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सवाल न्यायपालिका की गरिमा का है

भारत की अदालती प्रक्रिया और कार्यवाही को पूरी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है। लेकिन जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के बीच जिस तरह विवाद उभरा, उससे हमारी जगहंसाई हो रही है। अदालत की गरिमा से...

सवाल न्यायपालिका की गरिमा का है
न्यायमूर्ति पलोक बसु, पूर्व न्यायाधीश, इलाहाबाद हाईकोर्टWed, 10 May 2017 11:05 PM
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भारत की अदालती प्रक्रिया और कार्यवाही को पूरी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है। लेकिन जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के बीच जिस तरह विवाद उभरा, उससे हमारी जगहंसाई हो रही है। अदालत की गरिमा से खिलवाड़-सा हो गया है। इसमें दो राय नहीं है कि सर्वोच्च अदालत ने जो भी आदेश जारी किए हैं, वे सभी सांविधानिक प्रक्रिया के तहत हैं। यहां तक कि जस्टिस कर्णन को छह महीने की सजा सुनाया जाना भी। संविधान का अध्याय-4 ‘संघ की न्यायपालिका’ की स्पष्ट व्याख्या करता है। अनुच्छेद-124 में उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन का उल्लेख है। इसी कड़ी में अनुच्छेद-129 कहता है कि उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपनी अवमानना के मामले में शक्ति के साथ ही अभिलेख न्यायालय की सभी शक्तियां भी हासिल होंगी। यानी सर्वोच्च न्यायालय के पास यह पूरा अधिकार है कि अगर उसे यह लगता है कि उसकी अवमानना हुई है, तो वह इसके लिए दोषी के विरुद्ध सुनवाई कर सकता है और संबंधित पक्ष को कठोर सजा भी दे सकता है। यह उसका सांविधानिक अधिकार है, भले ही अवमानना करने वाला शख्स कोई आम आदमी हो या हाईकोर्ट के जज जैसा कोई विशिष्ट आदमी। शीर्ष अदालत उससे जवाब-तलब कर सकती है। 

यह नहीं भूलना चाहिए कि जस्टिस कर्णन के मामले में पूरी न्यायसंगत प्रक्रिया अपनाई गई है। न्यायमूर्ति कर्णन ने मद्रास हाईकोर्ट में कुछ ऑर्डर ऐसे पास किए थे, जो न्यायसंगत नहीं थे। यह तक कहा गया कि आदेश असांविधानिक हैं। उसी से जुड़ा मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो शीर्ष अदालत ने उसे रोकने के आदेश जारी कर दिए। जस्टिस कर्णन ने इसे मानने से इनकार कर दिया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अवमानना की नोटिस भेजी। जस्टिस कर्णन अदालत में निजी तौर पर पेश जरूर हुए, मगर उन्होंने नोटिस का जवाब नहीं दिया। उल्टे उन्होंने आदेश जारी करने शुरू कर दिए। देश के प्रधान न्यायाधीश तक को उन्होंने पांच साल की सजा सुना दी, जो बिल्कुल हास्यास्पद है।

अब जस्टिस कर्णन के पास चंद ही विकल्प बचे हैं। वह पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकते हैं। अनुच्छेद-137 में इसकी व्यवस्था है। यह अनुच्छेद कहता है कि उच्चतम न्यायालय अपने फैसले या आदेश पर पुनर्विचार कर सकता है। यदि जस्टिस कर्णन यह याचिका दाखिल करते हैं, तो संभव है कि सर्वोच्च अदालत पूरे मामले पर फिर से गौर करे, अन्यथा उन्हें जेल जाना ही होगा। इस मामले में सर्वोच्च अदालत किसी कानून या लॉ के अंतर्गत नहीं, बल्कि अपनी सांविधानिक शक्तियों के तहत आदेश जारी कर रही है, इसलिए स्पष्ट है कि आगे भी कार्यवाही सामान्य मामलों की तरह नहीं होगी। सर्वोच्च अदालत खास रुख अपना सकती है। यहां इस तर्क का भी कोई अर्थ नहीं है कि यह मामला संसद में जा सकता है। यह विशुद्ध रूप से अदालत की अवमानना का मामला है, इसलिए इसका निपटारा भी अदालती माध्यम से ही होगा। जस्टिस कर्णन या तो पुनर्विचार याचिका दाखिल करेंगे या फिर छह महीने की सजा भुगतेंगे।

हालांकि अदालती अवमानना के मामले में जजों के कठघरे में खड़े होने के मामले देश में पहले भी दिखे हैं। अभी कुछ महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश को अवमानना की नोटिस जारी की गई थी। वह निजी तौर पर अदालत में पेश हुए और अपना जवाब भी दाखिल किया। जवाब में उन्होंने माफी मांगी, जिस कारण अदालत ने वह मुकदमा बंद कर दिया। उस मामले में अदालत ने ‘केस इज क्लोज्ड’ शब्द का इस्तेमाल किया था, यानी मुकदमा खत्म नहीं किया गया, बल्कि बंद कर दिया गया। इसी तरह, कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन और सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरण के खिलाफ भी अवमानना की नोटिस जारी की गई थी, मगर इस हद तक आते-आते उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, लिहाजा किसी कार्रवाई की जरूरत नहीं पड़ी।

जस्टिस कर्णन इन तमाम मामलों का अंतिम नतीजा देख सकते हैं। वह 1963-64 की उस घटना पर भी गौर कर सकते हैं, जब जस्टिस सईद जाफर इमाम सुप्रीम कोर्ट के जज हुआ करते थे। उनकी तबीयत बहुत अच्छी नहीं रहती थी, इसलिए वह दो-तीन महीने कोर्ट नहीं आए, मगर वह यही कहते रहे कि वह काम कर रहे हैं। उस समय देश के अटॉर्नी जनरल एम सी सीतलवाड़ थे और सॉलिसिटर जनरल सी के दफ्तरी। सीतलवाड़ ने अपनी किताब माइ लाइफ में इस घटना का जिक्र करते हुए बताया है कि किस तरह विवाद बढ़ने पर उन लोगों को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश बी पी सिन्हा ने बुलाया था और फिर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने जस्टिस जफर इमाम को इस्तीफे के लिए राजी करके उस मामले को खत्म करवाया था।

मेरा स्पष्ट मानना है कि इस मामले को भी खत्म किया जा सकता है। इसे अब तूल देने का कोई मतलब भी नहीं है। जस्टिस कर्णन के माफी मांगते ही यह विवाद खत्म हो जाएगा। हमारी न्याय-व्यवस्था ‘जैसे को तैसा’ की नीति नहीं अपनाती। मगर इसके लिए जरूरी यह है कि जस्टिस कर्णन अदालत में आएं। एक बार वह निजी तौर पर पेश हो चुके हैं, लेकिन जवाब देने से बच रहे हैं। वह सिर्फ आदेश जारी कर रहे हैं। वैसे भी, उन्होंने जो आरोप लगाए हैं, वे सारे बेबुनियाद ही लग रहे हैं। न्यायपालिका जाति के आधार पर दुर्भावना से प्रेरित होकर काम करे, यह हमने कहीं नहीं देखा है। कम से कम मेरा निजी अनुभव तो इसकी गवाही कतई नहीं देता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


 

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