फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन ताजा ओपिनियनचंदा रे मोरे भैया से कह दो

चंदा रे मोरे भैया से कह दो

चांद को मामा मानते हैं, वह मां के भाई हैं। मां की गोद में बैठे भाई-बहन अनेक गीत सुनते हैं। गोद सुहावनी तब हो जाती है, चांद की रोशनी से जगर मगर हो तिमिर का सीना चाक करती है, जब विपन्न फटेहाल मां...

चंदा रे मोरे भैया से कह दो
उषाकिरण खान, वरिष्ठ साहित्यकारSat, 21 Oct 2017 12:22 AM
ऐप पर पढ़ें

चांद को मामा मानते हैं, वह मां के भाई हैं। मां की गोद में बैठे भाई-बहन अनेक गीत सुनते हैं। गोद सुहावनी तब हो जाती है, चांद की रोशनी से जगर मगर हो तिमिर का सीना चाक करती है, जब विपन्न फटेहाल मां सत्तू-नमक बच्चों को खिलाती गाती जाती है- चंदा मामा आरे आवऽ पारे आवऽ, सोना के कटोरिया में दूध भात लेले आवऽ बौआ के मुंह में घुटुक।- बच्चे सत्तू-नमक, दूध-भात चाव से खा जाते हैं, क्योंकि गोद मां की है, और दूध-भात उनका मामा लेकर आया है। अमावस के दिन बहनें विकल होकर गा उठती हैैं- बहना याद करे... और भैया चंदा दूज के दिन आ धमकते हैं। 

छुटपन में तो भाई-बहन एक स्थान पर रहते हैं, परंतु बड़े होने पर काम-काज लगने पर भाई के बहन के घर जाने का विधान है। बहनें राह तकती हैं। तांबे के एक बड़े कटोरे जैसे या मिट्टी के ही पात्र में पांच पान, पांच मखाना, पांच सुपारी और कुम्हड़ के फूल रहते हैं। पिठार (चावल) से तिलक लगाते हैं। दोनों हाथ जोड़कर भाई अंजलि बनाते हैं, जिसमें पिठार सिंदुर लगा सारी सामग्री डाली जाती है- बहनें मंत्र सा पढ़ती हैं... यमुना नौतेयै यम के/ हम नौतैछी भाई के/ जतेक दिन यमुना के धार/ ततेक दिन  हमरा भाई के औरदा... अर्थात : यमुना ने अपने भाई को निमंत्रित किया है। मैं अपने भाई को निमंत्रित कर रही हूं। जितने दिन यमुना की धारा रहे, उतने ही दिन मेरे भाई की आयु रहे। 

यमुना नदी के विषय में मान्यता है कि चारों युग जीवित रहेगी। निमंत्रण इसलिए कि इस दिन भाई का विशेष भोजन बनता है। भाई दूज सभी जाति-वर्णों, भारत के सभी भूभागों में होता है। बस तरीका अलग है। मिथिला क्षेत्र में तथा अन्य स्थान पर बिहार में गोधन कूटा जाता है। हमने अपनी सहेलियों के साथ उसमें भी भाग लिया है। गोधन गोबर का एक दिन पहले सुख-रात्रि में बनता है, वहां भी खील-बताशे, अकुरी, जिसे बजरी कहते हैं, बिखेरा जाता है। मूसल से सारी बहनें कूटती हैं और भाइयों के नाम गाली निकालती हैं, उसके बाद अपनी जीभ में कटैया का कांटा गड़ाकर कहती हैं: ‘जिस जीभ से गालियां दीं, उसमें कांटा गड़े।’ अर्थात:  बहनों की गालियां भाइयों को नहीं लगतीं। इस स्वार्थ युग में यह कितना सच है, नहीं कह सकती, परंतु इसके पीछे भावना सच्ची है। 

दूज के चांद का बांकपन अपनी लोक-संस्कृति में है। भाई दूज, खासकर नितांत लोकपर्व है, जो सर्वव्यापक है। यह मेरी इतिहास दृष्टि कहती है। यमुना के आसपास बसे लोग जैसे-जैसे छितराते हुए पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में जा बसे, पर्व भी विस्तार लेता गया, अपना स्थानीय रूपाकार ग्रहण करता हुआ।
यह हमारी विशेषता है कि लोकपर्व की विराटता इतिहास उद्घाटित करती रहती है, संस्कृतियों को सरलीकृत करती रहती है। जहां पुरुष समाज परिवार, जर-जंगल-जमीन के हक-हुकूक की बात करते हैं, स्त्रियां तादात्म्य स्थापित करना जानती हैं। भाई दूज इसी प्रकार का पर्व है। भाई दूज के दिन से ही मिथिला में सामा-चकवा की धूम मचती है। यह भी भाई-बहन का त्योहार है। श्रीमद्भागवत  में कथा भी ढूंढ़ ली गई कि सामा श्रीकृष्ण की बेटी हैं। उनका विवाह चकवा से हुआ था। सामा

