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हम भी बदले और बदली दिवाली भी

दीपावली पर बचपन की याद आती है, क्योंकि अब शहरों में दीपावली जैसे बिखर सी गई है। पहले दीपावली में जो लोगों का आपस में आना-जाना, मिलना-मिलाना होता था, वह अब मोबाइल के संदेशों में या फोन पर बात करके...

हम भी बदले और बदली दिवाली भी
सोनल मानसिंह, पद्म विभूषण प्राप्त कलाकारWed, 18 Oct 2017 10:53 PM
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दीपावली पर बचपन की याद आती है, क्योंकि अब शहरों में दीपावली जैसे बिखर सी गई है। पहले दीपावली में जो लोगों का आपस में आना-जाना, मिलना-मिलाना होता था, वह अब मोबाइल के संदेशों में या फोन पर बात करके निपट जाता है। इसके पीछे एक तो ट्रैफिक की समस्या है, फिर सोशल मीडिया में जो तरह-तरह के संसाधन आ गए हैं, उनकी वजह से भी यह बदलाव हो रहा है। मानसिकता ऐसी हो गई है कि जो मोबाइल संदेशों को पढ़ ले, उसे भी त्योहार मुबारक और जो न पढे़, उसे भी मुबारक। इन्हीं मोबाइल संदेशों में दीये आ जाते हैं, मिठाई आ जाती है, और पटाखे भी आ जाते हैं।

बचपन में मुंबई के जो मेरे वर्ष थे, वहां पर दीपावली ही नहीं, बल्कि वाघबारस से ही त्योहार की चमक आ जाती थी। दीपावली तो अमावस्या है, दीपावली के पहले का दिन है काली चौदस, उसके पहले का दिन धनतेरस और उसके भी पहले का दिन है वाघबारस। यहीं से त्योहार शुरू हो जाता था। घर में अल्पना बनाई जाती थी। तोरण लटक जाते थे। करीब दस दिन पहले से सफाई, रंग-रोगन सब हो जाता था। एक महीने पहले से ही घर में एक दर्जी मशीन लेकर बैठता था। हम सभी के कपड़े, घाघरा-चोली और ओढ़नियां बनते थे। हर रोज के लिए एक नया कपड़ा। इसके लिए बाकायदा मारामारी होती थी, क्योंकि एक ने जो रंग पसंद कर लिया, वह दूसरा नहीं कर सकता था। तोरण के साथ ताजे फूल हर दिन लगाए जाते थे। पूजा तो खैर होती ही थी। 

मुंबई में रहकर भी दीपावली के दौरान गुजराती परंपरा के मुताबिक हर दिन का अलग-अलग मिष्ठान भोजन बनता था। धनतेरस को हलवा, जिसको सीरो कहते हैं, तो बनना ही चाहिए। उसके साथ एक ठोस नमकीन फरसाण बनता था, जो अरवी के काले पत्ते से बनता था। यह आजकल के सेव जैसी नमकीनें नहीं हैं। अगले दिन दूधपाक बनता था, जो खीर से भी ज्यादा गाढ़ा दूध होता है। उसके साथ बटाटा वड़ा। हर चीज का एक ‘कॉम्बिनेशन’ होता था, यानी किस सब्जी के साथ क्या बनेगा, सब तय रहता था। दीपावली के दिन विशेष मिष्ठान बनता था। उस मिष्ठान के साथ फरसाण बनता था। अगले दिन यानी कार्तिक के शुभ एकम को, जो चंद्रमा के कैलेंडर के हिसाब से हमारे वर्ष का पहला दिन होता है, श्रीखंड और ढोकला बनता था। ये दोनों व्यंजन जरूर ही बनते थे। भोजन की इस विविधता में हम सभी का मन लगा रहता था। साथ ही, पोशाक की भी विविधता होती थी। इसके अलावा लेन-देन भी होता था। छोटे-बड़े 
तोहफे मिलते थे और दिए जाते थे। घर में सगे-संबंधियों का तांता लगा रहता था। 

