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वर्षा नहीं, समय से वर्षा जरूरी है

मौसम विज्ञान विभाग ने इस वर्ष सामान्य से कम वर्षा की ओर इशारा किया है और अनुमान जताया है कि देश में इस बार वर्षा सामान्य का 88 प्रतिशत तक ही हो पाएगी। इससे कृषि क्षेत्र में कुछ निराशा का माहौल है और...

वर्षा नहीं, समय से वर्षा जरूरी है
दिनेश कुमार मिश्र, जल विशेषज्ञThu, 22 Jun 2017 12:10 AM
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मौसम विज्ञान विभाग ने इस वर्ष सामान्य से कम वर्षा की ओर इशारा किया है और अनुमान जताया है कि देश में इस बार वर्षा सामान्य का 88 प्रतिशत तक ही हो पाएगी। इससे कृषि क्षेत्र में कुछ निराशा का माहौल है और यह निराशा केरल, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मुखर होकर सामने आ भी रही है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय का भी यह मानना है कि देश के 2,246 प्रखंडों में सिंचाई सुविधा जरूरत के हिसाब से परिस्थिति के अनुकूल नहीं है। स्थिति से निपटने के लिए सरकार इन राज्यों में प्रति-व्यक्ति 150 दिनों का रोजगार सुनिश्चित करने की योजना बना रही है, ताकि भोजन जैसी अतीव आवश्यकताओं को सिर उठाने का मौका न मिले। पिछले वर्ष इसी तरह की योजना के तहत आकस्मिक व्यवस्था के लिए करीब 49,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे। इस वर्ष अगर बारिश में प्रक्षेपित आंकड़ों में दैविक सुधार नहीं हुआ, तो इतने ही खर्च की फिर से तैयारी रखनी पडे़गी।

देश के विभिन्न प्रांतों में प्राय: हर साल बाढ़, सूखा या दोनों आपदाओं के हालात बनते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तर बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा जैसे पारंपरिक बाढ़ प्रवण प्रांतों में इस तरह की घटनाएं आम हैं, जहां एक ही समय में राज्य के एक हिस्से में बाढ़ का प्रकोप रहता है, तो दूसरे हिस्से में सूखा अपनी जड़ें जमा लेता है। कभी-कभी जिला स्तर पर ही एक क्षेत्र विशेष में बाढ़ और सूखे के बीच में सौ मीटर से ज्यादा का फासला नहीं होता। उत्तर बिहार में, जहां कुल वर्षा का केवल 19 प्रतिशत पानी ही स्थानीय वर्षा का होता है, 81 प्रतिशत पानी दूसरे प्रांतों या नेपाल से आता है। ऐसी हालत में अगर स्थानीय वर्षा में कुछ कमी आ जाए और नदियों के गैर-बिहारी जल-ग्रहण क्षेत्र में अच्छी बारिश हो, तो राज्य का यह भाग बाढ़ झेलने के लिए बाहर वाले पानी की वजह से अभिशप्त होगा और वह इलाका जहां बाढ़ का पानी नहीं पहुंचता है, सूखे के मुकाबले के लिए तैयारी कर रहा होगा। बाढ़ और सूखे के बीच महज सौ मीटर के फासले का यही कारण होता है। इस मर्ज का शिकार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश, दोनों बनते हैं। 

वर्षा की कमी का सीधा असर तालाबों, पोखरों, कुओं, आहर-पाइन जैसे पानी के स्रोतों पर पड़ता है, क्योंकि ये सारे संसाधन खुद वर्षा से सीधे जुडे़ हैं। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं, जिनके कथित उद्देश्यों में यह स्पष्ट तौर पर लिखा होता है कि उनका काम वर्षा की कमी के समय सिंचाई के इस गैप को भरना होता है, वे भी आसमानी पानी न होने के कारण अपना दायित्व पूरा नहीं कर पातीं और उनके कर्ता-धर्ता किसानों को यह समझाने में अक्सर कामयाब हो जाते हैं कि जब पानी बरसेगा ही नहीं, तो नहर में पानी कहां से आएगा?

