एक लड़ाई जिसमें कोई विजेता नहीं
बीते शुक्रवार को इंफोसिस के सीईओ विशाल सिक्का ने अचानक इस्तीफा दे दिया। इंफोसिस के बोर्ड ने एक बयान जारी करते हुए कंपनी के संस्थापक व पूर्व चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति को इस घटनाक्रम का जिम्मेदार...
बीते शुक्रवार को इंफोसिस के सीईओ विशाल सिक्का ने अचानक इस्तीफा दे दिया। इंफोसिस के बोर्ड ने एक बयान जारी करते हुए कंपनी के संस्थापक व पूर्व चेयरमैन एन आर नारायण मूर्ति को इस घटनाक्रम का जिम्मेदार ठहराया है। सिक्का ने भी बोर्ड को लिखे पत्र में खुद पर हुए व्यक्तिगत हमले और आरोपों की बात कही है, जो ‘उन लोगों की तरफ से उछाले गए, जिनसे इस बड़े बदलाव में सबसे ज्यादा मदद की अपेक्षा थी’। हालांकि इसके तत्काल बाद मूर्ति ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि बोर्ड की तरफ से आई टिप्पणी से वह काफी क्षुब्ध हैं।
बहरहाल, जिस दिन सिक्का ने अपना इस्तीफा सौंपा, उस सुबह यानी इस्तीफे की घोषणा से चंद घंटे पहले मिंट ने एक खबर छापी थी, जो असल में एक ई-मेल के हवाले से थी। इसे मूर्ति ने अपने सलाहकारों को लिखा था। उस ई-मेल में कहा गया था कि इंफोसिस के बोर्ड के तीन सदस्यों ने (इनमें को-चेयरमैन रवि वेंकटेशन भी शामिल हैं) उनसे कहा था कि सिक्का सीईओ की बजाय मुख्य तकनीकी अधिकारी (सीटीओ) के ही लायक हैं। नौ अगस्त को भेजी गई इस ई-मेल में बोर्ड की कार्यशैली और कॉरपोरेट-गवर्नेंस जैसे मसलों पर भी चर्चा की गई है, जिसे मूर्ति ने पहले भी उठाया था। संभव है कि यह ई-मेल ही सिक्का की अप्रत्याशित विदाई की वजह बनी हो।
मैं जब यह लेख लिख रहा हूं, तब इंफोसिस का शेयर करीब दस फीसदी तक लुढ़क चुका है; लोगों की सहानुभूति सिक्का के साथ है; और मूर्ति बदनामी झेल रहे हैं, जो उनके अपने कर्मों की वजह से पैदा हुई है। मगर सवाल यह है कि इस सबका दोषी है कौन?
विशाल सिक्का 2014 में नियुक्त किए गए थे। तब इंफोसिस को एक ऐसे सीईओ की सख्त जरूरत भी थी, जो बदलाव की प्रक्रिया को सही ढंग से अंजाम दे सके। दरअसल, इंफोसिस जैसी आईटी कंपनियां तब कोड तैयार करने वाले अपने रंगरूटों की मदद से पश्चिम की कंपनियों के लिए एप्लिकेशन बनाकर और उसका प्रबंधन करके वर्षों से कमाती रही थीं, मगर यह बिजनेस मॉडल अपना सुनहरा दौर देख चुका था और ढलान की ओर था। इनके कुछ कस्टमर डिजिटल उभार की वजह से छिटक रहे थे। कुछ अपनी आईटी सेवा को फिर से सक्रिय करने को इच्छुक थे। और कुछ अच्छे डिजिटल सॉल्यूशन की तलाश में थे। रही-सही कसर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बौद्धिकता) और ऑटोमेशन (स्वचालित यंत्र) के उदय ने पूरी कर दी थी, जो आईटी सर्विस कंपनियों के पारंपरिक कारोबार को मानो निगल रहे थे।
