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विवादों के सिंधु से कलवरी का निकलना

मझगांव डॉक शिपयार्ड ने स्कॉर्पिन श्रेणी की पहली पनडुब्बी कलवरी गुरुवार को भारतीय नौसेना को सौंप दी। उम्मीद की जा रही है कि इसे अक्तूबर में कमीशन किया जाएगा, तब इसके नाम के आगे बाकायदा आईएनएस जुड़...

विवादों के सिंधु से कलवरी का निकलना
सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसाइटी ऑफ पॉलिसी स्टडीजFri, 22 Sep 2017 11:43 PM
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मझगांव डॉक शिपयार्ड ने स्कॉर्पिन श्रेणी की पहली पनडुब्बी कलवरी गुरुवार को भारतीय नौसेना को सौंप दी। उम्मीद की जा रही है कि इसे अक्तूबर में कमीशन किया जाएगा, तब इसके नाम के आगे बाकायदा आईएनएस जुड़ जाएगा। कलवरी नाम टाइगर शार्क से लिया गया है, और यह नौसेना के लिए एक ऐतिहासिक मौका है। दरअसल, देश की पहली पनडुब्बी का नाम भी इससे जुड़ा है। फॉक्सट्रॉट सीरीज की वह पनडुब्बी तत्कालीन सोवियत संघ से हासिल की गई थी और दिसंबर, 1967 में उसे कमीशन किया गया था। वर्ष 1996 में उसे तैनाती से बाहर कर दिया गया।

भारत में स्कॉर्पिन प्रोजेक्ट की शुरुआत साल 2005 में फ्रांस और स्पेन की ज्वॉइंट वेंचर कंपनी आर्मरीज के सहयोग से हुई। इसने हमें अपनी पहली पनडुब्बी सौंपने में 12 साल का वक्त लिया। इतना समय इसलिए भी लगा कि फ्रांसीसी आपूर्तिकर्ता और भारतीय खरीदार के बीच कॉन्ट्रैक्ट संबंधी दायित्वों को लेकर कुछ मतभेद थे। हम पिछले साल के अगस्त महीने को याद कर सकते हैं, जब इससे जुड़े डाटा के लीक होने की खबर आई। उस वक्त एक ऑस्ट्रेलियाई अखबार ने चुनिंदा संवेदनशील और गोपनीय डाटा सार्वजनिक किए थे। हालांकि बाद में यह कहा गया कि इस प्रोजेक्ट से जुड़ी फ्रांसीसी कंपनी डीसीएनएस के एक पुराने कर्मचारी ने संभवत: ये डाटा चुराए थे।

बहरहाल, काफी देर से ही सही, कलवरी के सौंपे जाने का स्वागत किया जाना चाहिए। इसकी वजह यह है कि भारतीय नौसेना पानी के अंदर अपने सामरिक ठिकानों की कमी से बुरी तरह जूझ रही है। इससे पहले उसे अंतिम पनडुब्बी लगभग 17 साल पहले साल 2000 में सिंधुघोष सीरीज की मिली थी। स्वाभाविक तौर पर यह अंतराल काफी लंबा माना जाएगा। कुछ हादसों ने भी भारतीय पनडुब्बी की ताकत को चोट पहुंचाई है।


कलवरी 1,565 टन की एक अति-आधुनिक गैर-परमाणु पनडुब्बी है, जिसकी सबसे उल्लेखनीय खासियत रडार से बच निकलने की क्षमता है। पनडुब्बियों को मुख्यत: इसी आधार पर आंका जाता है कि वे दुश्मन की नजर से किस तरह छिपी रह सकती हैं। इसके बाद बारी आती है, पानी में उनके डूबे रहने की क्षमता, उनके आकार की और आगे चलने के लिए इंजन को चलाते वक्त उनसे निकलने वाली आवाज की। कलवरी में न सिर्फ दुश्मन की निगाह से बचे रहने की बेहतरीन तकनीक लगी है, बल्कि यह कम से कम शोर पैदा करे, इसका भी पर्याप्त ध्यान रखा गया है। साथ ही, यह ‘दुश्मन की कमर तोड़ सकने वाला सटीक हमला करने में भी काफी दक्ष’ है। 


