फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन ताजा ओपिनियनताकि ऐसी स्थिति फिर न आए

ताकि ऐसी स्थिति फिर न आए

जस्टिस चिन्नास्वामी स्वामीनाथन कर्णन के मामले की गूंज अब भी पूरे देश में सुनाई दे रही है। पूरे मामले का अफसोसजनक उत्कर्ष बिंदु यह रहा कि उच्चतम न्यायालय में कॉलेजियम द्वारा नियुक्त एक जज ने ही उच्चतम...

ताकि ऐसी स्थिति फिर न आए
विजय कुमार चौधरी, अध्यक्ष, बिहार विधान सभाThu, 25 May 2017 12:18 AM
ऐप पर पढ़ें

जस्टिस चिन्नास्वामी स्वामीनाथन कर्णन के मामले की गूंज अब भी पूरे देश में सुनाई दे रही है। पूरे मामले का अफसोसजनक उत्कर्ष बिंदु यह रहा कि उच्चतम न्यायालय में कॉलेजियम द्वारा नियुक्त एक जज ने ही उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम के वृहत्तर विन्यास के सभी सात सदस्यों की दिमागी हालत जांचने का आदेश दे दिया। अंत में सात सदस्यीय पीठ ने न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार उच्च न्यायालय के किसी कार्यरत न्यायाधीश को अवमानना का दोषी मानते हुए छह महीने की कारावास की सजा सुनाई। लेकिन इस पूरे प्रकरण ने जो सवाल खड़े किए, वे अब भी अनुत्तरित हैं।

जस्टिस कर्णन के इतिहास पर गौर करें, तो मद्रास लॉ कॉलेज से विधि स्नातक की डिग्री हासिल कर मद्रास उच्च न्यायालय में उन्होंने 1983 में वकालत शुरू की। इस बीच वह कई बार राज्य और केंद्र सरकार के सरकारी वकील भी नियुक्त किए गए। फिर 2009 में मद्रास उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एके गांगुली की अनुशंसा पर भारत के प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के नेतृत्व वाले कॉलेजियम ने इनकी नियुक्ति मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर की। अधिवक्ता के रूप में भी जस्टिस कर्णन का कार्यकाल आदर्श या विवाद रहित नहीं था। न्यायाधीश बनने के तुरंत बाद 2011 में उन्होंने विधिवत पत्रकार सम्मेलन आयोजित करके अपने साथी जजों पर जातिगत आधार पर भेदभाव करने का आरोप लगाया। फिर 2015 में उन्होंने अपने मुख्य न्यायाधीश एसके कौल के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेते हुए दलित उत्पीड़न का आरोप लगाकर अवमानना की प्रक्रिया शुरू कर दी, जिसे उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थगित करना पड़ा। न्यायिक नियुक्ति से संबंधित एक अन्य मामले में भी वह अनधिकृत रूप से हस्तक्षेप कर अपनी बात कहने दूसरे के न्यायालय कक्ष में पहुंच गए। बाकी इतिहास का जिक्र कई बार हो चुका है, जिसका अंतिम अध्याय उच्चतम न्यायालय द्वारा जस्टिस कर्णन को अवमानना का दोषी मानते हुए छह महीने कैद की सजा सुनाना है। इस फैसले का एक महत्वपूर्ण अंश यह भी है कि उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस कर्णन के किसी बयान को पूरे देश के मीडिया में कहीं भी नहीं छापने का निर्देश दिया। यह इस देश की न्यायपालिका के लिए एक अनोखा निर्णय था।

