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उनसे लंबा उनकी कविता का जीवन

कुंवर नारायण हमारे महान कवियों में से एक थे। उनकी कविता ने भाषा की सीमाओं के पार बसे भूखंडों को भी प्रकाशित किया। हिंदी ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यताएं प्राप्त कीं और पर्याप्त हलचलें मचाईं।...

उनसे लंबा उनकी कविता का जीवन
गीत चतुर्वेदी, साहित्यकारSat, 18 Nov 2017 07:22 PM
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कुंवर नारायण हमारे महान कवियों में से एक थे। उनकी कविता ने भाषा की सीमाओं के पार बसे भूखंडों को भी प्रकाशित किया। हिंदी ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यताएं प्राप्त कीं और पर्याप्त हलचलें मचाईं। 19 सितंबर, 1927 को जन्मे कुंवर नारायण ने बुधवार सुबह जब देह छोड़ी, वह 90 साल के हो चुके थे। उनकी देह ने एक लंबा जीवन पाया और यकीन के साथ कहा जा सकता है कि उनकी कविताओं का जीवन इससे भी कहीं अधिक लंबा होगा। 


वह जोगी थे। वह ऋषि थे। वह संत थे। वह कवि थे। सिर्फ मैं ही नहीं, बहुत सारे लोग कुंवर नारायण के लिए इस तरह के विशेषणों का प्रयोग करते हैं। यह किसी प्राचीन या मध्ययुग के कवि का वर्णन नहीं है, बल्कि बिल्कुल हमारे समकालीन, 20वीं-21वीं सदी में जिए एक कवि का वर्णन है। ऐसे विशेषणों का प्रयोग उनके व्यक्तित्व के बारे में सब कह देता है, जबकि दिनोंदिन, कितना मुश्किल होता जा रहा है कि लोगों को हम इन शब्दों के समूचे सकारात्मक अर्थों के साथ याद करते हैं। ऐसे समय में, जब चारों ओर कीर्ति की मार-काट हो, समाज यशाकांक्षी होने के साथ यशाक्रांत भी होता जा रहा हो, कुंवर नारायण के व्यक्तित्व की ये खूबियां हमें अच्छी तरह बता देती हैं कि एक कवि की तरह उन्होंने खुद को इन सब चीजों से कितना दूर रखा था, खुद को बचाए रखा था। 

कुछ महीनों पहले जब दिल्ली में उनके आवास पर मुलाकात हुई थी, उनका स्वास्थ्य जर्जर हो चुका था। दिखना बंद हो चुका था। सुनने की शक्ति लगभग क्षीण हो चुकी थी। लेकिन लंच के दौरान वह गालिब के शेर याद कर रहे थे। कांपती और लरजती हुई आवाज में, स्मृति के आधार पर उन्होंने अपने कुछ पसंदीदा शेर हमें सुनाए और उनके साथ अपना जुड़ाव बताया। यानी सबसे अस्वस्थ दिनों में भी उनके होंठों पर दुनिया की खूबसूरती में यकीन बनाए रखने वाली कविताएं मौजूद थीं। वह उन दुर्लभ कवियों में से थे, जो पूरी तरह कवि बने रहते हैं, जिनकी प्रतिबद्धता मनुष्यता के महास्वप्न, शब्दों के सौंदर्य और अनुभूतियों की गरिमा के प्रति होती है, न कि किसी विचारधारात्मक आंदोलन या राजनीतिक वाद के प्रति। वह मनुष्यता के चबूतरे पर खडे़ होकर राजनीति को देखा करते थे और इस बात में विश्वास करते थे कि हमारे हृदय का नेतृत्व श्रेष्ठ कलाएं करती हैं, न कि हर पांच साल में बदल जाने वाली राजनीति। साहित्य की उनकी यात्रा सात दशकों तक फैली रही और इस दौरान उन्होंने खुद को मुख्यत: कवि बनाए रखा। ऐसे समय में, जब कवि, कवि होने की बजाय सब कुछ बन जाना चाहता है, कुंवर नारायण ने खुद को कवि ही बनाए रखा। और यही हमारे साहित्य-समाज में कुंवर नारायण होने की गरिमा है। 

