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युद्ध और जीत के वे लम्हे

यह सात मई 1999 की बात है। मैं एक ऑपरेशनल मिशन के चीफ के साथ नल बीकानेर की वायु-पट्टी पर था। तभी डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन यानी डीजीएमओ, नई दिल्ली से मेरे पास फोन आया और सीधे दिल्ली में पालम...

युद्ध और जीत के वे लम्हे
मोहन भंडारी, लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड)Wed, 26 Jul 2017 12:27 AM
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यह सात मई 1999 की बात है। मैं एक ऑपरेशनल मिशन के चीफ के साथ नल बीकानेर की वायु-पट्टी पर था। तभी डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन यानी डीजीएमओ, नई दिल्ली से मेरे पास फोन आया और सीधे दिल्ली में पालम हवाई अड्डे के तकनीकी क्षेत्र में पहंुचने को कहा गया। वहां मुझे चीफ को मिलिटरी ऑपरेशन के कमरे में ले जाना था, जहां यह खबर दी गई कि यल्डोर सब-सेक्टर के बंजू व कुकरथंग में हमारी सुरक्षा के सामने की ओर चट्टानों के पीछे काली वर्दी पहने कुछ लोग हैं, जिनके रेडियो एंटीना चट्टानों के पीछे से दिख रहे हैं।

बाद में हमें पता पड़ा कि घुसपैठ कारगिल के सभी सब-सेक्टर में हो चुकी है। यह ऐसा सैनिक अभियान था, जिसे जनरल मुशर्रफ ने बड़ी चतुराई से अंजाम दिया था। चीजें जब कुछ और स्पष्ट हुईं, तो पता पड़ा कि पाकिस्तानी फौज की 14 नियमित इकाइयां इस दुस्साहसी अभियान में शामिल थीं। इसके अलावा वहां 35 पाकिस्तानी आर्टीलरी फायर यूनिट पहंुच चुकी थी, साथ ही उनके पास 130 एमएम तोपों समेत भारी मात्रा में आधुनिक हथियार थे, रात के अंधेरे में देखने के यंत्र थे और स्नो स्कूटर भी। 

खुफिया ब्यूरो और रॉ इसका सुराग लगाने में नाकाम रहे थे। इसके बाद नीतिगत मामलों की कैबिनेट समिति की सुरक्षा पर हुई बैठक में आईबी के निदेशक ने साहस दिखाते हुए यह स्वीकार किया कि हम इसका सुराग पाने में नाकाम रहे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की इस पर प्रतिक्रिया काफी शांत और संयत थी, ‘जो होना था सो हो गया, अब आगे की सुध लीजिए’। उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन स्पष्ट था कि ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा के बाद जिस तरह से उनकी पीठ में छुरा घोंपा गया था, उसे लेकर वह परेशान थे। बैठक खत्म होते ही मेरी टीम जवाबी हमले की योजना बनाने में जुट गई। 

पाकिस्तान ने फ्रंटियर कोर नॉर्दन आर्मी की वहां तैनात टुकड़ियों को इस घुसपैठ में भेजा था, ताकि इस दुस्साहसिक अभियान से पहले बाहर से सैनिकों की भारी आवाजाही न हो। इसके लिए नॉर्दन लाइट इन्फेंट्री के उन जवानों को इस्तेमाल किया गया, जो ऊंची जगहों पर रहने के आदी थे। भारतीय सेना को भ्रम में रखने के लिए पाकिस्तान ने संचार के लिए मुजाहिद्दीन का इस्तेमाल किया, जो बाल्टी, पश्तो, शीना और दर्दी जैसी बोलियों में बात करते थे, शुरू में इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली। 

अपने दफ्तर पहंुचने के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने नवाज शरीफ से इस पर बात की, जिन्हें इस घुसपैठ की कोई जानकारी ही नहीं थी। शरीफ अब भी यही कहते हैं कि मुशर्रफ ने उन्हें ‘ऑपरेशन बदर’ के बारे में कुछ नहीं बताया था। बाद में यह पता पड़ा कि इसके बारे में मुशर्रफ, उनके चीफ ऑफ जनरल स्टाफ, फ्रंटियर कोर के कमांडर, मेजर जनरल तारिक जिया और पाकिस्तान के डीजीएमओ को ही जानकारी थी। पाकिस्तान के वायु सेना और नौसेना अध्यक्षों को भी इससे दूर रखा गया था। 