अक्सर अपनी सहेलियों के साथ वृंदावन के जंगल में खेलने-घूमने जाती थीं, उनके पति चकवा भी जाते थे, पीछे से भाई सांब भी। उन दिनों भी अवैध वन-दोहन करने वालों की कमी नहीं थी। पशु-पक्षियों का शिकार, पेड़ काटने का अवैध धंधा चलता था। सामा तथा राज-परिवार के लोगों को देख जिन्हें भय लगा, उन्होंने वृंदावन में आग लगा दी। सांब तथा उनके भाई आग बुझाने के लिए दौड़ पड़े। कृष्ण तथा महाराज के चुगलखोर ने सब कुछ अपने तरीके से कह सुनाया। कृष्ण ने सामा को शाप दिया कि वह जंगल में ही रहना चाहती है, तो पक्षी बन जाए। सामा के पति ने जब सुना, तो उन्होंने भी शाप स्वीकार करने की घोषणा कर दी। अब सामा-चकवा, चकई-चकवा बन चुके थे। सांब आदि सात भाइयों ने अनशन कर दिया। वृंदावन की जनता ने भी धरना दिया। तब कृष्ण ने घोषणा की कि बहनों द्वारा कार्तिक के शुक्ल पक्ष में मूरतें बनाकर पूजन किया जाए, तो इनकी मनुष्य रूप में वापसी होगी। अत: सामा-चकवा, सात भाई, चुगला, वृंदावन और सकल समाज की मूर्तियां बनती हैं। रात में स्त्रियां गीत गाकर खेलती, हरे धान खिलाती हैं। पूर्णिमा के दिन इन्हें सौगात के साथ नया हरा चिवड़ा और दही खिलाकर विदा करते हैं। भाई लोग केले के थंब के बेड़े बनाकर सजाते हैं। सामा को आदर से विदा गीत गाते हुए जल में प्रवाहित करते हैं। लगभग 12 दिनों का यह अलग सा लोकपर्व है, जो भाई और बहनों के अटूट प्यार का रूप दिखाता है।

मुझे यह पर्व पर्यावरण से भी बावस्ता जान पड़ता है। यहां जंगल और जंगली पशु-पक्षियों की सुरक्षा, जंगल की कटाई का प्रश्न है। भाईचारे से ही संभव है जंगल की सुरक्षा। कार्तिक मास में ही सबसे अधिक चकवा-चकई, खेत वाले जल में, छोटी नदियों में दिखाई पड़ते हैं। कार्तिक मास में हरे धान का चिवड़ा मिलता है और खेती से जुड़ी लड़कियां खेत-खलिहान संभालने सावन-भादों में नैहर आती हैं, पूर्णिमा के दिन सामा-चकवा को जल प्रवाहित करके अपने मायके से विदा लेती हैं। इसके साथ ही भाई दूज के दिन से शुरू होने वाला कृषि का एक चक्र पूरा हो जाता है। बहनों के लिए भाई पति से अधिक विश्वसनीय होता है, कम से कम लोक-संस्कृति का पालन करने वाले समाज में तो होता ही है।

आज जब दुनिया बहुत छोटी दिखती है, दूरियां तो तब भी बनी हुई हैं। आज भी बच्चे चांद को देख अपने मामा को, बहनें भाई को याद करती हैं। कई बार यह याद किसी मुसीबत में होती है, तो कई बार मात्र भावनात्मक। याद करना मतलब योगक्षेम जानना। यहां बहनें भाई से जमीन-जायदाद की नहीं, सिर्फ रक्षा की आस लगाती हैं- हम दूर देशिनी हो भइया / मोहरिये के हे रे आस। मगध में छठ का एक गाना सुनाती हूं अक्सर कि  ‘अबकी हमारे खेत में गेहूं की अच्छी उपज नहीं हुई है, सो ए भाई, मैं छठ व्रत नहीं कर पाऊंगी।’ भाई कहता है कि ए बहन, मैं चला जाऊंगा मुंगेर, वहां से गेहूं की पोटली ले आऊंगा- तुम छठ कर लेना। भाई है, तो क्या गम है? सो मेरे सभी भाइयों को भाई दूज का प्रणाम और निमंत्रण।
      (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें