उद्यमी हैं भारतीय, मौका तो दीजिए
सिर्फ दो दशक पहले, यानी 1990 के दशक में भारत की आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा स्व-नियोजित था। भले ही तब वे दिन भर में 20 रुपये की सब्जी ही बेच पाते थे, मगर विषय यह नहीं है, मुद्दा यह है कि आपको अब भी यह...
सिर्फ दो दशक पहले, यानी 1990 के दशक में भारत की आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा स्व-नियोजित था। भले ही तब वे दिन भर में 20 रुपये की सब्जी ही बेच पाते थे, मगर विषय यह नहीं है, मुद्दा यह है कि आपको अब भी यह सीखने की आवश्यकता है कि अपने उत्पाद की ब्रांडिंग कैसे करें, क्या कहें और अपने आपको कहां रखें? बुनियादी तौर पर इंटरप्रिन्योरशिप या उद्यमिता भारतीय मानस का हिस्सा हमेशा से रही है, क्योंकि उन्हें लंबे समय तक किसी संगठित क्षेत्र की नौकरी के बगैर खुद को जिंदा रखना पड़ता है। भारतीयों के लिए इंटरप्रिन्योरशिप कोई ऐसी चीज नहीं, जिससे उन्हें डरना पडे़।
इधर कई सर्वे आए हैं, जिनके निष्कर्षों में यह दावा किया गया है कि भारत के ज्यादातर नौजवान नौकरी की तलाश में हैं, और वे कारोबार नहीं करना चाहते। यह सही नहीं है। सच तो यह है कि लगभग हर वह व्यक्ति, जिसके पास नौकरी है, साथ-साथ कुछ न कुछ और करना चाहता है। तमिलनाडु में तो यह काफी सामान्य बात है। वहां अनेक नौकरीशुदा लोग अपनी नौकरी के बाद बचे हुए समय में कोई छोटा-मोटा काम करते हैं, ताकि कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाए। और अगर उन्हें बाजू के इस धंधे में अपेक्षाकृत बेहतर कामयाबी मिली, तो फिर वे उसे ही पूर्णकालिक करियर बना लेते हैं। यह स्थिति इसलिए है कि इंटरप्रिन्योरशिप के लिए देश में जरूरी मदद की कमी है। भारत में लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र (एसएमई) के लिए आसानी से वित्तीय सहायता का उपलब्ध न होना, एक बड़ी बाधा है। दूसरी समस्या टेक्नोलॉजी तक पहुंच न हो सकना है। अगर ये दोनों चीज हासिल हो जाएं, तो लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र क्रांतिकारी रूप में उभरकर सामने आएगा।
भारत में लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र के लिहाज से वित्तीय स्थिति काफी खराब रही है। उन्हें शुरुआत करने से पहले ही अपनी कामयाबी साबित करनी पड़ती है! यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि वित्तीय संस्थान उनसे यही अपेक्षा करते हैं। यहां पर अनेक लघु एवं मध्यम उद्योग इसलिए दम तोड़ देते हैं, क्योंकि उनका वित्तीय पोषण करने वाला कोई स्वस्थ व सक्रिय तंत्र मददगार के तौर पर सामने नहीं आता है। अगर कोई छोटी सी भी गलती हुई, तो पूरे कारोबार को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, क्योंकि छोटे से नुकसान से उबारने वाला यहां कोई हाथ मौजूद नहीं होता। मेरा मानना है कि लघु व मध्यम उद्योगों के पोषण से इस स्थिति में काफी सार्थक सुधार होगा।
