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ऐन वक्त के फैसले की अफरा-तफरी

पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पटाखों की बिक्री पर रोक लगाने का आदेश दिया, तो राजधानी से करीब 2600 किलोमीटर दूर बसे छोटे से शहर शिवकासी पर इस फैसले का सीधा असर...

ऐन वक्त के फैसले की अफरा-तफरी
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ तमिल पत्रकारMon, 16 Oct 2017 11:24 PM
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पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में पटाखों की बिक्री पर रोक लगाने का आदेश दिया, तो राजधानी से करीब 2600 किलोमीटर दूर बसे छोटे से शहर शिवकासी पर इस फैसले का सीधा असर हुआ। पटाखे, माचिस की तीली और कागज के पोस्टर बनाने के कारोबार का पर्याय बन चुका शिवकासी जैसे स्तब्ध रह गया। चीन के सस्ते उत्पादों ने पहले ही उसकी कमर तोड़ डाली थी, फिर पिछले साल की नोटबंदी, और इस साल जीएसटी ने उसे जोरदार झटका दिया। जीएसटी में इसे सर्वाधिक 28 प्रतिशत के टैक्स स्लैब में रखा गया है। यह शहर एनसीआर में पटाखा बिक्री पर रोक के लिए तैयार ही नहीं था, जहां पर इसकी कुल बिक्री का करीब 20 फीसदी माल जाता रहा है।


इस दिवाली में शिवकासी 1,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाने जा रहा है। कई सारे कामगारों, खासकर बुजुर्गों के आगे नौकरी जाने का खतरा मंडराने लगा है। कुछ पटाखा निर्माता बहादुरी के साथ पर्यावरण के अनुकूल पटाखे (ग्रीन क्रैकर्स) बनाने के दावे कर रहे हैं, तो वहीं इस कारोबार से जुड़े दूसरे तमाम कारोबारी किसी ऐसे रास्ते की तलाश में हैं, जिससे उन्हें अपना कारोबार जारी रखने में मदद मिल सके। कुल मिलाकर, पटाखा उद्योग में एक अफरा-तफरी का माहौल है, लेकिन साथ ही यह एहसास भी है कि उन्हें अपने इस व्यवसाय को नया रूप देने की जरूरत है। पटाखे बनाने वाली कंपनियों के मुताबिक, यह क्षेत्र तीन लाख प्रत्यक्ष और 10 लाख परोक्ष रोजगार मुहैया कराता है। इससे प्रिंटिंग व पैकेजिंग उद्योग को भी मुनाफा होता है। इसके अलावा, देश भर के लाखों थोक व खुदरा दुकानदारों की आजीविका इस पर आधारित रही है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका के जरिए पटाखा कारोबारियों के पक्ष में यह दलील भी पेश की थी कि पटाखों के अलावा धूल, गाड़ियों से निकलने वाले धुओं, इमारतों की निर्माण गतिविधियों और पड़ोसी सूबों में किसानों द्वारा पराली जलाने से भी एनसीआर में वायु प्रदूषण होता है।
 
इस पूरी बहस को कुछ लोगों ने यह कहते हुए सांप्रदायिक मोड़ देने की कोशिश की कि सरकार को जानवरों की कुर्बानी समेत उन तमाम परंपराओं पर भी गौर करना चाहिए, जिनके कारण प्रदूषण बढ़ता है। कुछ लोगों ने तो कोर्ट द्वारा पटाखों की बिक्री पर लगाए गए प्रतिबंध को ‘हिंदू त्योहारों को निशाना बनाने’ तक ठहरा डाला। कुछ दलीलें निस्संदेह अतिवाद की हद तक गईं, मगर इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली भयानक वायु प्रदूषण से जूझ रही है। इस महानगर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इसकी हवा सर्दी की शुरुआत में ही प्रदूषण की गिरफ्त में फंस जाती है, और स्मॉग के कारक प्रदूषक तत्व इसमें लंबे समय तक छाए रहते हैं। राजस्थान के रेगिस्तानों से इसकी नजदीकी समस्या को और बढ़ाती है, तो पड़ोसी प्रांतों हरियाणा व पंजाब तरफ से इसकी ओर बहने वाली हवा अपने साथ पराली के जलने से पैदा प्रदूषक तत्व भी लाती है। दिल्ली में वाहनों की संख्या तो काफी है ही, रात में इससे गुजरने वाले अंतरराज्यीय ट्रक भी यहां के वायु प्रदूषण को और गहरा देते हैं। जाहिर है, इस महानगर के बच्चे और बूढ़े इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, एनसीआर में धूम्रपान न करने वालों को भी कैंसर की आशंका बढ़़ गई है, क्योंकि उनके फेफड़े दूषित हवाओं से भरे रहते हैं।

