम्मल मुकाम हासिल करते हैं, तो उसके पार पूरी एक दुनिया नजर आने लगती है। एक ही मतलब है कि हमें अपनी खामियों पर लगातार काम करते रहना चाहिए। अगर हम कहीं अटक गए हों, तो किसी दोस्त की मदद ले लेनी चाहिए। एक ऐसे दोस्त की, जो हमें ‘जो हैं जैसे हैं’ के आधार पर मानता हो। जो हमें बेवजह निराश-हताश न करे। हमारी खूबियों को जम कर सराहे। खामियों की पहचान ही न कराए, उन्हें दूर करने का रास्ता भी सुझाए।