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पुराने कौशल और नए असमंजस

देश में 1990 के बाद जब उदारवाद का दौर आया और बाजार को समाजवादी युग के बंधनों से मुक्त किया गया, तो हममें से कुछ ने इसका स्वागत किया, तो कुछ ने आलोचना। इसी को कई ने बाजारवाद के दौर की संज्ञा दी। यह...

पुराने कौशल और नए असमंजस
बद्री नारायण निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान Mon, 23 Oct 2017 01:29 AM
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देश में 1990 के बाद जब उदारवाद का दौर आया और बाजार को समाजवादी युग के बंधनों से मुक्त किया गया, तो हममें से कुछ ने इसका स्वागत किया, तो कुछ ने आलोचना। इसी को कई ने बाजारवाद के दौर की संज्ञा दी। यह बाजार कइयों के लिए ‘मीना बाजार’ साबित हुआ, तो कइयों के लिए ‘माया बाजार’। बाजार कुछ को ‘समृद्धि’ देता है, तो अनेक लोगों को वंचित होने का एहसास भी कराता है। इसी को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्र-राज्य की भूमिका की कल्पना की गई थी। भारत में आर्थिक उदारवाद के 30 वर्ष पूरे होने के हम करीब पहुंच रहे हैं। बाजार और राज्य का यह संबंध समाज में समानता को बढ़ाए व विषमता को कम उत्पादित करे, यह कल्पना अभी भी साकार होनी है। बाजार और राज्य के संबंधों को निद्र्वंद्व बनाने वाली सिविल सोसायटी, सेवाभावी संस्थाओं की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन इस प्रक्रिया में गुणात्मक हस्तक्षेप करने की उनकी क्षमता को अभी और शक्तिवान होना है। जिनमें यह क्षमता विकसित हो गई है, उनमें से कई सिविल सोसायटी-एनजीओ बाजार व विषमता के आलोचनात्मक रिश्तों को या तो समझ नहीं पा रहे हैं या समझकर विभिन्न कारणों से अनदेखा कर रहे हैं। 

यहां हम भारतीय समाज के दलित समूहों और बाजार के संबंधों को एक विशेष परिपे्रक्ष्य में देखना चाहेंगे। दलितों के एक वर्ग के लिए, जिसने बेहतर जीवन के स्वप्न देखने और उनको हासिल करने की शक्ति विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से प्राप्त कर ली है, बाजार ने आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने आर्थिक उदारवाद के माहौल में सुख, सुविधा, व्यापार से अपने आप को जोड़ा है। शिक्षा और विकास की चाह से खुद को जोड़कर ऐसे दलित समूह के लोगों ने अपने को एक महत्वाकांक्षी समाज के रूप में खड़ा किया है। वहीं दलितों की एक बहुत बड़ी आबादी बाजार के दरवाजे पर आज भ्रमित होकर खड़ी है। ऐसे समूहों को ‘कम्युनिटीज इन  कन्फ्यूजन’ कहा जा सकता है। सरकार में सामाजिक समूह की नई योजनाओं, जैसे ‘इंटरप्रेन्योरशिप’ कौशल विकास जैसे अनेक अभियानों से ये अपने को जोड़ नहीं पा रहे हैं। बसोर, हरि, बेगार, मुसहर, संपेरे, नट, सरवन ऐसी ही छोटी-छोटी दलित जातियां हैं, जो गांवों में चल रहे ‘माइक्रोफाइनेंस’ के अभियानों से पर्याप्त संख्या में अभी तक नहीं जुड़ पाए हैं।

