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सरहद के पार भगत सिंह की याद

बात सन 2005 के मध्य दिसंबर की है। उस गुनगुनी ठंड वाली दोपहर में जब हम वाघा चेक पोस्ट पार कर पाकिस्तान में प्रवेश कर रहे थे, हमें तनिक भी गुमान नहीं था कि वहां कितने आश्चर्य हमारी प्रतीक्षा कर रहे...

सरहद के पार भगत सिंह की याद
विभूति नारायण राय, हिंदी साहित्यकारMon, 25 Sep 2017 10:46 PM
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बात सन 2005 के मध्य दिसंबर की है। उस गुनगुनी ठंड वाली दोपहर में जब हम वाघा चेक पोस्ट पार कर पाकिस्तान में प्रवेश कर रहे थे, हमें तनिक भी गुमान नहीं था कि वहां कितने आश्चर्य हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह पच्चीस लेखकों, पत्रकारों और रंगकर्मियों का दल था, जो सज्जाद जहीर की जन्म सदी के मौके पर पाकिस्तान जा रहा था। प्रतिनिधिमंडल से दोगुने स्वागत करने वाले लगभग सौ गज दूर खडे़ हाथ हिला रहे थे। हम भी कम उत्साहित नहीं थे, सो जल्दी-जल्दी कस्टम वगैरह से निपटकर उनके पास पहुंचे। पहला आश्चर्य, शुरुआती औपचारिक नारों के बाद कुछ ऐसे नारे लगे- ये वर्दी वाले... बेगैरत, ये बूटों वाले... बेगैरत, ये पेटी वाले... बेगैरत...। वर्दी वाले, बूटों वाले या पेटी वाले मतलब फौजी। उस समय वहां जनरल परवेज मुशर्रफ की फौजी हुकूमत थी। इसलिए स्वाभाविक था कि चंद मिनटों में ही रेंजर्स हमें घेरकर खड़े हो गए। दूसरा आश्चर्य, स्वागत समारोह समाप्त होने के बाद जब हम अपने वाहनों की तरफ बढ़े, तो किसी का सामान उसके हाथ में नहीं था। हो भी नहीं सकता था, क्योंकि पाकिस्तानी मेजबानों ने हमें सामान उठाने ही नहीं दिया। नौजवान  लड़के ही नहीं, कई बार तो हमसे बड़ी उम्र के लोगों ने हमारे भारी-भरकम सूटकेस उठा रखे थे। आने वाले 15 दिनों के दौरान इसी खुलूस और मोहब्बत से लोग हमारे साथ पेश आने वाले थे। ऐसे कई आश्चर्यों से गुजरते हुए जब मैं अपनी मिनी बस में पहुंचा, तो एक अद्भुत आश्चर्य प्रतीक्षा कर रहा था।

हर वाहन में दो-तीन की संख्या में स्थानीय कार्यकर्ता स्वयंसेवक मौजूद थे। ज्यादातर नौजवान, और उत्साह से लबरेज। हमारी गाड़ी में दो 20-25 साल के बीच के नौजवान थे। बेतरतीब कपड़ों, बिना शेव किए चेहरों और बेफिक्र अंदाज के बावजूद कुछ था, जो उन्हें गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर रहा था। परिचय की रस्म पूरी हुई कि उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी। वे भारत को लेकर बहुत कुछ जानना चाहते थे। आज वर्षों बाद जो मुझे याद है, वह है भगत सिंह को लेकर उनकी उत्सुकता। क्या भगत सिंह को आज भी लोग याद करते हैं या भारत में भगत सिंह अभी भी प्रासंगिक हैं? इन प्रश्नों से शुरू हुई उनकी जिज्ञासा अगले 40 मिनट तक खत्म नहीं हुई, जब तक हम लाहौर शहर नहीं पहुंच गए। भगत सिंह की विश्व दृष्टि और राजनीति से लेकर उनके मुकदमे, जेल-जीवन, कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, गरज यह कि उनसे जुड़ी हर छोटी-बड़ी चीज को वे जान लेना चाहते थे। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा कि भगत सिंह पर पढ़-लिखकर हासिल की गई उनकी जानकारियां हमसे ज्यादा ही थीं। भगत सिंह को लेकर इतनी दिलचस्पी से ‘दुश्मन’ पाकिस्तान के बारे में हमारी पारंपरिक समझ गड़बड़ा रही थी।