प्रदूषण के स्तर को बताने के लिए अधिकारी लगातार आंकड़ों का एलान करते हैं। किसी भी इलाके की हवा की गुणवत्ता को पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) के जरिए मापा जाता है। इसमें 2.5 का अंक प्रदूषक कण का आकार है। भारत सरकार के मुताबिक, पीएम 2.5 का घनत्व 40 से 60 ‘माइक्रोग्राम पर क्यूबिक मीटर’ यानी एमपीसीएम होना चाहिए। अब जरा दिल्ली में पीएम 2.5 का स्तर क्या है, इस पर गौर कीजिए। पिछले साल दिवाली की रात दिल्ली के आनंद विहार में पीएम 2.5 का स्तर 883 एमपीसीएम था, जबकि शहर के कुछ इलाकों में तो यह स्तर 1000 एमपीसीएम तक पहुंच गया था! इस सोमवार को एनजीओ सफर के मुताबिक, पीएम 2.5 का स्तर दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में 303 एमपीसीएम था। ज्यादातर दिल्लीवासी एक न दिखने वाले गैस चैंबर में जी रहे हैं। ऐसे में, हैरानी की बात नहीं कि दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में एक है। और यह कहने की जरूरत नहीं कि साफ हवा में सांस लेने की आजादी भी एक नागरिक का बुनियादी अधिकार है। फिर दिवाली की रात का ध्वनि प्रदूषण न सिर्फ इंसानों को, बल्कि पशु-पक्षियों को भी बुरी तरह तनावग्रस्त करती है।

प्रदूषण की यह समस्या कोई आज अचानक नहीं खड़़ी हुई है। आखिर सरकारें क्यों आंखें मूंदे रहीं? शिवकासी के पटाखा कारोबारी केंद्र व राज्य सरकारों, औद्योगिक संगठनों और वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों से यह कहते रहे हैं कि उन्हें पर्यावरण के मुफीद पटाखे बनाने की तकनीक मुहैया कराई जाए, मगर उन्हें कहीं से कोई सुझाव या हल नहीं मिला। 
 
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम के लिए टुकड़ों में फैसले करने या उसकी उपेक्षा करने की बजाय एक समग्र नीति की दरकार है, जिस पर लंबे वक्त तक अमल सुनिश्चित कराया जाए। सुप्रीम कोर्ट का एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध का फैसला दिवाली से महज 10 दिन पहले आया, जबकि ज्यादातर स्टॉक बाजार में आ चुका था। आखिरी वक्त में रोक के फैसले से तो कालाबाजारियों की बांछें खिलेंगी। दिवाली तो अब भी वायु और ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाली हो सकती है, क्योंकि पटाखे छोड़ने पर प्रतिबंध नहीं लगा है। साल 2015 में दिल्ली में वाहनों के लिए लागू ऑड-ईवन योजना भी अंतिम क्षणों के समाधान के तौर पर शुरू की गई थी। आखिर जब नागरिकों के लिए आपातकालीन स्थिति बन जाती है, तभी हमारे नीति-नियंता क्यों जागते हैं? आखिरी वक्त के फैसले न सिर्फ भ्रम को जन्म देते हैं, एक संवेदनशील और स्वस्थ बहस को विकृत कर देते हैं, बल्कि इससे कुछ लोगों को सांप्रदायिक खेल खेलने का मौका भी मिल जाता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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