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सब रास्ते बंद हैं इसके आगे

पाकिस्तान अपने अस्तित्व को बचाए रखने की, 1970 के दशक के बाद, आज सबसे विकट लड़ाई लड़ रहा है। घरेलू और वैश्विक घटनाक्रम ने उसे विकल्पहीनता की ऐसी अंधी सुरंग में धकेल दिया है, जहां से बाहर निकलने के सारे...

सब रास्ते बंद हैं इसके आगे
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीTue, 07 Nov 2017 12:15 AM
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पाकिस्तान अपने अस्तित्व को बचाए रखने की, 1970 के दशक के बाद, आज सबसे विकट लड़ाई लड़ रहा है। घरेलू और वैश्विक घटनाक्रम ने उसे विकल्पहीनता की ऐसी अंधी सुरंग में धकेल दिया है, जहां से बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद नजर आ रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को गद्दी छोडे़ तीन महीने से अधिक होने के बाद भी स्थितियां उलझी हुई हैं। उन पर मुकदमा चलना शुरू हो गया है और कैंसर से पीड़ित बेगम कुलसुम नवाज के लंदन अस्पताल में भर्ती होने के कारण इस्लामाबाद और लंदन के बीच उनकी आवाजाही जारी है। हर बार उनके मुल्क के बाहर जाते ही अफवाहें फैलने लगती हैं कि अब वह वापस नही लौटेंगे, पर वह लौट आते हैं, और यह रहस्य गहरा जाता है कि उनके मन में क्या चल रहा है। जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने उनके मामले में असाधारण सक्रियता दिखाई है, उससे यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि न्यायपालिका उन्हें दंडित करने पर तुली हुई है। सबसे शक्तिशाली संस्था पाकिस्तानी फौज की दिलचस्पी भी उन्हें बचाने में नहीं है। इसके उलट भारत से संबंध सुधारने की उनकी कोशिशों को फौज ने हमेशा शक से देखा है और इसके लिए उन्हें माफ नहीं किया। पाकिस्तानी परंपरा तो राजनेताओं के भागकर विदेशी जमीन पर तब तक बैठे रहने की रही है, जब तक कि घरेलू हालात अनुकूल न हो जाएं। ताजा उदाहरण मुशर्रफ का है। फिर नवाज क्यों अदालतों के सामने हाजिर हो रहे हैं? 

पाकिस्तानी मीडिया आजकल इसी गुत्थी को सुलझाने में लगा है। एक राजनीतिक विश्लेषक ने नवाज के रवैये की तुलना जुल्फिकार अली भुट्टो के अड़ियल रवैये से की है, जिसके चलते फौजी तानाशाह जिया उल हक से अपनी अंतिम मुलाकात में उन्होंने धमकी दी थी कि मार्शल लॉ खत्म होने के बाद उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलेगा, जिसका स्वाभाविक दंड फांसी होगा। हम जानते हैं कि फांसी के फंदे में जिया नहीं, भुट्टों की गरदन फंसी थी। अगले चुनावों में एक साल से भी कम का समय रह गया है और शरीफ परिवार के झगड़े थमते नजर नहीं आ रहे। लंदन में पिछले महीने मुस्लिम लीग (नून) के वरिष्ठ नेताओं की एक बैठक में तय किए गए फॉर्मूले के अनुसार, 2018 के चुनाव तक शाहिद खाकान अब्बासी प्रधानमंत्री बने रहेंगे और उसके बाद शहबाज शरीफ सरकार की बागडोर संभालेंगे, पर इसे दोनों भाइयों के परिवार भी मान लेंगे, इसके आसार कम ही लगते हैं। बीच में एक अफवाह यह भी फैलाई गई कि परदे के पीछे फौज और नवाज में सुलह हो गई है और उन्हें बचाने के रास्ते ढूंढ़ लिए गए हैं, पर खुद नवाज ने इसका खंडन कर दिया। उनकी समस्या व्यक्तिगत से ज्यादा पाकिस्तानी समाज से ताल्लुक रखती है, जो 70 साल बाद भी एक प्रौढ़ लोकतंत्र नहीं बन पाया और आज भी राज्य की विभिन्न संस्थाएं- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, सेना या प्रेस -एक दूसरे के साथ सम्मानपूर्ण सह-अस्तित्व करना नहीं सीख पाई हैं। 