साल 2007 के बाद से इंफोसिस में ऐसा कोई सीईओ नहीं हुआ था, जो नंदन नीलेकणि (2002 से 2007 तक इंफोसिस के सीईओ) की तरह तकनीक का एक बड़ा दूरंदेश हो या फिर मूर्ति (1981 से 2002 तक सीईओ) जैसी दृष्टि रखता हो और विस्तार पर ध्यान देता हो। साल 2014 में कंपनी को ऐसे ही किसी नेतृत्व की तलाश थी, जिनमें ये दोनों खूबियां हों। बोर्ड ने विशाल सिक्का को इसके लिए मुफीद माना।
शुरुआती दिनों में ही यह साफ हो गया था कि सिक्का के पास न सिर्फ तकनीक को लेकर एक दृष्टि है, बल्कि अधिग्रहण के संदर्भ में सख्त फैसले लेने की इच्छाशक्ति भी है। उन्होंने पालो अल्टो में सीईओ ऑफिस बनाया, जो उनकी गलती थी, क्योंकि वहां पर रहकर उन्हें यह नहीं पता चलने वाला था कि कंपनी का संचालन किस तरह हो रहा है, जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए था। संभवत: बोर्ड सिक्का को भारत लौटने को कह सकता था।
इस दरम्यान इंफोसिस ने जिस कंपनी का अधिग्रहण किया, उसका नाम था पनाया। यह प्रक्रिया 2015 में पूरी हुई। मगर बाद में ऐसी खबरें आईं कि इंफोसिस के मुख्य वित्तीय अधिकारी राजीव बंसल इस समझौते के पक्ष में नहीं थे और अधिग्रहण को लेकर बोर्ड की चल रही बैठक को छोड़कर वह बाहर निकल गए थे। उसी साल अक्तूबर में बंसल ने कंपनी छोड़ भी दी और कंपनी उन्हें भारी-भरकम सेवरेंस राशि (कंपनी छोड़ने के एवज में मिलने वाली रकम) देने पर सहमत हुई, जो उनके मूल कॉन्ट्रेक्ट का हिस्सा नहीं थी। पनाया अधिग्रहण और बंसल को किए गए भुगतान (जिसके एक हिस्से का भुगतान मूर्ति द्वारा नाराजगी जाहिर करने के बाद रोक दिया गया था) दो व्हिसल-ब्लोअर ई-मेल के सबब बने। इन मेल में ये आरोप लगाए गए थे कि इंफोसिस के कुछ प्रमुख मैनेजरों ने पनाया समझौते से पैसे बनाए और बंसल को इसीलिए भारी-भरकम रकम दी गई, ताकि वह इस मामले में चुप्पी साधे रहें। आरोपों की जांच एक प्रतिष्ठित कंपनी द्वारा करवाई गई, जिसे इस सौदे में कुछ भी गलत नहीं मिला। मगर इसकी पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई, जिसकी मांग मूर्ति कर रहे थे।
बोर्ड बंसल को लेकर अपने रुख में किए गए बदलाव की वजह बताने में नाकाम तो रहा ही, यह भी स्पष्ट रूप से नहीं बता सका कि वह मूर्ति के साथ किन शर्तों से जुड़ा है? यह एक मामूली चूक लग सकती है, मगर मेरा मानना है कि बोर्ड की एक बड़ी गलती यह समझने में उसकी नाकामी थी कि मूर्ति जैसा शख्स तब तक संचालन टीम का हिस्सा होता है, जब तक कि उसको उसकी स्थिति स्पष्ट न कर दी जाए। इस पर नीम चढ़ी बात यह रही कि कुछ निदेशकों ने सिक्का की शिकायत मूर्ति से करके उन्हें फिर से सक्रिय होने का मौका दे दिया।
मूर्ति की मानें, तो उन्होंने मैदान छोड़ने से बस इनकार कर दिया। इंफोसिस एक ऐसी उपलब्धि है, जिसे उन्होंने अपने जीवन में हासिल किया है। और वह सिर्फ इसकी बेहतरी चाहते थे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह ऐसा करने में सफल नहीं हो पा रहे थे।
बहरहाल, शुक्रवार के घटनाक्रम से न सिर्फ इंफोसिस सीईओविहीन हो गया है, बल्कि मूर्ति की छवि भी इससे धूमिल हुई है। इस घटना ने बोर्ड की निष्क्रियता को भी सार्वजनिक कर दिया है।