इतिहास में भविष्य खोजने का जोखिम
पेशेवर इतिहासकार अतीत, और सिर्फ अतीत तक सीमित रहना चाहता है। कुछ मेरे जैसे भी हैं, जो वर्तमान पर बेहतर रोशनी डालने के लिए कभी-कभी अतीत का सहारा लेते हैं। पर क्या किसी को भविष्य के बारे में भी इसी तरह...
पेशेवर इतिहासकार अतीत, और सिर्फ अतीत तक सीमित रहना चाहता है। कुछ मेरे जैसे भी हैं, जो वर्तमान पर बेहतर रोशनी डालने के लिए कभी-कभी अतीत का सहारा लेते हैं। पर क्या किसी को भविष्य के बारे में भी इसी तरह बात करनी चाहिए? मुझे लगता है कि किसी के बारे में भविष्यवाणी खासा मुश्किल काम है। किसी समूह के काम के आकलन पर भविष्यवाणी तो उससे भी ज्यादा मुश्किल, बल्कि असंभव चीज है।
किसी को यह अस्वाभाविक लगे, लेकिन कुछ भविष्यवाणियों का हश्र देखने के बाद मैं ऐसा ही सोचता हूं। 1950 के आसपास एक विदेशी पर्यटक ने भारत के दर्जनों या उससे भी ज्यादा टुकडे़ होने की भविष्यवाणी की थी। 1967 में लंदन टाइम्स के संवाददाता ने यह तक लिख दिया कि वह ‘भारत के चौथे और निश्चित रूप से आखिरी आम चुनाव का गवाह’ बना है। 1977 के आम चुनाव के बाद तमाम भारतीय पत्रकारों ने इंदिरा गांधी की राजनीतिक पारी के अंत की ही घोषणा कर डाली। 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भारतीय ही नहीं, विदेशी टिप्पणीकार भी भारत में तानाशाही और बहुसंख्यकवाद के तेजी से पनपने की भविष्यवाणी करते दिखाई दिए।
रिसर्ड कपुस्चिंस्की 20वीं सदी के अंत के शायद सबसे प्रशंसित पत्रकार थे, जिन्होंने यूरोप, रूस, एशिया और अफ्रीका में रिपोर्टिंग के नए प्रतिमान गढे़। अहमद रजा पहलवी के उत्थान और पतन पर उनकी किताब शाह ऑफ शाह काफी चर्चित हुई। अस्सी के दशक की शुरुआत थी, जब अयातुल्लाह खुमैनी की जीत के बाद तेहरान और ईरान पर लिखते हुए कपुस्चिंस्की ने लिखा- ‘अंग्रेजी पढ़ने की ललक पालने वालों को समझना होगा कि मात्र इसी भाषा के सहारे संपूर्ण विश्व में संवाद अब कठिन होता जा रहा है। यही सच फ्रेंच, बल्कि आमतौर पर सभी यूरोपीय भाषाओं के बारे में है।’
कपुस्चिंस्की के यह सब लिखने के कुछ ही साल बाद सोवियत संघ का पतन हो गया। और तब एकमात्र सुपर पावर के नेतृत्व में वैश्वीकरण की दूसरी लहर चली, जिसकी खुद की राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी थी। कपुस्चिंस्की का पोलैंड भी लोकतांत्रिक बनकर यूरोपीय संघ का हिस्सा बन चुका था और इसकी प्रमुख भाषा भी अंग्रेजी ही थी। इंटरनेट भी अंग्रेजी ही समझता था। एशिया-अफ्रीका में अंग्रेजी के प्रति ललक बढ़ रही थी। 1980 के आसपास कपुस्चिंस्की कट्टरपंथी ईरानियों के जिन बच्चों से मिले थे, वे भी अंग्रेजी सीख चुके थे या प्रक्रिया में थे।
दिलचस्प है कि कपुस्चिंस्की से पहले मेरे गृहराज्य कर्नाटक के एक लेखक ने भी अंग्रेजी के खात्मे की उम्मीद कुछ इन शब्दों में जताई कि ‘आने वाले समय में अंग्रेजी को भारत से खत्म करना होगा और ऐसा होना तय है’। 1965 में एक अमेरिकी जर्नल में इस लेखक ने लिखा, ‘मैं अंग्रेजी के खात्मे की बात से चिंतित नहीं हूं, मैं तो इसे बहुत अच्छी संभावना के रूप में देख रहा हूं। हमने अंग्रेजी जानने वालों की ‘लाट साहबी’ काफी झेली है।’... लेकिन अंग्रेजी भारत से खत्म तो नहीं ही हुई, सामाजिक हैसियत का पैमाना बन जाने के कारण 21वीं सदी में नौकरी की एक अनिवार्य शर्त जरूर बन गई। निचली जातियों में भी बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने की मांग उठने लगी। सरकारी स्कूलों में मातृभाषा से अंग्रेजी को बदल देने का सपना देख रहे विद्वानों को दलितों से दो टूक जवाब मिलने लगा कि पहले आपने हमें संस्कृत जैसी प्राचीन भाषा तक पहंुचने से रोका, और अब आप संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली आधुनिक भाषा अंग्रेजी से भी हमें वंचित कर देना चाहते हैं?
