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रुश्दी की किताब और पाबंदी की संस्कृति

सलमान रुश्दी का मामला 1988-89 की सर्दियों में खासी गरमी पैदा कर गया था। रुश्दी का उपन्यास सैटेनिक वर्सेज  ताजा-ताजा आया था और रूढ़िवादी मुसलमानों ने इसे पैगंबर का अपमान बताते हुए इसकी आलोचना शुरू...

रुश्दी की किताब और पाबंदी की संस्कृति
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 13 Oct 2017 10:48 PM
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सलमान रुश्दी का मामला 1988-89 की सर्दियों में खासी गरमी पैदा कर गया था। रुश्दी का उपन्यास सैटेनिक वर्सेज  ताजा-ताजा आया था और रूढ़िवादी मुसलमानों ने इसे पैगंबर का अपमान बताते हुए इसकी आलोचना शुरू कर दी थी। ईरान के कट्टरपंथी धार्मिक नेता अयातुल्लाह खमैनी ने तो रुश्दी की जान लेने का फतवा ही जारी कर दिया था। रुश्दी को जन्म देने वाले भारत में यह किताब बैन हो गई और इंग्लैंड में, जहां पर रुश्दी रह रहे थे, यह जगह-जगह जलाई जा रही थी। धमकियां ऐसी कि रुश्दी को एक लंबे समय तक ब्रिटिश पुलिस के संरक्षण में छिपकर रहना पड़ा। इस मामले पर पहले ही काफी-कुछ लिखा जा चुका है। पर हाल में ब्रिटिश अभिलेखागार में कुछ खंगालते हुए मुझे इस संदर्भ में महत्वपूर्ण, लेकिन दिलचस्प दस्तावेज हाथ लगा, जो अब भुलाया जा चुका है। यह दस्तावेज सलमान रुश्दी के खिलाफ खमैनी के फतवे से भी पचास साल पहले एक ब्रिटिश लेखक के मुस्लिम कट्टरपंथियों का निशाना बनने के घटनाक्रम की बात याद दिलाता है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें। 1930 तक इंग्लैंड में महज कुछ हजार मुसलमान ही थे। इन्हें अपनी बात कहने के लिए किसी मंच की जरूरत महसूस हुई और यह काम लंदन में रहने वाले भारतीय मुसलमानों के संगठन जमात-उल-मुसलमीन ने पूरा किया। लंदन पुलिस के रिकॉर्ड के अनुसार, एचजी वेल्स की किताब ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द वल्र्ड  अगस्त 1938 में इसी जमात-उल-मुसलमीन की एक विशेष बैठक के बाद जलाई गई थी।

हालांकि एचजी वेल्स की किताब 1922 में ही प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन संक्षिप्त संस्करण उन दिनों (1938 में) हिन्दुस्तानी में अनुवाद होकर आया था, जिसके बाद कोलकाता व भारत के कई शहरों और फिर लंदन में भी इसका विरोध शुरू हो गया था। आरोप था कि किताब में मोहम्मद साहब और पवित्र कुरान  के बारे में कुछ आपत्तिजनक है। इसकी प्रतियां जलाई गईं और जमीयत-उल-मुसलमीन के एक नेता मोहम्मद बख्श इंग्लैंड में भारत के उच्चायुक्त सर फीरोज खान नून से औपचारिक सामूहिक विरोध दर्ज कराने के लिए समय लेने के मकसद से मिले।
उच्चायुक्त ने उन्हें समझाया कि ब्रिटेन जैसे देश में ऐसे किसी विरोध का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि ‘यह एक ऐसा देश है, जहां लोग ईसाई धर्म और जीसस क्राइस्ट तक की आलोचना करते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो शाही परिवार और किंग तक की आलोचना से बाज नहीं आते, और वहां किसी को इन बातों की परवाह तक नहीं होती।’ मोहम्मद बख्श इस बात से संतुष्ट नहीं थे। दो दिन बाद उन्होंने 500 मुसलमानों के साथ इंडिया हाउस तक मार्च कर भारतीय उच्चायुक्त को एचजी वेल्स की कड़ी निंदा करता हुआ ज्ञापन सौंपा, जिसमें वेल्स से न सिर्फ आपत्तिजनक बातें किताब से हटाने, बल्कि सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने को भी कहा गया था। 

