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बदलते कश्मीर को चाहिए नई रणनीति

क्या कश्मीर में परिवर्तन की बयार बह रही है? राज्य के पुलिस महानिदेशक शेष पाल वैद और थल सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत के बयानों से तो यही लगता हैै। दोनों के अनुसार पिछले कुछ महीनों के दौरान अलगाववादियों...

बदलते कश्मीर को चाहिए नई रणनीति
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 23 Oct 2017 10:40 PM
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क्या कश्मीर में परिवर्तन की बयार बह रही है? राज्य के पुलिस महानिदेशक शेष पाल वैद और थल सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत के बयानों से तो यही लगता हैै। दोनों के अनुसार पिछले कुछ महीनों के दौरान अलगाववादियों की कमर काफी हद तक टूट चुकी है। इसके लिए वे तुलनात्मक आंकड़े पेश करते हैं, जिनके मुताबिक हालिया समय में सीमा पार से घुसपैठ में कमी हुई है। पहले से अधिक विदेशी और देशी आतंकी मारे गए हैं और भारतीय सुरक्षा बलों के नुकसान में कमी आई है। सिर्फ आंकड़ों की मानें, तो सचमुच स्थितियां भारत के पक्ष में सुधरी हैं। पर ऐसा तो पहले भी कई बार हो चुका है, जब बात बनते-बनते बिगड़ गई। बुरहान वानी की मृत्यु के ठीक पहले ऐसा ही वक्त था, पर एक बार बिगाड़ आया, तो महीनों उसमें चले गए। कश्मीर की बात करते समय हमें याद रखना होगा कि हमारे लाख कहने और चाहने के बावजूद कभी भी यह भारत का आंतरिक मसला नहीं रहा है। न सिर्फ इसका एक तिहाई भाग पाकिस्तानी कब्जे में है, बल्कि इस समस्या का कोई अंतिम हल भी पाकिस्तान की सहमति से ही निकल पाएगा। दिसंबर 1989 में शुरू हुआ आतंकवाद इतने दिनों तक नहीं चल पाता, अगर उसे खुलेआम पाकिस्तानी सेना और सरकार का समर्थन न मिला होता। 1989 और आज के हालात में दो बुनियादी फर्क हैं और अगर हमने इनका लाभ नहीं उठाया, तो पूरी आशंका है कि वापस उसी अंधी सुरंग में प्रवेश कर जाएंगे, जिसमें हाथ आए अवसरों को गंवाकर हम फंसते रहे हैं।

ढाई दशकों से चल रही लड़ाई में पहली बार यह हुआ है कि घाटी में विदेशी लड़ाकों से अधिक कश्मीरी आतंकी हैं। भारतीय फौज के बेहतर सीमा प्रबंधन से सरहद पार से घुसपैठ काफी कम हो गई है। मुझे नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की याद है, जब सीमा पर नाममात्र की रुकावटें थीं। बहुत कम सावधानी बरतकर भी काश्मीरी लड़के मुजफ्फराबाद के आसपास पसरे आतंक के प्रशिक्षण केंद्रों तक चले जाते थे और उतनी ही आसानी से दुनिया भर के जेहादी लड़ाके भारतीय सीमा पार कर घाटी में आ जाते थे। उन्हीं दिनों काबुल पर तालिबान का कब्जा हुआ था और लड़ाई से खाली हुए मुजाहिदीनों ने कश्मीर और चेचेन्या का रुख किया था। घाटी में तब हम कामना करते रहते थे कि ऊपरी पहाड़ियों पर खूब बर्फ पड़े और सारे दर्रे बंद हो जाएं। पर यह रुकावट भी अक्तूबर-मार्च तक ही रहती और फिर घुसपैठ शुरू हो जाती। तब तंजीमों के कमांडर विदेशी लड़ाके होते थे और कश्मीरी लड़के आम तौर पर कुली या गाइड का काम करते थे। अब सीमा पर सेना का प्रभुत्व इतना हो गया है कि उसे पार करना असंभव नहीं, तो बेहद मुश्किल जरूर है। नतीजतन पिछले कुछ वर्षों में विदेशी जेहादियों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक रह गई है और कश्मीरी नौजवान कमांडर की हैसियत में पहुंच गए हैं। यह एक दोधारी तलवार वाली स्थिति हैै। विदेशी, खासतौर से पाकिस्तानी लड़ाके न होने के कारण उन पर आईएसआई की पकड़ ढीली पड़ी है और समुदाय के दबाव से उन्हें हथियार छोड़ने के लिए तैयार करना अपेक्षाकृत आसान हो गया है। स्थानीय आतंकियों के विरुद्ध जमीनी सूचनाएं भी अधिक आसानी से मिलती हैं और पिछले कुछ दिनों मे एक के बाद एक जैश-ए-मोहम्मद या लश्कर-ए-तैयबा के  कमांडरों के मारे जाने के पीछे एक वजह यह भी है।