लघु व मध्यम उद्योग क्यों? हम जब अर्थव्यवस्था के बारे में सोचते हैं, तो अक्सर हमारे जेहन में वे विराट कॉरपोरेशन्स होते हैं, जो आईपीओ जारी करते हैं। हम शेयर बाजार पर नजरें टिकाते हैं और देखते हैं कि वह कहां जा रहा है? यकीनन, वे भी जरूरी हैं, मगर यदि आप चाहते हैं कि भारत की बड़ी आबादी बड़े पैमाने पर देश की अर्थव्यवस्था में सहभागी बने, तो उसकी कुंजी लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र के पास है। अगर आप केवल बड़े कॉरपोरेशन्स गढें़गे, तो ग्रामीण भारत शहरों की ओर पलायन करेगा, और हम सभी जानते हैं कि फिर हालात क्या होंगे। हमने अपने शहरों को इस रूप में गढ़ा ही नहीं है कि वे बडे़ जन-दबाव को झेल सकें। लोग बस शहरों में आएंगे और बेहद खराब जिंदगी का हिस्सा बनेंगे। गांवों में दो एकड़ जमीन वाला इंसान कम से कम एक गरिमामय जीवन भले जी ले, लेकिन जब वह किसी शहर में स्लम का निवासी बनता है, तो उसे जिन स्थितियों से गुजरना पड़ता है, वह काफी दुखद होता है। हमारे लिए इस समस्या का समाधान यही है कि हम ग्रामीण भारत का शहरीकरण करें और लघु एवं मध्यम उद्योग इसका एकमात्र रास्ता है।
ग्रामीण भारत का शहरीकरण करना जरूरी है। और यह काम व्यावसायिक सफलता से ही हो सकता है। गांव के लोगों से यह उम्मीद करना कि वे कारोबार करें और उसे आगे बढ़ाएं, मुनासिब नहीं है। मेरा मानना है कि यह काम शहरी व कस्बाई लोगों को करना चाहिए। उन्हें ऐसे उद्यम शुरू करने चाहिए, जो गांवों तक अपनी पहुंच बनाएं।ये उद्योग गांवों में लगाए जा सकते हैं, या फिर ये मोबाइल हो सकते हैं, लेकिन यदि आप यह काम करते हैं, तो शहरों की ओर पलायन करने के इच्छुक लोगों की संख्या में निस्संदेह कमी आएगी।
आज हम कृषि क्षेत्र पर निर्भर करीब 65 फीसदी आबादी से कटे हुए हैं। लेकिन वहां व्यवसाय की अपार संभावनाएं हैं, चाहे वह कृषि उपज से जुड़े उद्यम का मामला हो या फिर लोगों की जिंदगी की जरूरियात से जुड़े कारोबार का। अगर आप वाकई यह जानने को उत्सुक हैं कि गांवों में क्या हो रहा है, तो वहां ऐसे व्यवसाय के अनेक रास्ते मौजूद हैं, जिससे दोनों पक्षों को मुनाफा हो। गांवों में असली समस्या पूंजी की कमी और तकनीकी व बाजार तक पहुंच न बन पाने की है। लघु एवं मध्यम उद्योग यदि स्थानीय स्थिति को बेहतर समझ पाए, तो वे यह काम आसानी से कर सकते हैं।
मैं दुनिया के जिस भी हिस्से में जाता हूं, उद्योगपति, समाजसेवी और राजनेता मुझसे यही कहते हैं कि ‘भारत एक महान राह पर अग्रसर है। हमने इतना प्रखर नेतृत्व पहले कभी नहीं देखा।’ लेकिन देश के भीतर एक अभियान चल रहा है, जो यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि कैसे यह काम नहीं कर रहा। अगर कोई यह सोचता है कि ‘मेक इन इंडिया’ जैसी महत्वाकांक्षी सरकारी योजनाएं एक या दो साल में कामयाब हो सकती हैं, तो वास्तव में वह नहीं जानता कि एक देश कैस चलता है और एक उद्योग व कारोबार किस तरह स्थापित होता है। भारत जैसा विविधताओं से परिपूर्ण विशाल देश रातोंरात नहीं मजबूत हो जाता। हमें ऐसी सतही कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। आप एक नीति बना सकते हैं, लेकिन उस नीति की कामयाबी लोगों के ऊपर निर्भर होती है। मैं महसूस करता हूं कि अगर नीतियां सहज-सरल बनाई गईं, तो भारत के लोग उनको जरूर कामयाब बनाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)