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कम करना ही होगा गाड़ियों का बोझ

दिल्ली की एक बड़ी समस्या है। यहां हर बार सर्दी में लोग महसूस करते हैं कि वे हर दिन 50 सिगरेट के बराबर धुआं अपने फेफड़ों में भर रहे हैं। लेकिन कुछ दिनों के अंदर जैसे ही हवा से धुंध छंट जाती है, वे सब...

कम करना ही होगा गाड़ियों का बोझ
नंदन नीलेकणि, चेयरमैन, इन्फोसिसThu, 16 Nov 2017 11:57 PM
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दिल्ली की एक बड़ी समस्या है। यहां हर बार सर्दी में लोग महसूस करते हैं कि वे हर दिन 50 सिगरेट के बराबर धुआं अपने फेफड़ों में भर रहे हैं। लेकिन कुछ दिनों के अंदर जैसे ही हवा से धुंध छंट जाती है, वे सब कुछ भूल जाते हैं। समस्या भी किनारे धरी की धरी रह जाती है। हर साल हमारे नीति-नियंता फौरी उपायों की घोषणाएं करते हैं, जो बताता है कि सरकार प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कुछ भी करने को किस तरह प्रतिबद्ध है। मगर चूंकि पराली जलाने और धूल भरी आंधी का तत्काल समाधान संभव नहीं, इसलिए पूरा ध्यान गाड़ियों से निकलने वाले प्रदूषण पर चला जाता है। इस साल राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी ने सड़क के किनारे पार्किंग पर प्रतिबंध लगाने और पुरानी कारों को बाहर का रास्ता दिखाने जैसे उपाय अपनाने के आदेश दिए हैं। ऑड-ईवन की भी सलाह दी गई थी, मगर पहले छूट देने पर मसला फंसा और फिर बाद में इसे अमल में लाना ही टाल दिया गया। 

ऐसे तात्कालिक उपाय भी प्रभावी हो सकते हैं, पर ये स्थाई किसी भी रूप में नहीं हैं। हाल ही में मैंने ‘पॉलिसी विंडोज’ मॉडल और नोटबंदी से ‘लेस कैश’ (कम नकदी) अर्थव्यवस्था की राह की नियामक बाधाओं के स्थाई रूप से खत्म होने की बात कही थी। वायु प्रदूषण भी ऐसा ही एक गंभीर संकट है, लेकिन नेतृत्व की भूमिका में बैठे लोग सबको महसूस हो सकने वाले बदलाव की राह नहीं तलाश पा रहे। यह बात इसलिए अधिक हैरान करने वाली है, क्योंकि इसके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर हमारे पास पहले से मौजूद है।

इंडियन हाइवे मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड यानी आईएचएमसीएल ने इलेक्ट्रॉनिक तरीके से टोल टैक्स जमा करने की एक नई व्यवस्था फास्टैग की शुरुआत साल 2014 में ही की थी। फास्टैग रेडियो फ्रीक्वेंसी पहचान (आरएफआईडी) टैग है, जो हर कार को मिलता है। यह खुले मानकों पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि आरएफआईडी पढ़ने वाली मशीन सस्ती है, सूचनाओं के आदान-प्रदान और उपयोग करने में सक्षम है और सिर्फ एक विक्रेता तक सिमटी नहीं है। इससे होने वाला लेन-देन भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) की निगरानी में होता है। फास्टैग की व्यवस्था पूरी तरह लागू होने के बाद भारत एकमात्र ऐसा देश बन जाएगा, जहां राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंटरऑपरेबल इलेक्ट्रॉनिक टॉल कलेक्शन सिस्टम’ काम कर रहा होगा। सबसे अच्छी बात यह है कि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय व भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण मिलकर 2014 से ही इस टैग को लगाने का काम कर रहे हैं। राजमार्गों पर प्रतिदिन चलने वाली 40 लाख गाड़ियों में से लगभग छह लाख गाड़ियों में यह टैग लगाया जा चुका है। एक दिसंबर से बाजार में आने वाली हर नई गाड़ी में यह पहले से ही लगा होगा, जो स्थिति को और बेहतर बनाएगा। 

पहली नजर में फास्टैग महज टोल टैक्स कलेक्शन का स्वचालित तरीका जान पड़ता है। मगर हकीकत में यह बहुपयोगी है। इसके तहत, हर कार की अपनी एक आईडी होगी और वह बैंक अकाउंट अथवा वॉलेट से जुड़ी होगी। टोल बूथ पार करते ही निर्धारित राशि आपके खाते से स्वत: निकल जाएगी। अगर सिर्फ दिल्ली की बात करें, तो ऐसी व्यवस्था कम से कम पांच तरह से यहां की सड़कों पर गाड़ियों का बोझ कम करने में मददगार हो सकती है।