संकट सिर्फ नवाज के लिए नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के समक्ष भी बहुत बड़ा है। पिछले कई वर्षों का संचित पाप अब उससे अपना हिसाब-किताब करना चाहता है। नवाज को पदच्युत करने के अलावा तीन फौरी घटनाओं ने उसे झकझोर दिया है। सबसे पहला झटका तो उसे राष्ट्रपति बुश द्वारा घोषित अमेरिका की नई अफगान-पाकिस्तान नीति से लगा। यह समझने में उसे थोड़ा वक्त लगा कि जिस अमेरिका का पिछले 70 साल से वह पिछलग्गू बना हुआ था, उसने बड़ी निर्ममता से उसे झटक दिया है और अब जिस ‘डु मोर’ की मांग उससे की जा रही है, उसके तहत उसे उन ‘नॉन स्टेट ऐक्टर्स’ यानी जेहादियों के खिलाफ कार्रवाई करनी होगी, जिन्हें बड़े जतन से उसकी फौज ने पाला-पोसा था। फौज के लिए ये कश्मीर और अफगानिस्तान में उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली रणनीतिक पूंजी हैं और उन पर उसने काफी समय, श्रम और साधन खर्च किए हैं। ऐसे में, खुद अपने हाथों से उन्हें नष्ट करने के लिए फौज तैयार नहीं है। राजनीतिक नेतृत्व इस मसले पर ज्यादा संवेदनशील है और बदली वैश्विक परिस्थितियों में पूरी तरह से अलग-थलग पड़ जाने का खतरा समझता है, लेकिन फौज की हठधर्मिता के आगे बेबस है। सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने साफ कह दिया है कि पाकिस्तान बहुत कर चुका और अब ‘डु मोर’ करने की बारी दुनिया की है। मुस्लिम लीग (नून) के नेतृत्व ने पिछले दिनों कई बार सार्वजनिक रूप से फौज तक यह संदेश भेजने की कोशिश की है, पर हमेशा झिड़की खाकर उसे पीछे हटना पड़ा है। ताजा उदाहरण हाल में विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ का एक अमेरिकी थिंक टैंक के सामने दिया वह बयान था, जिसमें उन्होंने हक्कानी और हाफिज सईद को पाकिस्तानी सरकार का भी सिरदर्द बताया था, पर देश लौटते ही उनको पलटी मारनी पड़ी। बेचारगी की हद तो तब हो गई, जब अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन की हालिया इस्लामाबाद यात्रा के दौरान असैनिक नेतृत्व को उनसे अलग से बात नहीं करने दी गई और पूरी बातचीत के दौरान शिष्टमंडल में सेना व आईएसआई प्रमुख मौजूद रहे। दूसरी तरफ, अनाधिकारिक सूत्रों के अनुसार, जनरल बाजवा व टिलरसन परदे के पीछे अलग से मिले।

पाकिस्तान के लिए इस समय सबसे बड़ा संकट आर्थिक है। एक पाकिस्तानी थिंक टैंक के सामने जनरल बाजवा का हालिया बयान कि देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था उसकी सुरक्षा पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा, राष्ट्रीय मीडिया में सबसे प्रमुखता से चर्चित हो रहा है। सारे लक्षण बता रहे हैं कि अगले दो-तीन महीनों में ही पाकिस्तान कर्जों की किस्तें चुकाने लायक नहीं रहेगा। उसके आयात-निर्यात के बीच फर्क बढ़ता जा रहा है, विदेशी मुद्रा का उसका भंडार खतरनाक हद तक कम हो गया है, चीन से ऊंची दरों पर आने वाले निवेश के अलावा कोई विदेशी पूंजी नहीं आ रही और कोढ़ में खाज यह कि वित्त मंत्री इशाक डार अदालती कार्यवाही से डरकर लंदन के अस्पताल में छिपे बैठे हैं। इस बीच अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने धमकी दी है कि भारत-अफगानिस्तान के बीच सड़क मार्ग से व्यापार करने की इजाजत नहीं दी गई, तो वह भी ग्वादर बंदरगाह से सेंट्रल एशिया के बाजारों तक पाकिस्तानी ट्रकों को अफगानिस्तान होकर नहीं जाने देंगे। ऐसा हुआ, तो गेम चेंजर कहे जाने वाले सीपैक का सारा मकसद ही खत्म हो जाएगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राज्य के सारे स्टेक होल्डर एकजुट होकर पाकिस्तान के सामने मंडराने वाले फेल्ड स्टेट के तमगे को अपनी गरदन में लटकाने से बचा पाएंगे?
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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