इस पहली फ्रांसीसी स्कॉर्पिन को पूरी तरह से संचालित और शामिल कर लेने के बाद भारतीय नौसेना के पास तीन तरह की पारंपरिक पनडुब्बियां हो जाएंगी। पहली और सबसे पुरानी है सिंधुघोष सीरीज की पनडुब्बी, जो सोवियत संघ से 1986 की शुरुआत में ली गई थी। इस सीरीज की अंतिम पनडुब्बी सन 2000 में सेना में कमीशन हुई। दूसरी वे पनडुब्बियां हैं, जिन्हें 1986 में काफी साहसिक फैसला लेते हुए भारत सरकार ने पश्चिम जर्मनी से खरीदा था। इन्हें एचडीडब्ल्यू टाइप 209 सीरीज के नाम से जाना जाता है। इनमें से दो आयात की गई थीं और बाकी दो भारत के मझगांव डॉक में बनीं, जिसे भारत का पहला महत्वपूर्ण ‘मेक इन इंडिया’ प्रोजेक्ट भी कहा जा सकता है। हालांकि इस दौरान भ्रष्टाचार का मामला भी उठा, नतीजतन पूरा एचडीडब्ल्यू प्रोजेक्ट अधर में लटक गया। वह दौर देश में पनडुब्बियों के विकास के लिहाज से सुखद नहीं था, पर भारत ने मॉस्को और सिंधुघोष सीरीज की पनडुब्बियों पर भरोसा बनाए रखा।

भारत जैसे देश के लिए पनडुब्बियां काफी मायने रखती हैं। ये सामरिक स्तर पर ‘सी-डिनाइअल’ (दुश्मन की क्षमताओं को अंगूठा दिखाने के लिए कही जाने वाली सैन्य शब्दावली) भूमिकाओं के लिए इस्तेमाल की जाती हैं और हर दुनिया की प्रमुख नौसेना इस क्षमता को हासिल करने के लिए अच्छा-खास निवेश करती है। 


परमाणु पनडुब्बियां दो तरह की होती हैं। परमाणु क्षमता वाली पनडुब्बी को एसएसएन कहा जाता है और नाभिकीय शीर्षयुक्त बैलिस्टिक मिसाइल से लैस कर दिए जाने के बाद यह एसएसबीएन कहलाती है। ऐसी पनडुब्बी सामरिक तौर पर सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यह हर बड़े देश के पास मौजूद है। हमारे यहां भी आईएनएस अरिहंत है, जो एसएसबीएन है। दुर्भाग्य से एचडीडब्ल्यू-बोफोर्स घोटाले के कारण कई बडे़ रक्षा सौदे वर्षों तक अपने अंजाम पर नहीं पहुंच सके और भारतीय नौसेना की पनडुब्बी हासिल करने की योजनाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं। जबकि भारतीय नौसेना की जरूरतों के मद्देनजर हर दो साल पर एक पारंपरिक पनडुब्बी हमारे बेड़े में शामिल होनी ही चाहिए। हमारे यहां इस अंतराल का 17 साल लंबा होना संकेत है कि योजना और अधिग्रहण प्रक्रिया के मोर्चे पर हम कितने कमजोर रहे हैं? उम्मीद है कि नई रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन पनडुब्बी हासिल करने की पूरी प्रक्रिया की समीक्षा करेंगी और सुनिश्चित करेंगी कि अगली पनडुब्बी तय समय पर हमारे बेड़े में जरूर शामिल हो जाए। 


जिन देशों के सामने तमाम तरह की चुनौतियां हों, उनकी समग्र सैन्य क्षमता का एक महत्वपूर्ण आधार पनडुब्बी होती है। चीन इसे बखूबी समझ चुका है, इसलिए वह अजेय पनडुब्बी ताकत की ओर बढ़ रहा है। उसके बेड़े में 70 से अधिक पनडुब्बियां हैं, जो परमाणु क्षमता वाली हैं और पारंपरिक भी। चीनी नौसेना को हर तीन साल में एक पनडुब्बी मिल जाती है, जिसकी एक वजह जहाज-निर्माता के रूप में चीन द्वारा की गई उल्लेखनीय प्रगति भी है। हमारे यहां स्थिति अलग है। लागत और देरी इसमें बड़ी बाधाओं के रूप में सामने आई हैं। अनुमान है कि भारतीय शिपयॉर्ड चीन या दक्षिण कोरियाई शिपयार्ड की तुलना में किसी पनडुब्बी को बनाने में दोगुना वक्त लेते हैं।

कुल मिलाकर, माना जाना चहिए कि कलवरी का बेड़े में शामिल होना मोदी सरकार के लिए एक सबक जैसा है और इसे आगे के लिए एक बेंचमार्क के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मौजूदा स्कॉर्पिन कॉन्ट्रैक्ट 2020 में खत्म होना है, जब हम तीसरी पनडुब्बी हासिल कर रहे होंगे। स्कॉर्पिन सीरीज के बाद की दशा और दिशा क्या होगी, यह मोदी सरकार को अगले चुनाव में उतरने से पहले ही तय कर लेना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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