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इतनी बुरी नहीं हमारी आर्थिक सेहत

कहा जाता है कि एक फूल के खिलने से बहार नहीं आती। इसी तरह, महज दो तिमाही के आंकड़ों से आप सच को नहीं छिपा सकते। हमारी दीर्घावधि विकास यात्रा को अस्थाई विचलन के उदाहरणों से नहीं देखा जाना चाहिए। इस समय...

इतनी बुरी नहीं हमारी आर्थिक सेहत
एन के सिंह, पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय सचिवThu, 05 Oct 2017 11:06 PM
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कहा जाता है कि एक फूल के खिलने से बहार नहीं आती। इसी तरह, महज दो तिमाही के आंकड़ों से आप सच को नहीं छिपा सकते। हमारी दीर्घावधि विकास यात्रा को अस्थाई विचलन के उदाहरणों से नहीं देखा जाना चाहिए। इस समय जो लोग सरकार की सख्त नीतियों में बदलाव की मांग कर रहे हैं, उन्हें दरअसल भविष्य की कतई चिंता नहीं है। कहीं यह संकीर्णता हमारी दूरदर्शी सोच की राह न बिगाड़ दे? सच यह है कि चार साल पहले भारत की मैक्रो-इकोनॉमिक असुरक्षाएं सामने आई थीं और देश सबसे कमजोर उभरते बाजारों में शुमार किया जाने लगा था। यह स्थिति किसी बदनामी से कम नहीं थी। चार साल बाद भारत बेशक अब भी उभरते बाजारों के पटल पर एक सुरक्षित जगह माना जाता हो, लेकिन इन वर्षों में केंद्र सरकार सचेत नीतियों की राह पर लगातार आगे बढ़कर तस्वीर बदल रही है।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित महंगाई दर 2007 से 2013 के बीच औसतन 9.5 फीसदी रही थी। मगर मौजूदा सरकार के कार्यकाल में यह दर घटकर करीब आधी रह गई है। खाद्य मुद्रास्फीति की तो कोई चर्चा भी नहीं कर रहा, जो इस सरकार के कार्यकाल में औसतन 4.5 फीसदी है, जबकि 2014 और 2015 में हमें सूखे का सामना भी करना पड़ा था। यह दर थोड़े कमजोर मानसून के बावजूद कमोबेश इतनी ही रहेगी। असल में, खाद्य आपूर्ति प्रबंधन को दुरुस्त करने का नतीजा सुखद रहा है। आपूर्ति शृंखला में आमूल-चूल बदलाव किए जा रहे हैं। भंडारण की व्यवस्था और गोदामों को बेहतर बनाया जा रहा है। कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) से दूरी बरती जा रही है। आयात को लेकर नजरिया बदला जा रहा है, और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमपीसी) के मामले में भी न्यायोचित फैसला लिया जा रहा है। औपचारिक रूप से एक मुद्रास्फीति लक्ष्य को अपनाना और 21वीं सदी के मौद्रिक ढांचे को साकार करने के लिए एक मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का गठन इसी की कड़ी है। अब महंगाई को लेकर परिवारों की आशंकाएं भी कम होनी शुरू हो गई हैं। उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बढ़ी है और मुद्रा विनिमय दर को लेकर आशंकाएं ठहर सी गई हैं। साल 2003-04 और 2011-12 के दरम्यान जब हमारी अर्थव्यवस्था की औसत विकास दर 8.3 फीसदी थी, तब कॉरपोरेट बचत की औसत दर महज 7.4 फीसदी थी, जो अब उल्लेखनीय रूप से जीडीपी के 11.8 फीसदी तक बढ़ गई है। 

जीडीपी के एक अंग के रूप में सकल पूंजी निर्माण अपनी सीमा के भीतर दिखता है, जो 7.5 से आठ फीसदी विकास दर का लक्ष्य पाने के लिए जरूरी है। यह अभी 2014-15 और 2015-16, दोनों वर्षों में 31.9 फीसदी रहा, जबकि 2003-04 और 2011-12 के दौरान यह 34.6 फीसदी था। यह चिंता जरूर बढ़ा सकता है, पर यह भी याद रखना चाहिए कि साल 2003-04 में विकास दर 8.1 फीसदी हासिल हुई थी। साफ है कि इसका कोई मशीनी संबंध नहीं है- इसमें तकनीक और उत्पादकता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नीति आयोग के पूर्व प्रमुख अरविंद पनगढ़िया ने भी अपने हालिया लेख में इस पर रोशनी डाली है। इसके साथ-साथ, प्राकृतिक संसाधनों और लाइसेंस का आवंटन बिल्कुल पारदर्शी तरीके से नीलामी के जरिए किया जा रहा है। इसमें खासतौर से कोयला क्षेत्र और दूरसंचार के क्षेत्र में स्पेक्ट्रम की नीलामी का मैं जिक्र करना चाहूंगा।