जैसी मिथ्या भविष्यवाणियों से मेरा साबका पड़ता रहा है, उनमें बी वी केस्कर की भविष्यवाणी बिल्कुल अलग ही थी। 1946 में उन्होंने ब्लिट्ज में लिख दिया था कि अंग्रेज भारत छोड़ गए, तो क्रिकेट का खेल भी उनके साथ विदा हो जाएगा। फ्रांस में पढे़-लिखे केस्कर क्रिकेट को ‘संस्कृति और आत्मा से पूरी तरह एक अंग्रेजी खेल’ मानते थे। केस्कर की नजर में भारत में इसका होना ‘हमारी गुलाम मानसिकता’ और ‘अंग्रेजों की हर आदत का अंधानुकरण’ का नतीजा था। वह इसे भारत की जलवायु और शीघ्र ही आजाद होने वाले एक देश की लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल नहीं पाते थे। वह मानते थे कि कम खर्चीले और ज्यादा सहभागिता वाले फुटबॉल और एथलेटिक्स बहुत जल्द इसकी जगह ले लेंगे। उन्होंने तो जोर देकर कहा था कि ‘क्रिकेट सिर्फ अंग्रेजी संस्कृति, अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शासन में ही सफल हो सकता है। भारत भूमि से ब्रिटिश शासन का खात्मा यह बर्दाश्त नहीं कर पाएगा और अंगे्रजों की विदाई के बाद धीरे-धीरे यह भी बीते दिनों की बात हो जाएगा।’
केस्कर सोच के मायने में पूर्वाग्रही होने की हद तक कट्टर थे। उनके लिए क्रिकेट लोगों के सिर चढ़कर बोलने वाला जुनून मात्र था। देश का सूचना और प्रसारण मंत्री बनते ही उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर फिल्म संगीत बंद करा दिया और रिकॉर्डिंग स्टूडियो, यहां तक कि क्लासिकल संगीत समारोहों में हारमोनियम को प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि उनकी यह सांस्कृतिक पुलिसिंग बुरी तरह विफल रही। सच यह है कि लोग विविध भारती के गाने सुनने के लिए रेडियो खोलते थे और हारमोनियम हमारे शास्त्रीय संगीत का सर्वव्यापी हिस्सा रहा है।
क्रिकेट पर प्रतिबंध केस्कर के वश में नहीं था, लेकिन वह आश्वस्त थे कि अंग्रेजों के जाते ही यह खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा। आज जब भारत विश्व क्रिकेट के केंद्र में है, तब केस्कर की बातों को याद करना जरूरी लग रहा है। ब्रिटिश मूल का होने के बावजूद यह खेल भारत और भारतीयों के जीवन में रचा-बसा है। यही अकेला खेल है, जो हमें विश्व की सुर्खियों में रखता है।
मेरे जैसा इतिहासकार अगर भविष्यवाणी से दूर रहता है, तो इसका बड़ा कारण केस्कर जैसे लोगों की भविष्यवाणियों का हश्र भी है। हालांकि हाल के दिनों में अपने ही बनाए मानकों से अलग जाकर मैंने भी लिखा है कि ‘अगर यह असंभव नहीं, तो बहुत आसान भी नहीं कि कांग्रेस एक बार फिर भारतीय राजनीति की धुरी बन पाएगी।’ हालांकि मेरे इस पूर्वानुमान के गलत साबित होने की कोई संभावना मुझे तो नहीं दिखती, फिर भी मुझे लगता है कि यह मेरी अंतिम भविष्यवाणी होनी चाहिए। अन्यथा भविष्य का कोई स्तंभकार शायद मेरी कब्र पर भी उसी तरह डांस करे, जैसा मैं यहां कपुस्चिंस्की और केस्कर के साथ कर रहा हूं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)