दो बड़े राष्ट्रवादियों की मुलाकात
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले तीन वर्षों में पांचवीं बार अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं, जहां राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से पहली बार उनकी आमने-सामने की मुलाकात होगी। माना जा रहा है कि ये दोनों...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले तीन वर्षों में पांचवीं बार अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं, जहां राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से पहली बार उनकी आमने-सामने की मुलाकात होगी। माना जा रहा है कि ये दोनों धुर-राष्ट्रवादी नेता भारत-अमेरिका संबंधों का भविष्य दो बिल्कुल विपरीत रास्तों पर चलते हुए तय कर सकते हैं।
हालांकि, इन दोनों नेताओं की तरफ से पूर्व में आए बयानों को देखकर कुछ विश्लेषक यह आशा भी पाल रहे हैं कि चूंकि मोदी और ट्रंप, दोनों खुद को चतुर सौदागर मानते हैं, लिहाजा संबंधों की यह नई दिशा नए समझौतों और सामरिक निकटता के रूप में आकार लेगी। ऐसे लोगों का यह भी मानना है कि आने वाले दिनों में भी दोनों देशों के आपसी संबंध मुख्यत: कारोबार आधारित ही होंगे, लेकिन ये अमूमन छोटी अवधि के लेन-देन वाले कारोबारी समझौतों पर टिके होंगे। राष्ट्रपति ट्रंप की तरफ से आई नकारात्मक टिप्पणियों (जैसे अभी उन्होंने कहा था कि पेरिस समझौते के समर्थन के पीछे भारत का अपना लोभ है) को देखते हुए एक राय यह भी है कि चूंकि आत्म-केंद्रित व्यक्तित्व के साथ-साथ दोनों विदेश नीति को लेकर गैर-पारंपरिक सोच रखते हैं, इसलिए द्विपक्षीय संबंधों की यह नई दिशा नई चुनौतियों-नए तनावों से गुजरेगी। मुमकिन है कि ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति व मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ एक-दूसरे से टकराए और रिश्तों में अड़चनें पैदा हों।
मगर मेरा मानना है कि भारत और अमेरिका का द्विपक्षीय रिश्ता कोई बिजनेस नहीं होगा। दोनों नेताओं के व्यक्तित्वों को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऊपर जताए गए सारे कयासों में से कोई भी सच नहीं होने जा रहा, क्योंकि इसकी कई वजहें हैं।
पहली वजह तो यह है कि द्विपक्षीय रिश्तों को नई ऊंचाई देने या उनको बेपटरी करने में भले ही राजनेता अहम भूमिका निभाते हों, लेकिन हकीकत यह भी है कि अकेले उन्हीं की पहल से कोई बहुआयामी साझेदारी परवान नहीं चढ़ती। इसमें सांसदों, कारोबारी घरानों, ताकतवर नौकरशाहों और प्रवासी भारतीयों की भी अच्छी-खासी भूमिका होती है। लिहाजा मजबूत राजनीतिक नेतृत्व भारत-अमेरिका संबंधों को गति तो दे सकता है, मगर लीक से हटकर बिल्कुल नई राह नहीं गढ़ सकता।
दूसरी वजह यह है कि सियासत में ट्रंप की छवि नौसिखिया की है। वह एक सफल शासक नहीं माने जाते, और तमाम दावों के बावजूद वह अपनी किसी भी पहल को अब तक हकीकत नहीं बना पाए हैं, फिर चाहे अप्रवासन का मामला हो, स्वास्थ्य सेवा का मुद्दा हो या फिर बजट का। इन सभी को विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से चुनौतियां मिल रही हैं। विडंबना यह है कि चुनौती देने वालों में रिपब्लिकन प्रभुत्व वाली कांग्रेस भी शामिल रही। इसी तरह, विदेश नीति के मामले में भी ट्रांस-पैसेफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) और पेरिस समझौते से कदम पीछे खींचने से ट्रंप की छवि मूर्तिभंजक की तो बनी ही है, नए रिश्तों को आगे बढ़ाने की उनकी क्षमता भी संदेहों के घेरे में है। फिर चाहे वह रूस या चीन के साथ रिश्तों का मामला हो या फिर मध्य-पूर्व (भारत से पश्चिम एशिया) के तनाव को खत्म कराने का मुद्दा।