चौदहवें वित्त आयोग द्वारा राज्यों का आवंटन बढ़ाने और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को मानने जैसे दो बड़े दायित्वों के बावजूद केंद्र राजकोषीय घाटे को कम करने में सफल रहा है। राजकोष को मजबूत बनाने के साथ-साथ केंद्रीय सार्वजनिक निवेश की भी हरसंभव सुरक्षा की जा रही है। असल में, मौद्रिक और राजकोषीय प्रबंधन का ही यह नतीजा है कि भारत का चालू खाता घाटा 2016-17 में जीडीपी का महज 0.7 फीसदी रह गया, जो 2012-13 में 4.8 फीसदी था। हालांकि इसमें तेल की कम होती कीमतों का भी हाथ रहा है। मगर अब रुपयों के मूल्य में आई गिरावट के असर और घरेलू पोर्टफोलियो निवेश से निर्यात को फायदा होगा और चालू खाते में किसी बड़ी कमी का खतरा कम होगा। 

यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मौजूदा सरकार के सत्ता में आने से पहले जहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सालाना औसतन 20 अरब डॉलर था, वह अब करीब दोगुना 35 अरब डॉलर होने लगा है। इसके अलावा, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश ने भी कर्ज बाजार में भारत की स्थिति पहले से कहीं बेहतर बनाई है।

लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल करने और सदन का बेहतर प्रबंधन करने की वजह से कुछ दूरगामी कानून लागू करने में यह सरकार सफल रही है। इन्हीं कानूनों में एक है दिवालियेपन का कानून, जो लंबे अरसे से वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग की सिफारिशों के बाद भी ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था। उम्मीद है कि यह कानून जोखिमपूर्ण परिसंपत्तियों का समाधान निकालेगा और निजी निवेश बढ़ाने के साथ-साथ पूंजी के बेहतर ‘री-एलोकेशन’ को सुरक्षित बनाएगा। देश में ‘एक बाजार’ की संकल्पना को वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी ने भी साकार किया है। आधार, जन धन और मोबाइल जाम के साथ मिलकर ये सभी सुधार उत्पादकता के तमाम कारकों को मजबूत बनाएंगे। निश्चय ही, जीएसटी को लेकर वित्त मंत्री ने इसके दायरे को बढ़ाने, टैक्स दरों को कम करने और प्रक्रिया को सरल बनाने की बात मानी है। बावजूद इसके जीएसटी का लागू होना ही अपने आप में एक मील का पत्थर है। इसीलिए अभी तक की सफलतम पारी में हासिल कुछ अप्रत्याशित नतीजों की बेदी पर अरुण जेटली कुर्बान           नहीं किए जा सकते। निस्संदेह, हर सफलता हमारा लक्ष्य बदलती है, लिहाजा हमें अब महज जीएसटी नहीं, बल्कि एक दोषरहित जीएसटी की ओर बढ़ना है। इसी तरह, वित्तीय परिषद् भी वास्तविक संघीय साझेदारी का पहला उदाहरण बनकर सामने आई है। यह सुनहरे भविष्य की तस्वीर दिखाती है।
 
आमूल-चूल संस्थागत सुधारों से न सिर्फ जड़ता की मौजूदा स्थिति बदलती है, बल्कि उसमें निहित स्वार्थ भी खंडित होते हैं। मगर  तमाम मुश्किलों के बाद भी उसे सुखद शुरुआत माना जाता है। 1990 के दशक में हुए सुधारों से 1995 के आस-पास हमने उच्च विकास दर हासिल की थी। 1990 के दशक के अंत में हुए सुधारों का अच्छा नतीजा हमने 2000 के दशक के मध्य में देखा है। इसीलिए आज भी जरूरत यही है कि मौजूदा प्रवृत्ति को दरकिनार करके हम तस्वीर को बड़े फलक पर देखें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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