उच्चायुक्त ने वह ज्ञापन भारतीय विदेश सचिव मार्केस ऑफ जेटलैंड को भेज दिया, जिस पर उनका जवाब था कि मुसलमानों की भावनाओं को पहुंची ठेस के लिए उन्हें खेद है, लेकिन ‘इस देश में अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह संभव नहीं है कि मैं उस या उन पंक्तियों को बदलने या संशोधित करने के लिए कह सकूं, जिसकी आप बात कर रहे हैं’। उन्होंने वह ज्ञापन एचजी वेल्स के प्रकाशक पेंग्विन बुक्स को भेज दिया, लेकिन पेंग्विन के मालिक एलेन लेन ने भी ‘लेखक की अनुमति के बगैर उसके काम में संशोधन करने’ में असमर्थता जता दी।
इस बीच हिंदू  के लंदन संवाददाता बी शिवाराव ने पूरे विवाद पर वेल्स से बात की। वेल्स का कहना था कि किताब में पैगंबर को लेकर उनके विश्लेषण में कुछ भी ‘अप्रासंगिक’ नहीं है और यह भी कि विश्व की संस्कृति में इस्लाम के योगदान से वे भली-भांति परिचित और सहमत हैं। उनका कहना था कि कुछ बातों को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत किए जाने से यह विवाद उत्पन्न हुआ है, जो तर्कसंगत नहीं है। वेल्स काफी हद तक सही थे। 

इस विवाद का एचजी वेल्स की प्रमुख जीवनियों में कहीं जिक्र तक नहीं मिलता। शायद वेल्स के लिए यह छोटा मामला रहा हो, लेकिन मैं समझता हूं कि इसकी चर्चा होनी चाहिए। इसलिए भी कि यह काफी बाद में आए सलमान रुश्दी प्रकरण जैसे अत्यंत गंभीर मामले के पूर्वावलोकन जैसा भी है। मुझे नहीं लगता कि जमीयत-उल-मुसलमीन, लंदन के ज्यादातर लोगों ने एचजी वेल्स की किताब ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द वल्र्ड  पढ़ी भी होगी, और इस बात से तो कोई भी आश्वस्त होगा कि ब्रैंडफोर्ड में रुश्दी की किताब जलाने से लेकर कराची या दिल्ली में प्रदर्शन करने वालों में से ज्यादातर ने द सैटेनिक वर्सेज  कतई नहीं पढ़ी होगी। दोनों ही मामलों में कट्टरपंथियों ने अपनी सुविधा से कुछ अंश निकाले और लेखक व किताब को बड़ी आसानी से कठघरे में खड़ा कर दिया।

1938 में वेल्स की किताब रही हो या 1989 में रुश्दी की किताब का मामला, कोई भी आसानी से कह जाता है कि मुसलमानों के साथ ही यह सब क्यों होता है, यानी वे कुछ ज्यादा ही रिएक्ट करते हैं। हिंदू तो आमतौर पर ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहे हैं। लेकिन अब वैसा नहीं है। राजस्थान में एक जाति विशेष का नाम लेकर फिल्म का सेट बर्बाद करने की घटना रही हो या शिवाजी पर लिखने वाले एक अमेरिकी शोधार्थी का भारत प्रवेश ही बैन कर देने का मामला, हिंदू कम आक्रामक नहीं। हम तो यही सोचते बड़े हुए हैं कि राम और कृष्ण में भी जरूर कुछ दोष रहे होंगे, लेकिन अब यह भी बीते दिनों की बातें हैं। अब तो सच है कि यदि कोई इन या ऐसे मुद्दों पर लिखना, बोलना या फिल्म बनाना चाहे, तो उसे अपनी जीवन बीमा पॉलिसी पहले ही ले लेनी चाहिए।

अंत में एक बात और, जिसका फैसला मैं पाठक पर ही छोड़ना चाहूंगा। वह यह कि हमारे पूर्व उपनिवेशवादियों के देश में तो देवताओं और शासकों का मजाक बनाना आम बात है और वहां इस पर न कोई किताब जलाई जाती है न फिल्म बैन होती है। किसी भी दल की हो वहां सरकार, वह आज भी लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है और उसकी रक्षा करती है। मानना होगा कि कम से कम इस मामले में तो वे लोग कहीं ज्यादा सहिष्णु, ज्यादा उदार हैं।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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