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निरर्थक साइकिल ट्रैक बनाता समाज

दिल्ली से दौलताबाद जैसी लोकोक्तियां भारतीय समाज में मौजूद एक खास तरह के सामंती यथार्थ का प्रतिनिधित्व करती हैं। कभी मुहम्मद तुगलक अपनी सनक या झोंक में कोई ऐसा फैसला कर लेता है, जिसकी निर्णय प्रक्रिया...

निरर्थक साइकिल ट्रैक बनाता समाज
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दिल्ली से दौलताबाद जैसी लोकोक्तियां भारतीय समाज में मौजूद एक खास तरह के सामंती यथार्थ का प्रतिनिधित्व करती हैं। कभी मुहम्मद तुगलक अपनी सनक या झोंक में कोई ऐसा फैसला कर लेता है, जिसकी निर्णय प्रक्रिया में कोई व्यापक भागीदारी नहीं होती। सरकारी खजाना खाली होने और सैकड़ों जान जाया कराने के बाद तुगलक का फैसला बदलता जरूर है, पर तब तक ‘तुगलकी फरमान’ जैसा शब्द भाषा को मिल चुका होता है।

उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार के कार्यकाल में कई सौ करोड़ रुपये खर्च करके साइकिल ट्रैक बनाए गए और इनके बारे में कहा जा सकता है कि तेज बहते गंदले पानी में सरकारी खजाना बहाने जैसा कुछ हुआ। मेरा मतलब तंत्र के भ्रष्टाचार से नहीं है, क्योंकि वह तो सड़कों, नहरों, पुलों, हर जगह दिख ही रहा था। शायद इसके लिए अभिशप्त उत्तर प्रदेश की जनता सरकारी लूटपाट की बहुत चिंता भी नहीं करती, पर इससे भी अधिक कुछ बड़े मुद्दे हैं, जिन पर साइकिल ट्रैक बनाने से पहले सोचा जाना चाहिए था। पिछले दो-तीन वषार्ें में जब से साइकिल ट्रैक बनाने शुरू हुए थे, इन पर कभी भी साइकिलें चलती हुई नहीं दिखीं। ये पशु बांधने के काम आते रहे, इन पर रेहड़ियां लगती रहीं और अधिकांश स्थानों पर बेतरतीब वाहन पार्क किए जाते रहे। इस बीच मैंने उत्तर प्रदेश में कई सौ किलोमीटर की सड़क यात्राएं कीं और अलग-अलग जगहों पर गहरे लाल पेंट से रंगे और दूर से ही पहचान में आ सकने वाले साइकिल ट्रैक देखे। पर इस बात के लिए तरसता रहा कि कभी इन पर साइकिलें भी चलती दिखें। ऐसा भी नहीं है कि भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश लोग साइकिलों से चलते हों और उनमें से एक बड़ी संख्या तेज रफ्तार वाहन चलाने वाले अराजक चालकों का शिकार होती है, अलग से साइकिल ट्रैक की जरूरत ही नहीं है। साइकिल ट्रैक ही नहीं, उन गरीब पैदल चलने वालों के लिए भी सड़क पर अलग व्यवस्था होनी चाहिए, जो उन्मत्त वाहन चालकों के शिकार बनते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों को देखें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि इस मामले में भारत दुनिया के बदतरीन मुल्कों में से एक है। फिर क्यों साइकिल ट्रैक हमारे समाज ने खारिज कर दिए?

साइकिल या पैदल चलने वालों के लिए ट्रैक एक ऐसा समाज बनाता है, जिसमें आंतरिक लोकतंत्र होता है। यह समाज अपने कमजोरों के लिए आदतन स्थान छोड़ता है। ऐसे ही समाज में यह संभव है कि सड़क पर चलने का पहला अधिकार पैदल चलने वाले को मिले। जिन भारतीयों को पश्चिम की सड़कों पर चलने का अनुभव नहीं है, वे शायद ऐसे दृश्यों पर विश्वास नहीं कर पाएंगे, जिनमें पैदल सड़क पार करने वाला एक बटन दबा दे और चारों तरफ से आने वाला ट्रैफिक तब तक ठिठका खड़ा रहे, जब तक वह सुरक्षित दूसरी तरफ न चला जाए। हम तो ऐसी स्थितियों के अभ्यस्त हैं, जिनमें ट्रक कार को, कार साइकिल को और साइकिल पैदल को धकियाती चलती है। जो जितना ताकतवर है, सड़क पर उसका उतना ही अधिकार है। अस्त-व्यस्त ट्रैफिक में ठिठके आपसे बड़े वाहन का चालक गाड़ी रोककर यह पूछ सकता है कि क्या आप अंधे या बहरे हैं कि आपने उसका हॉर्न नहीं सुना या सड़क आपके बाप की है कि उसके लिए रास्ता छोड़ आप पटरी पर नहीं भाग गए?

