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महसूस क्यों नहीं हो रहे अच्छे दिन

इस समय भारत के आर्थिक माहौल के बारे में दो प्रतिस्पद्र्धी कहानियां हैं। दोनों की प्रकृति भले ही एक-दूसरे से अलग हो, लेकिन हैं दोनों सही। जेपी मॉरगन के मुख्य अर्थशास्त्री साजिद जेड चिनॉय की इन्हीं...

महसूस क्यों नहीं हो रहे अच्छे दिन
आर सुकुमारSun, 23 Jul 2017 09:53 PM
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इस समय भारत के आर्थिक माहौल के बारे में दो प्रतिस्पद्र्धी कहानियां हैं। दोनों की प्रकृति भले ही एक-दूसरे से अलग हो, लेकिन हैं दोनों सही।

जेपी मॉरगन के मुख्य अर्थशास्त्री साजिद जेड चिनॉय की इन्हीं पंक्तियों के साथ आज मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। चिनॉय का यह लेख 19 जुलाई को मिंट  में प्रकाशित हुआ था। शीर्षक था- इंडियन इकोनॉमी : अ टेल ऑफ टू नैरेटिव्स।

जिन पाठकों ने चिनॉय का वह लेख नहीं पढ़ा, उन्हें मैं उसका मजमून बता दूं कि भारत में मैक्रोइकोनॉमिक्स का माहौल हाल के वर्षों में इतना बेहतर बन गया है कि ‘दुनिया भर के उभरते बाजारों में भारत को एक सुरक्षित ठिकाना माना जाने लगा है।’ और चिनॉय के शब्दों में ही कहें, तो सरकार ने भी ‘चार परिवतर्नकामी कदम’ उठाकर इसमें अपनी भूमिका निभाई है- आधार, दिवालियापन का कानून, जीएसटी और मौद्रिक नीति के नए फ्रेमवर्क को संहिताबद्ध किया जाना। (हालांकि मैं इसमें नई राजकोषीय नीति का ढांचा बनाने की कोशिश को जोड़कर पांच भी बना सकता था)। मगर इसके बरक्स भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ी जो ‘दूसरी व्याख्या है, वह बताती है कि किसी मंदी की सूरत में पारंपरिक राजकोषीय और मौद्रिक नीति के  सहारे उससे निपटना शायद संभव न हो पाए।’ चिनॉय विकास की धीमी चाल के जिन कुछ कारणों पर रोशनी डालते हैं, वे हैं निर्यात में गिरावट, तेल की कीमतों का स्थिर होना, बड़ी कंपनियों पर कर्ज (बैंकों के पास इसके बरक्स मामूली परिसंपत्तियां), कृषि पर दबाव और नोटबंदी के बाद अधूरी वसूली।

चिनॉय का यह लेख उन तमाम सवालों का ठोस जवाब है, जिनमें पूछा जाता है कि अगर मैक्रोइकोनॉमी की स्थिति अच्छी है, तो फिर माइक्रोइकोनॉमी पर इसका असर क्यों नहीं दिख रहा है? या इसे दूसरे शब्दों में कहूं, तो जब आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी है, तो फिर हम इतना बुरा क्यों महसूस कर रहे हैं? 

हालांकि इसमें कहने के लिए और भी बहुत कुछ है। असल में, संरचनात्मक या छोटी-अवधि की रुकावटों (नोटबंदी, नए रियल एस्टेट कानून, जीएसटी जैसे फैसले) के अलावा भी कुछ ऐसी वजहें हैं, जो भारत की गति को धीमा कर रही हैं। एक बड़ा कारण तो कुछ उद्योगों की सोच में आया बदलाव है, जिनका नतीजा सुखद नहीं रहा। मसलन, कुछ साल पहले कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांटों में बड़े पैमाने पर निवेश करने वाली बिजली कंपनियों को अब अचानक लगने लगा है कि सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करना कोयले की अपेक्षा कम खर्चीला है, जबकि सौर ऊर्जा कुछ वर्ष पहले तक अच्छी-खासी महंगी थी। इसी तरह, देश की आईटी कंपनियां दबाव में हैं, क्योंकि उन्होंने उस तेजी से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बौद्धिकता व स्वचालित यंत्रों की तरफ कदम नहीं बढ़ाए, जितनी तेजी से उनको बढ़ाने चाहिए थे। और, दूरसंचार कंपनियों का हाल भी एक नए कारोबारी के आक्रामक तरीके से बाजार में उतरने से बेहाल है।  

कुछ कंपनियों की चाल सुस्त पड़ने के पीछे कई बाहरी कारण भी हैं। जैसे, भारत में कभी तेजी से  तरक्की करने वाला जेनेरिक दवा कारोबार इन दिनों अमेरिकी दवा नियामक द्वारा उठाए गए कदमों के कारण मुश्किल दौर से गुजर रहा है। हालांकि सच यही है कि ये कदम संरक्षणवाद से प्रेरित नहीं हैं, फिर भी इससे यह तथ्य बदल नहीं जाता कि कभी कुलांचे भरने वाले ये कारोबार अब तरक्की की उतनी ऊंची पींगें नहीं भर पा रहे। आईटी उद्योग भी इसी तरह अमेरिका की नई वीजा व्यवस्था जैसे बाहरी कारक से प्रभावित हो रहा है। और यह हम सभी जानते ही हैं कि भारत की आईटी और दवा कंपनियों के लिए अमेरिका कितना बड़ा बाजार है।

वैसे, भारत के बडे़ कारोबारियों के बीच पनपी नकारात्मक सोच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इनमें से कुछ समझ में आने वाली हैं, जैसे नोटबंदी ने कई उत्पादों और सेवाओं की मांग ही खत्म कर दी। मगर कुछ की वजह मौजूदा सरकार की उस नियम-आधारित व्यवस्था से तालमेल न बिठा पाना भी है, जिसकी तरफ बढ़ने की कोशिश यह सरकार कर रही है। 2014 में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता में आया था, तब ज्यादातर कारोबारियों को यही उम्मीद थी कि नई सरकार ‘कारोबार-हितैषी’ होगी। हालांकि कुछ कारोबारियों का तब भी यह  मानना था कि वे तब तक ऐसा नहीं कह सकते, जब तक कि सरकार उनके हितों के अनुकूल कोई उल्लेखनीय पहल नहीं करती। अब यह जरूर कहा जा सकता है कि एनडीए सरकार इस मामले में उन्हें उपकृत करने को लेकर उदासीन रही है।

तो फिर सवाल यह है कि अब आगे क्या होगा?

क्या किसी के पास (सरकार सहित) कोई जादू की छड़ी है कि वह उसे घुमाए और सब कुछ दुरुस्त कर दे, ताकि सभी को अच्छा महसूस हो? चिनॉय मानते हैं कि सरकार को तब तक ‘धैर्य रखना’ चाहिए, जब तक कि जीएसटी जैसे कदम अपना असर न दिखाएं। उनके तर्क हैं कि हालात से उबरने के लिए इस वक्त किसी तरह की वित्तीय और मौद्रिक दखलंदाजी कारगर नहीं होगी।

और फिर समय बीतने के साथ भारतीय कंपनियां अपने कारोबार के नए-नए पहलुओं से परिचित होती जाएंगी, साथ ही वे उन बाहरी कारकों से भी तालमेल बिठा सकेंगी, जो इन दिनों उनकी चिंता की वजह हैं और संभवत: देश में कारोबार करने के नए नियमों से भी।

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