सरलता, सादगी और एक बेलौस-सी ईमानदारी न केवल कुंवर नारायण के व्यक्तित्व की विशेषताएं रहीं, बल्कि यही उनकी कविताओं का आधार भी हैं। उनकी रचनाओं में एक बेहद जटिल समय का चित्रण है, लेकिन बड़े कवि होने का हुनर ही यही है कि समय जितना जटिल होगा, वह उसकी अभिव्यक्ति को उतना ही सरल व सहज कर देता है। दुनिया चाहे जितनी बदल जाए, हमारी बुनियादी मानवीय अनुभूतियां वही रहती हैं, जीवन व मृत्यु, सत्य व असत्य, प्रेम व घृणा। कुंवर जी की कविताएं इन्हीं अनुभूतियों को नए-नए नामों से लगाई गई पुकार हैं। चाहे वह उनका खंडकाव्य आत्मजयी हो या वाजश्रवा के बहाने वह जीवन और मृत्यु के ध्रुवों के बीच हमारे भावनात्मक और नैतिक द्वंद्वों की पड़ताल करते हैं। विश्व-विजय की कामना रखने वाले इस ग्लोबल युग में उनकी कविताएं आत्मजय का अभ्यास कराती हैं। जाने कितने पाठक हैं, जिनके लिए संकट के क्षणों में उनकी कविताओं ने औषधियों जैसी भूमिका निभाई है। कोई दुख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं/ हारा वही, जो लड़ा नहीं जैसी पंक्तियां महज शब्द नहीं, हमारी जिजीविषा की जिद्दी मोमबत्तियां हैं। 


इतना कुछ था दुनिया में लड़ने-झगड़ने को/ पर ऐसा मन मिला/ कि जरा से प्यार में डूब गया/ और जीवन बीत गया  जैसी पंक्तियां एक साथ कई पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर रही हैं। तट पर हूं, पर तटस्थ नहीं  उन सभी लोगों के लिए एक राजनीतिक स्टैंड की तरह है, जो न तो इस ध्रुव को सही मान पा रहे, न ही उस ध्रुव को और उनका विरोध दोनों ध्रुवों की अनैतिकताओं के प्रति है। परचम लेकर एक ही दिशा में दौड़ पड़ने की बजाय कुंवर नारायण उस सत्यान्वेषी की तरह रहे, जो दो पल ठहरकर सोचता है और कहता है- जीवन और कलाएं स्थूलताओं से नहीं, सूक्ष्मताओं से बनते हैं। 

एक बार मोत्जार्ट से उनकी बहन ने खत में पूछा कि साधारण और श्रेष्ठ में क्या अंतर होता है? मोत्जार्ट ने जवाब दिया- ‘दोनों एक जैसे होते हैं, फर्क महज इतना होता है कि जो श्रेष्ठ होता है, वह दूसरों की अपेक्षा थोड़ा-सा अधिक प्रेम करता है, थोड़ा-सा अधिक ईमानदार होता है।’ हमारी भाषा में यह गुण कुंवर नारायण के व्यक्तित्व और कृतित्व में बहुत गहराई तक बसा हुआ दिखता है। उनकी रचनाएं सौंदर्य और प्रेम की पक्षधरता करती हैं और जब-जब समाज पर उंगली उठाती हैं, वह बेहद ईमानदार उंगली होती है। इन गलियों से बेदाग गुजर जाता तो अच्छा था/ और अगर दाग ही लगना था/ तो फिर कपड़ों पर/ मासूम रक्त के छींटे नहीं/ आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता/ जो कभी न भरता  जैसी कविता में प्रेम का उनका, और हमारा, सामूहिक महास्वप्न दिख जाता है, तो अजीब वक्त है/ बिना लड़े ही एक देश-का-देश/ स्वीकार करता चला जाता/ अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता  जैसी पंक्तियों में आपत्ति और विरोध में उठी हुई कवि की उंगली नजर आती है। कुंवर नारायण महान हैं, तो इसलिए कि उनके पूरे जीवन व रचनाकर्म में यह थोड़ा-सा अधिक प्रेम, थोड़ी-सी अधिक ईमानदारी  हर जगह दिखाई देती है, और वह भी अपनी पूरी कलात्मक वैधता के साथ।

पिछले कई बरसों से साहित्य-समाज में कुंवर नारायण की उपस्थिति एक प्रेरणा-पुंज की तरह रही है। उनकी एक कविता की पंक्ति है- सबमें प्रवाहित लेकिन अंतध्र्यान। कुंवर नारायण अब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके शब्द हमारे वजूद के भीतर इसी पंक्ति की तरह हमेशा बहते रहेंगे, भले यह प्रवाह अंतध्र्यान-सा ही क्यों न हो। अपनी जनता की नसों में एक कवि इसी तरह बहता है। और इस तरह बहने वाला कवि कभी नहीं मरता। कवि तब तक नहीं मरते, जब तक हम उनकी कविताएं पढ़ते रहें। और कुंवर नारायण की कविताएं आगे कई पीढ़ियों तक पढ़ी जाती रहेंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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