कुछ वर्षों पहले जब मैं पहली बार लंदन गया, तो यही हैरानी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मेरे साथ मित्र लेखक रवींद्र कालिया थे और दोनों सड़क पार करते समय कानून-कायदे को इलाहाबादी ठेंगा दिखाने के आदी थे। हर बार जब हम गलत ढंग से व्यस्त ट्रैफिक में घुसते, हमें लगता कि अब कोई गोरा वाहन चालक हमें हमारी औकात बताएगा, पर वहां जो कुछ घटता, उसे देख-सुनकर हमारी सड़कों की समझ गड़बड़ा जाती। ज्यादातर मौकों पर ऐसा हुआ कि तेज रफ्तार से आती गाड़ियां रुककर हमारे सड़क पार करने का इंतजार करने लगीं, अगर हमने घबराकर वापस जाने की कोशिश की, तो मुस्कराता हुआ कोई ड्राइवर अपना वाहन खड़ा कर अपने हाथों या सिर की जुंबिश से हमें पार जाने का इशारा करने लगता। एक-दो दिनों में ही हमें वह जादुई बटन दिख गया, जो ट्रैफिक सिग्नल वाले खंभों में लगा होता था और जिसे दबाकर कोई पैदल यात्री बड़े ठसके से यह घोषणा कर सकता था कि तेज रफ्तार वाहन रुक जाएं, क्योंकि उसे सड़क पार करनी है। बस, मेट्रो, ट्रेन, पैदल- गरज यह कि सफर के हर माध्यम का इस्तेमाल करते समय आपको यह एहसास हो सकता है कि यात्रा के दौरान पैदल, बूढ़ों, बच्चों, ्त्रिरयों या विकलांगों के अधिकार दूसरों से अधिक हैं।

हम, जो स्वयं को महान जगतगुरु सभ्यता कहते नहीं थकते, क्यों अपने बीच के कमजोरों के लिए स्पेस नहीं छोड़ सकते? यह अनुशासन कि यात्रा के दौरान कमजोर के अधिकार अनुलंघनीय हैं, पुलिस के डंडे से नहीं पैदा होता, इसके लिए कोई समाज सभ्य बनने की एक लंबी यात्रा से गुजरता है। वर्ण व्यवस्था से जकड़े भारतीय समाज ने इस यात्रा से निरंतर गुरेज किया है। दुनिया में नस्लवाद, रंग भेद या लैंगिक असमानता जैसे भेदभाव के तमाम स्वरूप मौजूद रहे हैं, पर सबमें मुक्ति के रास्ते थे, मगर वर्ण व्यवस्था मनुष्य का कद छोटा करने वाली शायद अकेली जीवन पद्धति है, जिसमें मुक्ति के बहुत कम अवसर हैं। इसमें आस्था रखने वाले अपने बीच के तीन चौथाई ्त्रिरयों-पुरुषों को जानवरों से भी बदतर समझते हैं। इन बदनसीब लोगों को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य या कानून के सामने बराबरी जैसे मानव अधिकारों से शताब्दियों तक वंचित रखा गया और आज भी वर्णाश्रमी समाज खुशी से उनके लिए कुछ छोड़ने को तैयार नहीं होता। अब भी ‘पवित्र’ पशुओं के लिए उनकी हत्या होती रहती है। वर्णाश्रम लोकतंत्र की बुनियादी शर्त समानता का ही निषेध करता है। हमारी सांसों मे रचे-बसे इस अन्याय ने हमारी भाषा के क्रिया पद भी त्रिस्तरीय बना दिए हैं- हम एक ही हरकत के लिए सामने वाले की हैसियत के अनुसार ‘बैठ’, ‘बैठो’ या ‘बैठिए’ कह सकते हैं।

साइकिल ट्रैक की दुर्दशा के लिए हमारा अलोकतांत्रिक समाज जिम्मेदार है। इसमें कोई शक नहीं कि यह लोकतांत्रिक बनने की कोशिश कर रहा है, पर जाति प्रथा से छुटकारा इतना आसान भी नहीं है। पहले इस समाज को स्वीकार करना पड़ेगा कि सड़कों पर चलने का अधिकार पैदल या साइकिल चलाने वाले का अधिक है, तभी अलग साइकिल ट्रैक बनाने का कोई औचित्य हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

(यह लेख 19 जुन 2017 को प्रकाशित हुआ है)

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