प्रदूषित हवा के खिलाफ कदम
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2016 के अंत में पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड के अनुपात में रिकॉर्ड वृद्धि हुई। 2015 में यह वृद्धि पिछले दस वर्षों...
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2016 के अंत में पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड के अनुपात में रिकॉर्ड वृद्धि हुई। 2015 में यह वृद्धि पिछले दस वर्षों के औसत वृद्धि अुनपात से लगभग 50 फीसदी ज्यादा दर्ज हुई थी। एक अन्य रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की भी है, जो और भयावह निष्कर्ष पर पहुंचती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016 में हमारे वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा जिस भयावह तरीके से बढ़ी है, वैसा तो पिछले तीस लाख वर्षों में भी नहीं देखा गया। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों के अध्ययनों के निष्कर्ष हमें ऐसी भयावह तस्वीर दिखा रहे हैं, जिसके बाद माना जा सकता है कि अगली सदी में आते-आते हम बहुत ज्यादा बढ़ चुके तापमान के अभूतपूर्व संकट से जूझ रहे होंगे। दिल्ली में इस साल गरमी का विस्तार अक्तूबर के अंत तक महसूस हुआ, जबकि आमतौर पर यह समय मौसम की नमी से सुहावना और सुखद हो चुका होता है। कुछ हालिया अध्ययन बताते हैं कि तेजी से हो रहे शहरीकरण से हमारा वन क्षेत्र लगातार इस तरह घटा कि कार्बन डाई-ऑक्साइड सोखने की उनकी क्षमता भी उसी अनुपात में कम होती गई। जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जैसी तेजी आई है और जैसी अनियोजित-असुरक्षित आर्थिक गतिविधियां हम करते जा रहे हैं, उसने जमीन और महासागरों की कार्बन उत्सर्जन साफ करने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित किया है। ऐसे में, सबसे बड़ी जरूरत कार्बन उत्सर्जन सीमित करने और ऐसी नकारात्मक गतिविधियों को नियंत्रित के प्रति हमारी मजबूत प्रतिबद्धता की है, क्योंकि बिना इसके हम जलवायु परिवर्तन को खतरनाक मोड़ पर ले जाने का रास्ता ही देंगे।
हालांकि 2015 में पेरिस में इस संबंध में पहल हुई और सभी देश जलवायु परिवर्तन के कारकों पर नियंत्रण के लिए प्रतिबद्ध भी दिखे थे, लेकिन बाद में विभिन्न सरकारों के रुख में आई शिथिलता के कारण समझौते की भावना वैसी गति नहीं ले सकी, जैसी दरकार थी। तमाम देश इस दिशा में तयशुदा लक्ष्यों से भटके दिखाई दिए। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण रिपोर्ट के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य और घरेलू प्रतिबद्धताओं के बीच इतना बड़ा अंतर है कि यह पृथ्वी को उस स्तर पर लाकर छोड़ देता है, जहां हम औद्योगिक क्रांति के पहले खड़े थे। यह अत्यंत गंभीर और चिंताजनक स्थिति है। आज भारत उस जगह पर खड़ा है, जहां यह अपने न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन के दृष्टिकोण के साथ स्वच्छ ऊर्जा के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है, कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित कर अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था की जरूरतों को खाद-पानी देने का काम कर सकता है। भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने की दिशा में अपने प्रयासों के प्रति पहले से वचनबद्ध है। हालांकि कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन में सबसे आगे माना जाता है, लेकिन यह स्वच्छ ऊर्जा विकास के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ सकता है, जो न सिर्फ जलवायु के लिए बेहतर होगा, बल्कि सतत विकास की प्रक्रिया में भी सहायक होगा। पेरिस समझौते के तहत भारत को 2022 के अंत तक, स्थापित सौर ऊर्जा के सौ गीगावाट के प्रारंभिक लक्ष्य के साथ स्वच्छ ऊर्जा विस्तार का लक्ष्य प्राप्त करना है। भारत ने 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के क्षेत्र में भी अपनी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत तक बढ़ाने की योजना बनाई है। साथ ही अपना वन आच्छादित क्षेत्र बढ़ाकर कार्बन डाई-ऑक्साइड का स्तर काफी कम करने के लिए भी प्रतिबद्ध है।
भारत के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के पीछे सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति भी है। सरकार ने ऊर्जा दक्षता की दिशा में ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत की है, जो यह सुनिश्चित करेंगे कि 2030 तक आकार लेने वाला भारत का अधिकांश बुनियादी ढांचा टिकाऊ और स्थायित्वपूर्ण हो। भारत ने जिस तरह अक्षय ऊर्जा पर अपना ध्यान केंद्रित किया है, वह कार्बन उत्सर्जन घटाने की इसकी प्रतिबद्धता और नीति का मुख्य आधार बनेगा। भारत ने राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन का भी विस्तार किया है और इसमें 2022 तक स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता के सौ गीगावाट का लक्ष्य है। भारत में सौर ऊर्जा तेजी से सस्ती हो रही है। इस साल मई तक भारत के पास नौ गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता थी, जो अब पवन ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश बन चुका है। इसने कुछ कोयला प्लांट रद्द करने की योजना भी तैयार की है, जो न सिर्फ इसे अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने का अवसर देंगे, बल्कि पेरिस समझौते के तयशुदा की अपेक्षा ज्यादा लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक होगा।
हालांकि भारत अपनी ऊर्जा नीति को लगातार ईंधन तो दे ही रहा है, अपनी ईंधन नीति को भी दीर्घकालिक सफलता के लिए नए लक्ष्य देकर तैयार कर रहा है। 2014 में ही इसने हल्के वाहन की ईंधन दक्षता मानकों के अपने पहले प्रयोग को अंतिम रूप दे दिया था, जो अप्रैल 2017 में लागू भी हो गया। नए वाहनों की ईंधन दक्षता निर्धारित करने का यह महत्वपूर्ण प्रयोग था। भारत सरकार ने राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मिशन मोबेलिटी योजना 2020 की स्थापना 2013 में ही कर दी थी। इसके तहत भारी उद्योग विभाग ने इलेक्ट्रिक वाहन निर्माण की दिशा में महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की। इस योजना का मकसद हाइब्रिड-इलेक्ट्रिक वाहन के बाजार को बढ़ावा देना है, जिसके अंतर्गत 2020 तक प्रति वर्ष छह-सात लाख वाहन तैयार करने का लक्ष्य है।
भारत सरकार ने 2010 में कोयला उपयोग पर टैक्स लगाया था, जिसका एक मकसद कोयला आधारित ऊर्जा (तापीय ऊर्जा) को हतोत्साहित करना भी था। इसी टैक्स को अब स्वच्छ पर्यावरण सेस का नाम दिया गया, और जिसे बढ़ाकर अब चार सौ रुपये प्रति टन कर दिया गया है। इससे आने वाली राशि राष्ट्रीय स्वच्छ पर्यावरण कोष में जाती है, जो अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। अब जब अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें बता रही हैं कि बाकी सब जगह से वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड बढ़ने की ही खबरें हैं, तब भारत इस दिशा में वृद्धि दर कम होता दिखा रहा है। भारत में ऊर्जा, परिवहन व जंगल जैसे क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के बारे में सोचने वाली अंतरविभागीय नीतियों के सहारे बड़ा काम करके जलवायु परिवर्तन की दिशा में सकारात्मक नतीजे देने के पर्याप्त अवसर हैं। अपने इन्हीं तत्वों से सहारे यह लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में एक नेतृत्वकारी भूमिका में उभर रहा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)