दूसरी तरफ, स्थानीय आतंकी के साथ समुदाय का खास भावनात्मक लगाव होता है और इसीलिए उनके जनाजे में बड़ी संख्या में भीड़ उमड़ती है। यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें सुरक्षा बलों से बहुत अधिक संवेदनशीलता की अपेक्षा की जानी चाहिए। 1989 की स्थिति से आज दूसरा बुनियादी फर्क अंतरराष्ट्रीय फलक पर पाकिस्तान के अलग-थलग पड़ जाने से आया है। यह मानने का कोई आधार नहीं है कि जनरल जिया की हजार चीरे लगाकर भारत को धीरे-धीरे रक्त स्राव (ब्लीडिंग थू्र थाउजंड्स कट्स) से मार डालने की नीति अमेरिका की सहमति से बनी थी, पर यह भी सही है कि पहले अमेरिका ने कभी भी कश्मीर में पाकिस्तान संचालित जेहादियों को गंभीरता से नहीं लिया था। 90 के दशक में श्रीनगर के दौरे पर आए वाशिंगटन में भारतीय राजदूत सिद्धार्थ शंकर रे ने सुरक्षा बलों द्वारा पकड़े गए हजारों टन गोला-बारूद के जखीरे का मुआयना करने के बाद कहा था कि अगर अमेरिका न चाहे, तो आप इससे बड़ा पहाड़ भी उसे नहीं दिखा सकते। आज अमेरिका देखने के लिए तैयार है और पूरी दुनिया में ‘नॉन स्टेट ऐक्टर्स’ की स्वीकार्यता घटी है। पिछले दस दिनों में जितने ताबड़तोड़ ड्रोन हमले अमेरिका ने आतंकी ठिकानों पर किए हैं और जिस तरह से पाकिस्तानी सेना ने पांच साल से हक्कानी नेटवर्क के कब्जे में कैद एक अमेरिकी परिवार को छुड़ाकर उन्हें वापस अपने देश भेजा है- सब बदले हालात की तरफ इशारा कर रहे हैं। पाकिस्तानी मीडिया की मानें, तो यह स्पष्ट है कि सेना के एक हिस्से और अतिवादी इस्लामी तंजीमों को छोड़कर देश के शेष स्टेक होल्डर्स ने मान लिया है कि बाहर से लड़ाके भेजकर किसी सशस्त्र संघर्ष से कश्मीर हासिल करने के उनके प्रयास न सिर्फ असफल हो गए हैं, बल्कि आत्मघाती भी साबित हो रहे हैं। 

हमें बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार अपनी रणनीति बदलनी चाहिए, अन्यथा हम एक बार फिर जैसे थे, वाली स्थिति मे पहुंच जाएंगे। कश्मीरी भीतर से बहुत भावुक होते हैं। इसकी एक बानगी तो दो दिन पहले, यानी 22 अक्तूबर को मिल गई, जब पाक अधिकृत कश्मीर में कई स्थानों पर पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शन हुए। 22 अक्तूबर को ही कबाइलियों ने हमला कर एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के हवाले किया था। यही भावुकता उन्हें भारत के खिलाफ भी खड़ा करती रहती है। उनसे बातचीत के रास्ते बंद कर हम उनकी नाराजगी बढ़ाते ही रहेंगे। हमें पाकिस्तान से भी बातचीत शुरू करनी चाहिए। पाकिस्तान भी एक स्टेक होल्डर है और बदली परिस्थितियों में उम्मीद की जा सकती है कि उसे इस समस्या के फौजी हल की संभावना की व्यर्थता का एहसास कराया जा सकता है। देर करने से हम सुरक्षा बलों द्वारा हासिल उपलब्धियां गंवा देंगे। याद रखने की जरूरत है कि कश्मीर का कोई भी स्थाई हल राजनीतिक ही हो सकता है, फौज और पुलिस तो केवल उसके लिए अनुकूल परिस्थितियां ही निर्मित कर सकती हैं।
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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