यह जानकारी तो थी कि भगत सिंह पाकिस्तानी पंजाब के लायलपुर में पैदा हुए, लाहौर मे पढ़े और वहीं एक पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप में अपने साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी के फंदे पर लटक गए। पाकिस्तान से उनके रिश्तों की यह सब सामान्य जानकारियां हमारे पास थीं, पर एक धर्माधारित इस्लामी गणराज्य में नास्तिक और समाजवादी समाज का सपना देखने वाले भगत सिंह में इतनी दिलचस्पी कैसे पैदा हो गई, इसे समझना थोड़ा मुश्किल था।
इन नौजवानों की जिज्ञासा ने मेरे मन में एक उत्सुकता तो पैदा कर ही दी और मैंने भगत सिंह से पाकिस्तान के रिश्तों को खंगालना शुरू कर दिया। उस यात्रा के बाद की यात्रा में और भारत आने वाले या फोन, मेल से संपर्क में रहने वाले पाकिस्तानी मित्रों से जो कुछ पता चला, वह अद्भुत था। भगत सिंह का गांव बंगा लाहौर से बहुत दूर नहीं है, पर इजाजत न होने के कारण वहां जाने की बात सोचना भी फिजूल था। साथ के स्थानीय लड़कों में से कुछ वहां हो आए थे, उनसे पता चला कि विभाजन के बाद भगत सिंह का परिवार भारत चला गया, तो उनका मकान किसी वकील के हिस्से में आ गया था। 1947 तक हर साल उनकी शहादत दिवस 23 मार्च के अवसर पर एक मेला लगता था, जिसे फिर से शुरू करने की कोशिश कुछ  साथी कर रहे हैं। बाद में मैंने पढ़ा कि कुछ वर्षों से मेला फिर से शुरू हो गया है और कम संख्या में ही सही, हर साल लोग वहां जुटते हैं। कई साल से कुछ संगठन मांग कर रहे हैं कि लाहौर के शादमान इलाके के उस चौराहे का नाम भगत सिंह चौक रख दिया जाए, जहां से लाहौर सेंट्रल जेल दिखती है। पहले तो यह चौराहा भी जेल का ही हिस्सा था और फांसी घर, जिसमें भगत सिंह को साथियों समेत फंदे पर चढ़ाया गया, इसी चौक पर था।

दो बार सरकार ने मांग मान भी ली, पर दोनों बार कट्टरपंथियों के दबाव में उसे पीछे हटना पड़ा। हर साल 23 मार्च को शादमान चौक पर लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी इकट्ठे होते हैं और इस मांग को दोहराते हैं। अब कुछ वर्षों से हाफिज सईद के जेहादी चेले लश्कर-ए-तैयबा के बैनर तले उनके विरोध में जमा होने लगे हैं और यह लक्ष्य अधिक मुश्किल लगने लगा है। भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के बैरिस्टर इम्तियाज कुरेशी ने भगत सिंह व साथियों को सेशन कोर्ट द्वारा दंडित किए जाने के खिलाफ लाहौर हाईकोर्ट में अपील दायर कर रखी है और कोर्ट ने एक बड़ी बेंच को निर्णय के लिए मामला सौंप दिया है। इसी महीने कुरेशी ने हाईकोर्ट से गुजारिश की है कि उनकी अपील जल्द सुनी जाए। उन्हें पूरा विश्वास है कि वह भगत सिंह और साथियों को सांडर्स हत्याकांड में निर्दोष साबित कर देंगे। जो एफआईआर दर्ज की गई थी, उसमें कोई नामजदगी नहीं थी और अगर एजी नूरानी और चमन लाल द्वारा काफी मेहनत और दृष्टि से इकट्ठी की गई मुकदमे की सामग्री का विश्लेषण करें, तो कुरेशी की बात में दम लगता है। सुनवाई के दौरान जज इतनी जल्दबाजी में था कि उसने नैसर्गिक न्याय की धज्जियां उड़ा दीं। प्रतीकात्मक ही सही, भगत सिंह के निर्दोष साबित होने के खास मायने होंगे। जीवित होते, तो कल भगत सिंह 110 साल के हो जाते। क्या ही अच्छा होता कि इस मुश्किल समय में, जब भारत और पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र में एक-दूसरे से गाली-गलौज कर रहे हैं, दोनों मिलकर अपने साझा नायक भगत सिंह का 110वां जन्मदिन मनाते?
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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