एक, फास्टैग से ‘कन्जेशन चार्ज’ यानी वाहनों की भीड़ रोकने का इंतजाम करना संभव हो सकता है। यानी इसकी मदद से सड़कों पर भीड़भाड़ वाले वक्त का आकलन करके सरचार्ज लगाया जा सकता है। ‘चार्जिंग’ का यह मॉडल लंदन और सिंगापुर में खूब सफल रहा है। दिल्ली भले ही उप-महाद्वीप का सबसे बड़ा मेट्रो नेटवर्क होने के सच पर इतराए, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यहां कारों का घनत्व भी बहुत ज्यादा है और इस मामले में यह तीसरा सबसे बड़ा शहर है। यहां प्रति  हजार आबादी पर 424 कारें हैं। ऐसे में, यहां ‘कन्जेशन चार्ज’ लगाना प्रभावकारी हो सकता है। यह कदम कारों की मांग कम करने में भी स्वाभाविक रूप से सहायक बन सकता है।

दो, फास्टैग के जरिए उन लोगों के लिए ‘कन्जेशन प्राइसिंस’ कम की जा सकती है, जो कार साझा करके दफ्तर जाते हैं। इसके लिए सरकार को अलग से कोई राइड-शेर्यंरग एप बनाने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि अधिकृत राइड-शेर्यंरग एप मुहैया कराने वाली कंपनियों को ही इससे जुड़े सॉफ्टवेयर ‘एप्लिकेशन प्रोगाममैटिक इंटरफेस (एपीआई)’ दिए जा सकते हैं।

तीन, इस तरह के टैग राजस्व का अवसर पैदा करते हुए पार्किंग का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ‘नो-पार्किंग’ का संकेत महज चेतावनी नहीं है, बल्कि अनधिकृत जगहों पर गाड़ी खड़ी करने पर गंभीर जुर्माने की भी व्यवस्था है। 

चार, फास्टैग की मदद से एनजीटी की वैसी सिफारिशों को अमल में लाया जा सकता है, जिन्हें आमतौर पर लागू करना मुश्किल होता है। प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र यानी पीयूसी को फास्टैग खाते से जोड़ा जा सकता है और उचित पीयूसी नहीं रहने पर फास्टैग पढ़ने वाली मशीन वाहन के गुजरते ही खुद-ब-खुद जुर्माना बैंक खाते से निकाल सकती है।

पांच, फास्टैग का सबसे जरूरी इस्तेमाल यह है कि सरकार बेहतर फैसले इसलिए नहीं ले पाती, क्योंकि उसके पास जरूरी ‘ग्रैन्युलर’ यानी सूक्ष्म ट्रैफिक डाटा नहीं होता। फ्लाईओवर की चौड़ाई बढ़ाने से लेकर लाल बत्तियों के बीच का समय तय करने तक के तमाम कामों की सफलता ऐसे ही गुणवत्तापूर्ण डाटा पर निर्भर करती है। उबर और गूगल जैसी कंपनियां फोन की जीपीएस या मोबाइल टावर के कनेक्शन से ऐसे आंकड़े इकट्ठा कर सकती हैं। संभवत: इसीलिए आज सैन फ्रांसिस्को में बैठे एक इंजीनियर को हमारे उन अधिकारियों से कहीं अधिक दिल्ली की ट्रैफिक की समझ होती है, जिनके पास सड़कों की डिजाइन तय करने की जिम्मेदारी है। फास्टैग मशीनों के बेहतर इस्तेमाल से सरकार भी ऐसे आंकडे़ जान सकती है। एक अदृश्य टोल बूथ सिर्फ टोल ही जमा नहीं करेगा, बल्कि उसके पास वहां से गुजरने वाली हर गाड़ी का वास्तविक आंकड़ा भी होगा। इसका सही इस्तेमाल हमारे कई हित साध सकता है। 

आने वाले दिनों में हमारे शहर स्मार्ट बनने जा रहे हैं। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से हमें स्मार्ट ट्रैफिक लाइट सिस्टम की जरूरत पड़ेगी। साफ है, फास्टैग व्यवस्था में असीम संभावनाएं हैं, मगर इसके लिए हमें सामूहिक रूप से प्रयास करना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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