इसके अलावा, 2016 के राष्ट्रपति चुनाव और उसके बाद भी रूस से ट्रंप प्रशासन की कथित करीबी व दूसरे तमाम लांछनों की वजह से अमेरिका में नए राष्ट्रपति पर हमले बढ़ रहे हैं। इसने व्हाइट हाउस को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने से रोका है और कुछ वक्त के लिए ही सही, मगर राष्ट्रपति को अपनी योजनाओं को लागू करने से विमुख किया है।
इन तमाम हकीकतों के बावजूद मोदी का आगामी अमेरिका दौरा आपसी रिश्तों को मजबूत बनाने और भारत-अमेरिका संबंधों में आए अविश्वास को पाटने का एक अच्छा मौका है। टीम मोदी को न सिर्फ छोटी अवधि के कारोबारी समझौतों पर जोर देना चाहिए, बल्कि लंबी अवधि के सामरिक रिश्ते भी विकसित करने चाहिए; और यह ऐसा रिश्ता हो कि उसकी गर्मजोशी टं्रप युग के बीत जाने के बाद भी बनी रहे।
जहां तक कारोबारी समझौतों का सवाल है, तो हमें ऊर्जा से जुड़े सौदों को अंजाम देने में सबसे ज्यादा फायदा होगा। पेरिस समझौते पर वाशिंगटन से उलझने की बजाय नई दिल्ली को जीवाश्म-ईंधन हितैषी वाशिंगटन से फायदा उठाना चाहिए। जैसे, भारत अपने बीमार कोल उद्योग के निजीकरण की सोच रहा है, तो वह अमेरिकी प्रशासन और कंपनियों को अपने यहां निवेश करने या आधुनिक तकनीक मुहैया कराने को कह सकता है। इसी तरह, भारत प्राकृतिक गैस के अन्य स्रोतों की भी तलाश में है, जिसके लिए वह अमेरिका से इसका आयात बढ़ा सकता है। हालांकि मेरा मानना है कि सबसे आकर्षक कारोबारी समझौता दिवालिया हो चुकी अमेरिकी परमाणु कंपनी वेस्टिंगहाउस को खरीदने के लिए मजबूत बोली लगाना होगा। अगर निविदा प्रक्रिया में हम सफल न भी होते हैं, तब भी हमारा यह कदम भारत-अमेरिका रिश्तों को आगे बढ़ाने की ताकत रखता है। यह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में हमारे शामिल होने के दावे को भी मजबूत बनाएगा।
इसके साथ ही, अमेरिका के उन कारोबारी घरानों तक भी भारत अपनी पहुंच बना सकता है, जो पेरिस समझौते के हिमायती हैं और 21वीं सदी की तकनीक और अर्थव्यवस्था के प्रेरक तत्व हैं; खासतौर से हरित ऊर्जा में, साइबर क्षेत्र और अंतरिक्ष सुरक्षा में। संयुक्त उद्यमों में निवेश को प्रोत्साहित करने की पेशकश करके यह कोशिश की जा सकती है। यह संयोग नहीं है कि पूंजीवाद के इस सबसे बड़े समर्थक देश में अपनी सालाना यात्रा के दौरान मोदी ने बड़े सीईओ से मिलने और इनोवेशन, तकनीक व इन्फ्रास्ट्रक्चर के कॉरपोरेट सेंटरों में जाने की योजना बनाई है। कारोबारी समझौतों को यदि दरकिनार भी कर दें, तो आतंकवाद का मुकाबला करने और ‘भारत-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग के विस्तार के लिए’ व्हाइट हाउस हमसे नजदीकी चाहता है। यह सहयोग काफी कुछ इस बात से तय होगा कि अमेरिका द्वारा संचालित फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशन्स पर दोनों देशों में किस तरह की समझदारी बनती है और चीन की हरकतों व ‘वन बेल्ट, वन रोड’ योजना पर वाशिंगटन कैसा रुख अपनाता है?
बहरहाल, भले ही यह कहा गया हो कि ये मुलाकातें ‘बिना किसी तामझाम’ के होंगी और इसके नतीजों को लेकर दोनों देश कोई बड़े दावे न कर रहे हों, तब भी सच यही है कि इस दौरे से निकलने वाला नतीजा भविष्य में होने वाली बातचीत का रुख तय करेगा। और यह सब इसी से साफ हो जाएगा कि ट्रंप के हाथ मिलाने पर मोदी किस तरह का जवाब देते हैं और मोदी के गर्मजोशी से गले मिलने पर ट्रंप कैसा रवैया दिखाते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)