मोरारजी देसाई, जो मेरे दादाजी के छोटे भाई जैसे थे, सबसे पहले आते थे दीपावली के अगले दिन। सुबह पांच बजे ही वह घर आ जाते थे। उनके आने से करीब एक घंटा पहले यानी चार बजे हमें जगाकर सिर धुलाकर नहलाया जाता था और तैयार कर दिया जाता था। फिर दोपहर दो बजे के करीब श्रीखंड और ढोकला खाने के बाद चुपचाप दो घंटे के लिए सुला दिया जाता था। शाम को फिर हम लोग निकलते थे लोगों से मिलने-जुलने के लिए। हम गाड़ियों में भर-भरकर अपने सगे-संबंधियों के यहां जाते थे। दीपावली का वह पूरा पर्व इतना सशक्त था, इतना सुदृढ़ था, इतना रंगीन था, इतना स्वादिष्ट था, इतना खुशबूदार था कि बहुत आनंद आता था। दीये भी थे और पटाखों की मस्ती भी। दिल्ली आने के बाद भी यह सब चलता रहा। फिर ऐसे भी मौके आए, जब दीपावली के समय हम  विदेश में होते थे। एक बार मैं दीपावली के समय पेरू में थी। एक बार क्यूबा में। वहां हमने उच्चायुक्त के घर में जाकर विधिवत दीपावली की पूजा की थी। वहां लोगों को यही नहीं पता था कि दीपावली के दिन पूजा आखिर हमें किसकी करनी है?

अब तस्वीर बदल चुकी है। अब त्योहार पर सब कुछ अपने घर पर ही हो जाता है। बाहर जाने का मन नहीं करता है। लोगों को लगता है कि भीड़-भड़क्के में कहां निकला जाए? इस बार तो पटाखेभी नहीं चलाने हैं। अदालत का आदेश जो है। हालांकि हमारी सोच यह थी कि पटाखे जलाने से ऋतु परिवर्तन के बाद जो मच्छर, पतंगें वगैरह आते हैं, वे मर जाते हैं। लेकिन इस पहलू पर बात नहीं हुई। दीपावली का स्वरूप और भी कई मायनों में बदला है। दीये की जगह अब लोग मोमबत्तियां जलाने लगे हैं। तेल इतना महंगा है। बड़ी मुश्किल से अब फिर मिट्टी के दीये प्रचलन में आ रहे हैं, ताकि कुम्हारों को भी कुछ काम मिले। इसके अलावा ये दीये ‘ऑर्गेनिक’ हैं, जो वापस हमारी मिट्टी में ही मिल जाते हैं। अब तरह-तरह के नए नुस्खे हैं और फिर उन नुस्खों पर वैज्ञानिक विचार। पहले के समय में यह सब नहीं था। दीपावली का पर्व मनाना या नहीं मनाना, तेल के दीये जलाना या नहीं जलाना, होली में रंगों से खेलना या नहीं खेलना, जन्माष्टमी में गोविंदा की हांडी तोड़ना या नहीं तोड़ना, मक्खन खाना या नहीं खाना... हम इतनी सारी परेशानियों के जाल में फंस गए हैं। मैं कहूंगी कि मनगढ़ंत दुर्भावनाओं से बचा जाना चाहिए। अच्छी भावनाओं के साथ चलिए। आनंद लीजिए और आनंद बांटिए। आसपास बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं, जो साधन विहीन हैं, उनके साथ भी आनंद बांटिए। 

अब शायद समय ऐसा है कि जहां से आपका स्वार्थ सिद्ध होता हो, वहां-वहां भाग-भागकर मिठाई के डिब्बे पहुंचाना और मुंह दिखाना आवश्यक हो गया है। लेना ही लेना, यह दे दो, वह दे दो। आपस में मिले भी, तो दूर से ही प्रणाम कर लिया। यही ‘कल्चर’ होता जा रहा है। हमें दीपावली की महत्ता को समझना चाहिए। एक दीपक अंधेरे को हटाता है। यह इस त्योहार का असली अर्थ है, जिसे समझना चाहिए। खूब जी भरकर दीपक प्रगटाओ, मन में मिठास जगाओ, कुछ फूल लेकर बिखेरो, तोरण लटकाओ, ताकि उत्साह, उल्लास, उमंग बढ़े। जीवन में उल्लास नहीं है, तो जीवन बिल्कुल निराशा भरा हो जाता है। इसलिए कामना यही है कि दीपावली आप सभी के लिए शुभ हो, मंगलमय हो। 
    (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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