यह माओवादियों की पुरानी रणनीति है
जब कभी सुरक्षा बलों पर माओवादी विद्रोही कोई बड़ा हमला करते हैं, जैसा कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी इलाके में बीते 25 अप्रैल को हुआ है, जिसमें सैकड़ों विद्रोहियों के हाथों सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हुए हैं, तो...
जब कभी सुरक्षा बलों पर माओवादी विद्रोही कोई बड़ा हमला करते हैं, जैसा कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी इलाके में बीते 25 अप्रैल को हुआ है, जिसमें सैकड़ों विद्रोहियों के हाथों सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हुए हैं, तो कुछ खास तरह की तयशुदा प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं।
शासन की विफलता को ढकने और सुरक्षा दस्तों के मनोबल को बढ़ाने के लिए दिल्ली और राज्य सरकारों के मंत्रीगण हर बार कमोबेश यही दोहराते हैं कि ‘इस बलिदान को बेकार नहीं जाने दिया जाएगा’। मीडिया का एक धड़ा सरकार की लाइन पर चलते हुए माओवादियों के ऐसे कृत्यों को ‘बर्बर हत्याकांड’ ठहराने लगता है। कुछ सुरक्षा विश्लेषक ऐसे विद्रोहियों से निपटने के लिए सेना को तैनात करने की वकालत करते हैं। दूसरी तरफ, सेना इस तरह की घटनाओं को ज्यादा तवज्जो इसलिए नहीं देती, क्योंकि वह इसे पुलिस-प्रशासन और शासन से जुड़ा मामला मानती है। उसकी नजर में यह एक ऐसी लड़ाई है, जो स्थानीय स्तर पर आजीविका और अवसर सुनिश्चित करने जैसे हक के लिए लड़ी जा रही है और जिसमें अलगाववाद या ‘विदेशी हाथ’ जैसी कोई बात नहीं है।
हर बार ऐसे हमलों के बाद कुछ विश्लेषक ‘खुफिया एजेंसियों की नाकामी’ का मसला भी उठाते हैं। जब माओवादी विस्फोटकों से सुरक्षा दस्तों की ‘बारूदी सुरंग रोधी गाड़ियों’ को निशाना बनाते हैं, तो ये विश्लेषक सुरक्षा बलों को पैदल चलने की नसीहत देते हैं। और जब पैदल पुलिस इन आतंकियों के हत्थे चढ़ती है, जैसा अभी सुकमा में हुआ है, तो सोशल मीडिया व टेलीविजन के यही पंडित उनके लिए बारूदी सुरंग रोधी वाहनों की मांग जोर-शोर से करने लगते हैं। कुछ तो यह कहने से भी नहीं चूकते कि सुरक्षा बल के जवानों को नाश्ते-खाने आदि के लिए कतई नहीं रुकना चाहिए। (अप्रैल, 2010 में सीआरपीएफ के जवानों पर एक ऐसा ही हमला हुआ था, जिसमें 75 जवान खेत रहे थे।)
बावजूद इसके, इस जंग के असली लड़ाके हमले व जवाबी हमले की अपनी राह पर बढ़ते जा रहे हैं। ये माओवादी उस गुरिल्ला युद्ध के बहाने अपनी जमीन बढ़ा रहे हैं या गंवा रहे हैं, जो स्थानीय तौर पर पनपे, पले-बढ़े इस माओवाद में माओ का एकमात्र तत्व है। कुछ इसी तरह से बीते पांच दशकों में माओवाद का इस देश में विस्तार हुआ है।
बहरहाल, आज जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों को छोड़ दें, तो दक्षिणी छत्तीसगढ़ में ही सुरक्षा बलों की सबसे ज्यादा मौजूदगी है। यही एकमात्र ऐसा क्षेत्र भी है, जहां माओवाद आज भी मजबूती से जमा है। भले ही देश भर में सैकड़ों कैडर व नेताओं को खोने, उनकी गिरफ्तारी, आत्मसमर्पण और विभिन्न राज्य सरकारों की पुनर्वास नीतियों की वजह से माओवादी दबाव में हों, मगर वे वक्त-वक्त पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। जब उन्होंने यह देखा कि सुरक्षा बलों की जवाबी रणनीति के कारण और सुशासन व नागरिक समाज द्वारा बुलंद की जाने वाली अधिकार व जवाबदेही की लोकतांत्रिक मांग की वजह से उनका भौगोलिक दायरा सिमट रहा है, तो कुछ साल पहले माओवादियों ने एक खास तरह की रणनीति अपनानी शुरू कर दी। इन तमाम बातों से हमारे सुरक्षा बल वाकिफ हैं, और मैंने भी चार साल पहले अपने एक लेख में इसकी चर्चा की थी।
यह रणनीति साल 2012 के सिंतबर महीने में हुई एक बैठक में बनी थी, जिसमें इनके नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा शामिल हुआ था। उस बैठक का उद्देश्य था, हथियारबंद हमलों की रूपरेखा और भविष्य की कार्य-योजना तय करना। इसकी जिम्मेदारी खनिज-संसाधनों से संपन्न और घने जंगल वाले दंडकारण्य (छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना और महाराष्ट्र के लाल गलियारे) के सेना कमांडर को सौंपी गई थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो वह बैठक नए चिंतन के लिए या नई सोच के साथ नई रणनीति तैयार करने के लिए बुलाई गई थी।
उस बैठक में माओवादियों ने यह तय किया था कि अब किसी भी कार्रवाई में कम से कम सौ कैडर शामिल होंगे। यह फैसला अपने मौजूदा भौगोलिक दायरे को बचाने और नए हिस्सों में पांव पसारने के लिए किया गया। अगले कुछ हफ्तों में इस पर अमल होना भी शुरू हो गया। जैसा कि हमने दक्षिण छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों में देखा है।
यह रुख दरअसल विद्रोहियों के दंडकारण्य में तय तौर-तरीकों पर आगे बढ़ने का है। यानी हथियार व गोला-बारूद इकट्ठा करने के अपने प्राथमिक उद्देश्यों के तहत हमले करना, ताकि रसद की रुकी हुई आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। इस लक्ष्य को पाने के लिए सुरक्षा बलों को लुभाने की आजमाई व परखी हुई रणनीतियां अपनाई जाती हैं, जैसे विद्रोही लड़ाकों की संख्या और उनकी आवाजाही की गलत सूचना सुरक्षा बलों तक पहुंचाना। मेरा मानना है कि ऐसे तरीके आगे भी आजमाए जाएंगे।
बहरहाल, अब जबकि माओवादियों के ये इरादे स्पष्ट हैं कि वे छत्तीसगढ़ में मजबूत होना चाहते हैं और नए इलाकों में अपने पांव पसारना चाहते हैं, तब भी हमारे सुरक्षा बलों का रवैया अपेक्षाकृत सुस्त और जटिल बना हुआ है। इन सुरक्षा बलों में विभिन्न राज्यों की पुलिस और अद्र्धसैनिक बल भी शामिल हैं, जिनका नियंत्रण गृह मंत्रालय के हाथों में है। कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल और झारखंड के उलट अद्र्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के बीच समन्वय और सहयोग का कोई ठोस मॉडल छत्तीसगढ़ में नहीं बन सका है। कुल मिलाकर कहें, तो अब हमें टेलीविजन पर आक्रोश जताने और ट्विटर पर देशभक्ति जाहिर करने से आगे बढ़ना होगा। माओवादियों से निपटने के लिए अब भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)