जल्द ही हमारी खुफिया एजेंसियों ने चीन में आराम फरमा रहे मुशर्रफ और रावलपिंडी में बैठे उनके चीफ ऑफ जनरल स्टाफ की कारगिल के ‘ऑपरेशन बदर’ की बातचीत को रिकॉर्ड कर लिया। इससे पाकिस्तान का यह खेल पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गया कि उसकी फौज ने 12 हजार से 18 हजार फीट की ऊंचाई पर भारतीय क्षेत्र में तीन से नौ किलोमीटर तक घुसपैठ की थी, सीमा पर जिसका विस्तार 120 किलोमीटर था। 

कैबिनेट कमेटी की एक और बैठक में यह फैसला हुआ कि भारतीय सेना अपने अभियान में नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेगी। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इस पर अपनी सहमति दे दी। भारत के इस सैद्धांतिक रवैये की दुनिया भर में तारीफ हुई। हमारी जवाबी प्रतिक्रिया काफी तेज थी, केंद्रित थी और बहुत मारक भी थी। 

हमने भारतीय क्षेत्र में पाकिस्तानी फौज की मौजूदगी का आकलन किया। यल्डोर में वे 300 से 350 थे, द्रास में 200 से 230 थे, काकसर में लगभग 100 थे, मशकोह घाटी में 150 से 210। पाकिस्तानी फौज का लक्ष्य था कि सबसे पहले कश्मीर घाटी से सेना की रिजर्व टुकड़ियों को इस तरफ खींचा जाए और वहां चल रहे छद्म युद्ध को बढ़ाया जाए। दूसरे, जोजिला से लेह जाने वाले रास्ते को काट दिया जाए और इसके प्रचार से मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाए। और अंतत: इसके जरिये दुनिया का ध्यान कश्मीर की ओर खींचा जाए।

प्रधानमंत्री वाजपेयी से हरी झंडी मिलते ही भारी तादाद में इन्फेंट्री, आर्टीलरी, इंजीनियरिंग और सर्विस टुकड़ियां वहां पहंुचने लगीं। सबसे बड़ी चुनौती थी, इतनी अधिक ऊंचाई पर हमलावर अभियान चलाना। घुसपैठ-विरोधी कार्रवाइयों में लगे सैनिकों को वहां तैनात करने का फायदा यह मिला कि वे तुरंत ही अपनी भूमिका बदलने में कामयाब रहे। एक साथ कई दिशाओं और कई बिंदुओं पर चलाए गए इस अभियान में न सिर्फ लचीलापन था, बल्कि दुश्मन को हैरत में डालने की क्षमता भी थी। प्वॉइंट 5140, तोतालिंग, टाइगर हिल, प्वॉइंट 4875, स्तंगबा और खलुबर रेंज में मिली जोरदार सफलताओं से इसकी उपयोगिता भी साबित हो गई। इस पूरे अभियान की सफलता में आर्टीलरी के साथ ही वायु सेना ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 23 हजार फीट की ऊंचाई से दुश्मन की चौकियों पर सटीक निशाना साधना वायुसेना की महारत का सबसे बड़ा प्रमाण था।  

किसी पेशेवर सेना के विपरीत पाकिस्तान फौज 249 मृत और बहुत से घायल सैनिकों को छोड़कर मैदान से भाग खड़ी हुई। बाद में भारतीय सेना ने घायल सैनिकों का इलाज किया और उन्हें युद्धबंदी बना लिया। मृतकों का सैन्य और उनके धार्मिक तौर-तरीकों से अंतिम संस्कार किया गया। पाकिस्तानी फौज ने सिर्फ पांच मृतक सैनिकों को ही वापस लिया। अभियान में उसके कुल 872 लोग मारे गए, जिनमें 65 सैन्य अधिकारी थे। उसके 1100 से ज्यादा लोग घायल हुए। इस ‘ऑपरेशन विजय’ में हमारे 25 अधिकारी, 18 जेसीओ और 438 अन्य रैंक के जवान शहीद हुए, इसके अलावा 950 घायल भी हुए। 

‘ऑपरेशन विजय’ क्या था? वह एक युद्ध था? एक सीमित युद्ध? या फिर एक सैन्य मुठभेड़? दोनों सेनाएं बेतरह लड़ीं, लेकिन दोनों देशों के राजनयिक रिश्ते बने रहे। पाकिस्तान के लिए यह लगातार चौथी हार थी। इस पराजय के बाद पाकिस्तानी सत्ता और वहां सक्रिय विभिन्न आतंकवादी गुटों के बीच एक खाई बन गई। वे भारतीय सैन्य शक्ति के सामने पाकिस्तानी फौज के भाग खड़े होने से नाराज थे। मुझे महान भारत की इस युद्ध मशीन, इस गरिमामयी सेना पर नाज है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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