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एक सच्चे देशभक्त का जीवन

इधर मैं देशभक्ति और अंध-राष्ट्रीयता में अंतर को लेकर खासा सोचता रहा। लेखक, समाज-सुधारक, राजनीतिक कार्यकर्ता बलराज पुरी स्मृति समारोह के सिलसिले में जम्मू-कश्मीर जाने की बाध्यता ने भी इसका मौका दिया।...

एक सच्चे देशभक्त का जीवन
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 18 Aug 2017 11:39 PM
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इधर मैं देशभक्ति और अंध-राष्ट्रीयता में अंतर को लेकर खासा सोचता रहा। लेखक, समाज-सुधारक, राजनीतिक कार्यकर्ता बलराज पुरी स्मृति समारोह के सिलसिले में जम्मू-कश्मीर जाने की बाध्यता ने भी इसका मौका दिया। वह ऐसे लेखक थे, जिन्होंने शायद भारतीय लोकतंत्र को उसके सबसे अच्छे रूप में प्रस्तुत किया है। आज देश में ऐसे अति-देशभक्तों की कमी नहीं है, जिनके दिन-रात पाकिस्तान या चीन और कभी-कभी दोनों को गालियां देते बीत जाती हैं। बलराज पुरी की देशभक्ति अलग थी। अपनी लंबी जीवन यात्रा में उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ी, बल्कि कश्मीर के महाराजा की निरंकुशता से मुक्ति के लिए भी वह लड़े। उनकी लड़ाई कश्मीरियों के मानवाधिकारों, जम्मू के साथ ही लद्दाख की क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए भी थी। 

उनके अंदर देशभक्ति का जज्बा छोटी उम्र में ही दिखने लगा, जब महज 14 साल के बलराज ने भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित होकर  उर्दू अखबार निकाला। उनकी कई किताबों में भारतीय मुसलमानों पर एक महत्वपूर्ण अध्ययन भी है, जिसमें जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच संबंधों की जटिलता व कश्मीर में अलगाववाद की शुरुआत का आधिकारिक विश्लेषण मिलता है। पुरी के समकालीन बहुत सम्मान से याद करते हैं कि अस्सी-नब्बे के दशक में मंदिर आंदोलन और इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाए जाने के माहौल में वह किस तरह अपनी खटारा स्कूटर पर घूम-घूमकर लोगों से शांति बनाए रखने, हिंसा रोकने की अपील करते दिखते थे। संदेह और अराजकता के उस माहौल में भी बलराज सभी धर्मों और समुदायों में सम्मान और भरोसे से देखे जाते थे। 
अगस्त 2014 में उनके निधन पर यह टिप्पणी बहुत कुछ कहती है- ‘जम्मू ने अपनी क्षेत्रीय पहचान का चैंपियन, कश्मीर ने मानवाधिकार व लोकतंत्र का असली योद्धा, राज्य ने एक शांति कार्यकर्ता, तो देश ने एक उदार व प्रगतिशील अवाज खो दी है।’ उन्हें लाल बहादुर शास्त्री जैसी रचनात्मक ऊर्जा वाला भी कहा गया। पुरी की अंतिम यात्रा की अपार भीड़ उनकी लोकप्रियता का परिचायक थी, जिसमें शामिल एक बुजुर्ग अब भी मेरी स्मृति में है, जो बेसाख्ता चिल्लाकर कह रहा था- ‘यह इंसान बिकाऊ नहीं था।’ पुरी को करीब से जानने वालों, उनके परिवार के लिए भी यह सम्मान दुर्लभ अनुभव था। 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके काम को बाहर वह पहचान नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे। आज भारत को बलराज पुरी जैसे देशभक्तों की ही जरूरत है। इसे आज किसी दूसरे देश को गाली देकर देशभक्ति जताने वाले की नहीं, ऐसे देशभक्तों की दरकार है, जिनके शब्द और कार्य देश को ज्यादा सहिष्णु व समृद्ध बनाने के साथ-साथ इसे संघर्षमुक्त बनाने में मददगार हों। समाज के दबे हुए वर्गों- दलितों व महिलाओं को सम्मान मिले और नागरिकों के बीच भाषा-जाति-धर्म पर आधारित विभाजन को सहिष्णुता और परस्पर सम्मान की भावना से बदल दिया जाए। बलराज पड़ोसी देशों से ज्यादा मजबूत होने की वकालत नहीं करते, बल्कि भारत को अपने आप में इतना मजबूत बनाने की बात करते थे कि वह अपने नागरिकों के लिए एक बेहतर व सुरक्षित जगह बन सके। यह पुरी के जीवन का पहला व सबसे महत्वपूर्ण पाठ था। दूसरा पाठ यह कि देशभक्ति अपने आप में कोई अकेली चीज नहीं है, इसके तमाम और विविध रूप हैं, जिनका सम्मान होना चाहिए। एक कहावत है- ‘परोपकार की शुरुआत हमेशा घर से होती है।’ देशभक्ति की शुरुआत भी घर से ही होती है। बलराज अपने शहर और जिले से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उन्हें अपने राज्य और देश भी उतना ही प्यार था। उन्होंने बार-बार साबित किया कि हम जितना प्यार अपने इलाके, अपने सूबे से करते हैं, उतना ही देश के लिए भी होना चाहिए, तभी इसका अर्थ है।