इस पूरे प्रकरण से तीन-चार महत्वपूर्ण और गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। पहला, माननीय जजों की नियुक्ति-प्रक्रिया से जुड़ी संविधान की धारा-217 के अनुसार, 15 साल तक वकालत का अनुभव रखने वाला कोई भी व्यक्ति मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के संबंध में समय-समय पर विवाद और प्रश्न उभरते रहे हैं। हाल ही में उच्चतम न्यायालय का कॉलेजियम बनाम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियों के आयोग का मुद्दा जोर से उभरा था। इस विवाद का अभी सकारात्मक निराकरण हो ही रहा है कि इस बीच कर्णन मामले ने उच्च और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति-प्रक्रिया पर फिर से मंथन करने की आवश्यकता उजागर कर दी है। धारा-217 के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जानी है। सांविधानिक प्रावधानों के निर्वहन का अंतिम अधिकार उच्चतम न्यायालय को ही प्राप्त है। इसके तहत इसने राष्ट्रपति द्वारा अपनी अनुशंसाओं को मानना बाध्यकारी बता दिया है। फिलहाल, इस विवाद से अलग, इतना तो अवश्य है कि आज कॉलेजियम द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया की समीक्षा और मंथन की जरूरत है। यह इसलिए कि जस्टिस कर्णन जैसे लोगों की नियुक्ति भी तो कॉलेजियम द्वारा ही की गई है, जो अंतत: उसी के लिए भस्मासुर साबित हुई। नियुक्तियां चाहे जिस प्रकार हों, इसमें गहन छानबीन और पारदर्शिता लाने की आवश्यकता है, ताकि आने वाले समय में न्यायपालिका के लिए ऐसी दुखद स्थिति फिर पैदा न हो।

दूसरे, एक न्यायाधीश के रूप में अधिकार-संपन्न और हर तरह से सुरक्षित व संरक्षित होने के बावजूद जस्टिस कर्णन द्वारा अनुसूचित जाति/ जनजाति निवारण अधिनियम की सहायता लेना एक अलग प्रश्न खड़ा करता है। यह तो सर्वाधिकार संपन्न उच्च न्यायपालिका थी, जिसने अपने को इसकी जद से बचा लिया, वरना आम लोगों का क्या होता? भारतीय समाज ऐतिहासिक रूप से वर्ण और जाति-व्यवस्था के आधार पर विभाजित रहा है। यहां पिछड़े, दलित, महा-दलित व आदिवासी सामाजिक भेदभाव के शिकार होते रहे हैं, जिसके उन्मूलन के लिए ही यह कानून बनाया गया। इसके तहत भेदभाव मूलक व्यवहार करने वालों को सजा भी मिली है। मगर जस्टिस कर्णन मामले ने इस अधिनियम के दुरुपयोग के प्रति न्यायिक संवेदनशीलता की जरूरत भी उजागर की है। 

तीसरा प्रश्न अवांछनीय आचरण करने वाले न्यायाधीशों के विरुद्ध अनुशासन-प्रक्रिया से जुड़ा है। संविधान निर्माताओं द्वारा इस तरह के उच्च-पदासीन न्यायाधीशों के द्वारा ऐसे अवांछनीय आचरण की कल्पना भी शायद नहीं की गई होगी। ऐसे मामलों में एकमात्र सांविधानिक व्यवस्था भारतीय संसद द्वारा महाभियोग की कार्रवाई के तहत किसी न्यायाधीश को पद से हटाना है। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में इसका अभी तक उपयोग नहीं किया जा सका है। जरूरत इस बात की है कि महाभियोग के प्रावधान से इतर भी ऐसे आचरण पर अनुशासनिक कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, चूंकि जजों की नियुक्ति कॉलेजियम और राष्ट्रपति द्वारा होती है, तो जजों के खिलाफ अन्य प्रकार की अनुशासनिक कार्रवाई का अधिकार भी कॉलेजियम और राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिए। 

उच्चतम न्यायालय द्वारा कर्णन मामले में दिए गए आदेश का एक महत्वपूर्ण अंश देश के मीडिया को जस्टिस कर्णन के बयानों को न छापने का निर्देश देना भी है। यह भी एक गंभीर स्थिति की ओर इशारा करता है। उच्चतम न्यायालय ने शायद महसूस किया कि किसी के अवांछित बयानों को मीडिया में जगह मिलने से जनमानस में भ्रामक स्थिति पैदा होती है और सांविधानिक संस्थाओं की गरिमा व मर्यादा का हनन होता है। माननीय उच्चतम न्यायालय की यह मंशा भी रही होगी कि जस्टिस कर्णन के बयानों से लगातार न्यायपालिका की गरिमा का हनन होता रहा है। पर क्या यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ मीडिया की स्वतंत्रता की हदबंदी नहीं करता है। और अगर यह सही है, तो क्या इस तरह के अन्य मामलों में उच्च या उच्चतम न्यायालय यही संवेदनशीलता दिखाएगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें