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कश्मीर को चाहिए नए प्रतीक

करीब दो दशक पहले एक पत्रकार की हैसियत से मैं पहली बार कश्मीर गया था, तब से आज के बीच वहां सब कुछ बदल गया है। श्रीनगर की जो पुरानी छवियां मेरी स्मृतियों का हिस्सा रही हैं, पिछले हफ्ते उन्हें ढूंढ़ पाने...

कश्मीर को चाहिए नए प्रतीक
बॉबी घोषThu, 13 Jul 2017 07:50 PM
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करीब दो दशक पहले एक पत्रकार की हैसियत से मैं पहली बार कश्मीर गया था, तब से आज के बीच वहां सब कुछ बदल गया है। श्रीनगर की जो पुरानी छवियां मेरी स्मृतियों का हिस्सा रही हैं, पिछले हफ्ते उन्हें ढूंढ़ पाने में मुझे खासी मशक्कत करनी पड़ी। अब वहां काफी नई इमारतें उग आई हैं, और उनमें से भी ज्यादातर होटल या फिर मेहमानदारी वाले मकान हैं। कुछ बेहद चर्चित पुरानी इमारतों का इस्तेमाल अब ऐसे कार्यों में हो रहा है, जिसकी कतई उम्मीद न थी। मैं यह देखकर भौंचक रह गया कि ‘पापा-2’ इमारत मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का सरकारी आवास है। यह वही कुख्यात इमारत है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां 1990 के दशक में अनगिनत कश्मीरियों के साथ काफी निर्मम सुलूक हुआ था, उनमें से कई का तो पता भी नहीं चला।

साल 1999 में टाइम  पत्रिका के लिए कश्मीर पर कवर स्टोरी के सिलसिले में मैं श्रीनगर की सड़कों पर भटका था। लेकिन पिछले हफ्ते हरी व सफेद रंग की उस इमारत को देखकर मैं हैरान था। आखिर यह किसके दिमाग में आया कि इस इमारत को सूबे की मौजूदा मुखिया का सरकारी आवास बना दिया जाए? ज्यादा संभावना तो यही है कि इसे किसी कमेटी ने अंजाम दिया होगा, मगर जिस किसी के दिमाग की भी यह उपज हो, उसकी राजनीतिक समझ सचमुच बहुत कमजोर है, दूरदर्शिता तो उसमें उससे भी कम है। बेहतर तो यही होता है कि इस इमारत को जमींदोज कर इस जगह को एक पार्क या कोई और सार्वजनिक स्थल बना दिया जाता, क्योंकि इसके इस रूपांतरण से इस हकीकत में कोई फर्क नहीं आया है कि भारत के भीतर अपनी जगह और मुस्तकबिल को लेकर कश्मीरी आज भी गहरी निराशा में हैं। 

निस्संदेह, आप ग्लास के आधा भरे होने वाली दलील दे सकते हैं: आखिरकार वहां कोई पापा-3 इमारत नहीं बनी। लेकिन 1990 के दशक के आखिरी दिनों में मैं जिस किसी कश्मीरी से मिला, उनमें से ज्यादातर की बातें सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों से जुड़ी थीं। उस दौर के मुकाबले आज सुरक्षा बल काफी संयम बरतते हैं। लेकिन कश्मीरी अपने मौजूदा हालात की तुलना नब्बे के दशक के वर्षों से नहीं कर रहे हैं और उन्हें ऐसा करने की जरूरत भी नहीं है। उनकी सोच में पापा-2 की जगह पैलेट-गन ने ले ली है, जिसे वह इस सुबूत के तौर पर लेते हैं कि भारत को उनके हितों की कोई फिक्र नहीं है, और वह उन पर तकलीफें थोप रहा है, कुछ मामलों में अंधापन भी। सरकार यह दलील पेश कर सकती है कि आज के पैलेट गन पूर्व के बुलेट से कहीं बेहतर हैं, लेकिन किसी भी तरह के गोले दागने से लाख गुना बेहतर होता है बातचीत करना।