पड़ोसी राज्य पंजाब भी अपने यहां शांति और सद्भाव की दिशा में उनके प्रयासों को याद करता है। बलराज वहां के पंजाबी हिंदुओं को समझाने में सफल रहे कि उन्हें हिंदी के प्रति आग्रही होने की बजाय सिखों के साथ रोज साझा की जाने वाली मातृभाषा का सम्मान क्यों करना चाहिए? वह भिंडरावाले के कट्टरवाद के मुखर विरोधी थे। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद वहां जाने वाले वह पंजाब से बाहर के पहले शख्स थे, जो हिंसा के खिलाफ और शांति बहाली के पक्ष में खुलकर बोल रहे थे। 
कुछ लोग प्रतीकों की पूजा में ही देशभक्ति देखते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि दिन में दस बार तिरंगे की पूजा, आपको एक अच्छा देशभक्त बना ही दे। बेहतर होगा कि हम देशभक्ति का एक अधिक स्थायी, अधिक रचनात्मक स्वरूप अपने-अपने क्षेत्र, शहर, जिले, प्रांत और देश में प्रस्तुत करें, जो अधिक सहिष्णु, अधिक समावेशी और अधिक लोकतांत्रिक समाज निर्मित करता हो।

बलराज पुरी की देशभक्ति प्रतीकात्मक से कहीं ज्यादा और अलग थी। उन्हें अपनी मातृभूमि के प्रति प्यार और सम्मान जताने के लिए ‘मेरा भारत महान’ कहने या ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ चिल्लाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। बल्कि उन्होंने अपने आचरण, लेखन व संघर्ष से बार-बार यह साबित किया। वह सराहनीय थे, अनुकरणीय भी, पर यकीनन अनोखे तो नहीं ही थे। ऐसे देशभक्तों की एक बड़ी जमात है, जो शोहरत या पहचान के बगैर खामोशी से संविधान के मूल्यों को आगे बढ़ा रहे हैं। उनके लिए दूसरे देशों को दिखाने की अपेक्षा अपने देश को एक बेहतर स्थान पर देखना ज्यादा महत्वपूर्ण था। पुरी विचारों के प्रति इतने आग्रही कभी नहीं रहे कि कभी भाषा में भी आक्रामक हुए हों। जुनूनी और इरादे के पक्के थे, इसलिए काम करते रहे, किसी पहचान या पुरस्कार के लिए नहीं।

आजादी के 70 साल बाद भी हमारा समाज गहरे विभाजित है। इस भेदभाव को सत्ता-लोलुप नेताओं और टीआरपी पीड़ित मीडिया से खाद-पानी मिला है। ऐसे में, सबसे बड़ा काम मेल-मिलाप की भावना विकसित करना है। एक बात और बहुत जरूरी है। भारत की एकता और लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि जातियों, धर्मों, भाषाओं और क्षेत्रों के अंतर्संबंधों में संदेह व वैमनस्य की भावना पर सम्मान व मान्यता को तरजीह दी जाए। बलराज पुरी आजीवन इसी जीवन सिद्धांत के लिए लडे़। वह गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले सच्चे अनुयायी थे।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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