माइक्रोफाइनेंस के स्वयं सहायता समूह की पहुंच भी समाज के हाशिये में रहने वाले दृश्यमान दलित जातियों और पिछड़ी कृषक जातियों तक ही हो पाई है। ‘बचत करने की शक्ति’ अभी ऐसी छोटी दलित जातियों में विकसित नहीं हो पाई है। उन्हें रोज कुआं खोदना है। रोज पानी पीना है। रोज कमाना है। रोज खाना है। ‘रोज’ की कमाई कई दिन उतनी भी नहीं हो पाती कि दो जून रोटी मिल सके। ऐसी जातियां प्राय: शिल्पकार समुदाय रही हैं। पहले की व्यवस्था में ये शिल्पकार जातियां मानी जाती थीं। आधुनिकता और नए बाजार की व्यवस्था में उनके ‘स्किल’ अप्रासंगिक हो गए। आर्थिक उदारवाद से जनित व्यवस्था में उनके लिए बाजार के विस्तार, रियल एस्टेट, भवन निर्माण परियोजनाओं में श्रमिक बनने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा है। वे श्रमिक नहीं बनना चाहते। उन्हें  लगता है कि वे ‘स्किल्ड कम्युनिटी’ हैं। फलत: वे फैलते बाजार में अपने को व्यवस्थित नहीं कर पा रहे हैं। वे ऐसी बाजार-व्यवस्था में खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। 

उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाली बांसफोड़ (बसोर) ऐसी ही दलित जाति है। यह पारंपरिक व्यवस्था में बांस काटकर, उनसे उत्पाद बनाकर अपना गुजारा करती थी। मउनी लोग सूप बनाकर-बेचकर अपनी जीविका चलाते थे। अब बांस की मौजूदगी कम हुई, बांस काटने पर अप्रत्यक्ष रोक भी है, तो उनके पास भवन या अन्य निर्माण परियोजनाओं में श्रमिक बनने के सिवा कोई भी चारा नहीं बचा है। ‘सरवन’ ऐसी ही एक और जाति है, जो कानों की सफाई का काम करती रही है। इसके लिए वह गांवों में उगने वाले जड़ी-बूटियों से दवा बनाया करती थी। मगर आज यह पेशा अप्रासंगिक होता जा रहा है। कान के डॉक्टर अब हर जगह हैं। कान साफ करने की अंग्रेजी दवाइयां आ गई हैं। इससे उनका पेशा समस्याग्रस्त हो गया। अब वे करें तो क्या? वे अपने को ज्ञानवान समूह मानते हैं, इसलिए वे श्रमिक समूह में अपने रूपांतरण की स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। 

धोबी और नाई जैसे सामाजिक समूहों के पेशे तो बाजार में ‘एडजस्ट’ हो रहे हैं, पर अनेक पारंपरिक पेशों की दक्षता से लैस सामाजिक समूह बाजारवाद के दरवाजे पर बेबस व विवश महसूस कर रहे हैं। ऐसी ही कहानी संपेरे जाति की है। यह जाति बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दक्षिण भारत के कई अन्य राज्यों में फैली हुई है। यह जाति सांप पकड़ना, उन्हें नचाना, उनके विष निकालकर उससे कई तरह की दवाएं बनाने का काम करती थी। अब आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में पशु सुरक्षा अधिनियमों के तहत उसके इस पेशे पर रोक-सी लग गई है। ऐसे में, यह पूरी जाति अपने पारंपरिक पेशे से वंचित हो गई है। अब इसके पास भी निर्माण परियोजनाओं के श्रमिक और ईंट-भट्ठे के मजदूर बनने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है। कुचबधिया ऐसा ही एक दलित समुदाय है, जो उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में निवास करता है। विशेष रूप से बुंदेलखंड में इसकी संख्या ठीक-ठाक है। यह समुदाय मुज, सरपत जैसे गंवई उत्पादों से रस्सी बनाता था, ्नखाट बुनता था। अब प्लास्टिक की रस्सी आ जाने से इसका पेशा भी संकट में है। स्मार्ट सिटी की परिकल्पना में श्रमिक के रूप में रूपांतरित होने से उसे परहेज है। ऐसे में, राज्य और बाजार किस प्रकार ऐसे दलित समूहों को अपने से जोड़ते हैं, यह देखना है। यह भी देखना है कि कैसे इनके लिए ‘प्रतिष्ठापूर्ण आजीविका’ के निर्माण की व्यवस्था हमारा राज्य, सत्ता और बाजार कर पाता है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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