कश्मीर में इस बार मैं जिस किसी से भी मिला, वे सब के सब इस बात पर सहमत थे कि पैलेट गन की बजाय बातचीत से ही घाटी के हालात बदलेंगे। सच्चाई को जानने की अपनी ताजा कोशिश के तहत (मेरी पूरी बातचीत निजी थी) मैं वहां तमाम ऐसे लोगों से मिला, जिन्हें आप उनके समूहों का भरोसेमंद नुमाइंदा कह सकते हैं। इनमें मुख्यधारा के राजनेताओं के अलावा अलगाववादियों, सुरक्षा बलों, छात्रों, नौकरशाहों और आम नागरिकों के प्रतिनिधि शामिल थे। उन सभी की एक ही राय थी कि इस मसले का हल सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया से निकल सकता है।

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में यह सर्वसम्मत राय थी कि वहां यथास्थिति बनी रहे और उसके बाद के ज्यादातर वर्षों में भी यही रुख रहा। केंद्र की हर सरकार ने अंतत: इस नजरिये की निरर्थकता को भी स्वीकार किया। मुझे संदेह नहीं कि नई दिल्ली में बैठा आज का निजाम भी वही करेगा। लेकिन कब? श्रीनगर में जिन लोगों से भी मैं मिला, उनकी राय में वक्त तेजी से हाथों से फिसलता जा रहा है। कश्मीर विवाद के सबसे ताजा प्रतीक से जुड़ी धारणाएं यह संकेत दे रही हैं कि वहां नफरतों के ज्वार मजबूत हो रहे हैं, और अगर मौजूदा हालात को आगे भी जारी रहने दिया गया, तो उसे संभालना बेहद मुश्किल होगा।

फारूक अहमद दार नौ अप्रैल को उस वक्त इसका नया प्रतीक बन गया, जब उसे एक फौजी जीप के आगे बांधकर पत्थरबाजों से मुकाबले के लिए मानव-कवच के तौर पर इस्तेमाल किया गया। दार के मुताबिक, वह लोकसभा उप-चुनाव में वोट डालने गए थे। मगर उनकी यह दलील किसी ने नहीं सुनी। नामचीन भारतीयों की एक बड़ी जमात ने, जिनमें देश के अटॉर्नी जनरल जैसे कानूनविद् भी शामिल थे, उसी फौजी टुकड़ी के कृत्य का बचाव किया, जिसने दार के साथ बदसुलूकी की थी। सोशल मीडिया पर मुखर राष्ट्रवादियों ने तो दार पर पाकिस्तानपरस्त होने का ठप्पा लगाते हुए यह तक कहा कि वह इसी के लायक था। दार के अनेक साथी कश्मीरियों की भी यही राय है कि उनके साथ सही हुआ, क्योंकि वह भारत समर्थक बनते हुए वोट डालने गए थे। गौर कीजिए, यहां दोनों पक्ष की राय एक ही है कि दार के साथ सही हुआ, मगर दोनों की वजहें बिल्कुल एक-दूसरे के विपरीत हैं।

यहां से बाहर निकलने का रास्ता क्या है? कश्मीर को नए प्रतीकों की दरकार है। इसकी अच्छी शुरुआत एक प्रतीकात्मक मुद्रा से हो सकती है- शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्रीनगर दौरे से। वह लाल चौक पर भाषण दें और वहां संघर्ष की बजाय मरहम लगाने की बात करें। यह मुद्रा ‘मन की बात’ भी हो सकती है, जिसमें वह कश्मीर के नौजवानों से सीधा संवाद करें, जो अपने दिमाग से बोल रहे हैं। मुख्य धारा की सियासी पार्टियों से शुरुआत करके बातचीत के दायरे में सभी इच्छुकों को शामिल किया जाए। 

कुछ अन्य दिशाओं में उठाए गए कदम भी इस लिहाज से मददगार साबित हो सकते हैं: कश्मीरियों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले भाषण दे रहे भाजपा सदस्यों और साथी दलों को सख्त चेतावनी दी जाए; देश के विभिन्न इलाकों में रह रहे कश्मीरियों के साथ शालीन व्यवहार करने की अपील की जाए और दूसरे भारतीयों को घाटी की यात्रा के लिए प्रोत्साहित किया जाए।         
अगर हम अब भी पापा-2 को गिराना चाहें, तो बहुत देरी नहीं हुई है।

(यह लेख 9 मई 2017 को प्रकाशित हुआ है)

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