इस समय कृषि उत्पादन के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर बरबस ध्यान लघु सिंचाई परियोजनाओं की ओर जाता है, जिनमें सरकारी और निजी नलकूप, लिफ्ट इरिगेशन स्कीम, तालाबों-पोखरों और कुओं जैसे स्रोतों पर निर्भरता बढ़ती है। वर्षा न होने पर तालाब-पोखर भी गणना से बाहर हो जाते हैं। भूमिगत जल के असामाजिक स्तर तक दोहन ने कुओं के वजूद को ही समाप्त कर दिया है। सरकारी नलकूप और लिफ्ट इरिगेशन स्कीम कभी यांत्रिक दोष, कभी विद्युत दोष, कभी दोनों प्रकार के दोष, ट्रांसफॉर्मरों के खराब होने या जल जाने के कारण बेकार होने, खेतों तक पानी ले जाने वाले नालों की खस्ता हालत और यह सब कुछ दुरुस्त होने पर भी बिजली विभाग की गैर-जिम्मेदारी और ऑपरेटर का ड्यूटी से गायब रहना आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जो अधिकांश राज्यों में अभी तक ठीक नहीं किए जा सके हैं। ले देकर सारा दारोमदार निजी नलकूपों पर आ जाता है और धान उगाने के लिए अगर डीजल का उपयोग किसी भी कारण से मजबूरी बन जाए, तो किसान का भगवान ही मालिक होता है, क्योंकि इस कीमत पर खेती करना, विशेषकर धान की खेती, रईसों का शौक हो सकता है, किसानों की मजबूरी नहीं।

वर्षा की कमी की वजह से खेती की क्षति को रोकने या कम करने के लिए कृषि विभाग की सक्रियता देखते बनती है। वह वैकल्पिक खेती की योजनाएं बनाना शुरू करता है और यह काम तब शुरू होता है, जब मकई की फसल अनावृष्टि के कारण खत्म हो चुकी होती है और खरीफ (मुख्यत: धान) की बुआई और रोपनी का मौसम समाप्त हो चुका होता है। खेती का जो भी विकल्प यह विभाग सुझाए, बिना पानी के उसकी भी संभावना नहीं बनती और नजर फिर उसी लघु सिंचाई विभाग की ओर जाती है, जो यांत्रिक दोष, विद्युत दोष या दोनों दोष, जले ट्रांसफॉर्मर, टूटी नालियों और ऑपरेटर की उलब्धता का मोहताज होता है। यह स्थिति स्पष्ट होते-होते खरीफ का मौसम खत्म होने को आ जाता है। ‘क्रैश प्रोग्राम’ रबी खेती के लिए शुरू होता है और बिना पानी के उसे भी जमीन पर नहीं उतारा जा सकता और फिर से वही लघु सिंचाई विभाग का दुष्चक्र सामने आ खड़ा होता है।

इस दुष्चक्र को तोड़ने का सबसे आसान तरीका सिंचाई और कृषि क्रम को दुरुस्त रखने का है। जहां तक धान का सवाल है, उसमें तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं। बुआई, रोपनी और दूध आना। औसत वर्षा के आंकड़े चाहे कितने भी आकर्षक क्यों न हों, अगर इन तीन मौकों पर खेतों को पानी नहीं मिला, तो फिर चाहे जितना पानी बरसे, कोई फर्क नहीं पड़ता। यह काम किसानों की भाषा में रोहिणी नक्षत्र से शुरू होकर आद्र्रा होते हुए हस्त (हथिया) नक्षत्र के उत्कर्ष पर समाप्त होता है। सवाल यह नहीं है कि औसतन वर्षा के मौसम में कितना पानी बरसता है, असली सवाल यह होता है कि कृषि के इन तीन स्तरों पर समय से कितना पानी उपलब्ध रहता है? अगर यह पानी समय पर उपलब्ध हो जाए, तो वर्षा औसत से कम होने की स्थिति में भी उत्पादन अपनी जगह ठीकठाक हो ही जाता है। जरूरत इन नाजुक अवसरों पर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करने की है, न कि वर्षा के औसत आंकड़ों से डरने की। दुर्भाग्यवश हम अभी तक तमाम योजनाओं और उनके आकर्षक दावों के बावजूद ऐसा कर नहीं पाए हैं। आग लगने पर कुआं खोदना एक प्रचलित मुहावरा है जो लंबी अवधि में योजनाओं की सार्थकता के महत्व और उनकी कार्य-कुशलता की महत्ता को रेखांकित करता है। कहीं न कहीं हमारा प्रशासनिक तंत्र बार-बार इस मुहावरे को ही जीवनदान प्रदान करता दिखाई देता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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