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महाराजा को बेचने की हवाई कवायद

पिछले कुछ दिनों से एअर इंडिया को निजी हाथों में बेचने की खबरें चर्चा में हैं। यह एयरलाइन लंबे समय से घाटे में है और सरकार से मिली आर्थिक मदद के बल पर चल रही है। नीति आयोग तो पहले ही इसके पूर्ण...

महाराजा को बेचने की हवाई कवायद
हर्षवर्द्धन, पूर्व प्रबंध निदेशक, वायुदूतFri, 23 Jun 2017 10:59 PM
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पिछले कुछ दिनों से एअर इंडिया को निजी हाथों में बेचने की खबरें चर्चा में हैं। यह एयरलाइन लंबे समय से घाटे में है और सरकार से मिली आर्थिक मदद के बल पर चल रही है। नीति आयोग तो पहले ही इसके पूर्ण निजीकरण का सुझाव दे चुका है। मगर सच यह भी है कि एअर इंडिया के साथ भारतीयों का काफी ज्यादा भावनात्मक लगाव है। इसे वे देश की साख के साथ जोड़कर देखने के अभ्यस्त रहे हैं। ऐसे में, इस एयरलाइन का निजीकरण भले ही सरकार का एक नीतिगत फैसला होगा, मगर आम भारतीय जनमानस इसे आसानी से स्वीकार कर लेगा, यह नहीं कहा जा सकता।

मुश्किल यह है कि वर्तमान प्रबंधन एअर इंडिया का संचालन संभाल नहीं पा रहा है। कई बड़ी खामियां उसके अंदर हैं, जिनको यह सरकार भी दूर नहीं कर पा रही है। इस संगठन की कार्य-कुशलता इसलिए भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि पिछले तीन वर्षों में इसे 30 हजार करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया है और उड्डयन उद्योग की हालत भी अपेक्षाकृत बेहतर है, फिर भी यह संगठन सफेद हाथी बना हुआ है। सवाल यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? एक विकल्प यह है कि इसके प्रबंधन को दुरुस्त किया जाए और इसका संचालन फायदेमंद बनाया जाए। मगर दुर्भाग्य से ऐसा करने में देश की तमाम सरकारें विफल साबित हुई हैं। कठघरे में सिर्फ मौजूदा सरकार नहीं है, पूर्व की सरकारों की भी यही कहानी रही। एअर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स के विलय के बाद पैदा हुई परिस्थितियों का लाभ उठाने में वे विफल रहीं। तब इसकी क्षमता 40 फीसदी तक बढ़ी थी और यात्रियों का परिवहन भी 20 फीसदी बढ़ा था। बेशक इसकी भरपायी पैकेज देकर की गई, मगर इससे जुड़े महत्वपूर्ण फैसलों पर कलम तो सरकार ही चलाती है। 

अभी एअर इंडिया पर 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज है। इसका सालाना ब्याज ही करीब दो हजार करोड़ रुपये बैठता है। इसकी कुल संपत्ति का आकलन करें, तो इसे बहुत खराब स्थिति में नहीं कहा जाएगा। फिर सरकार क्यों नहीं इसे संभाल पा रही है? इसका निजीकरण भी कोई आसान काम नहीं है। एक बड़ी समस्या निजीकरण संबंधी नियमों व शर्तों को अब तक सार्वजनिक न किया जाना है। यही नहीं, एअर इंडिया राष्ट्रीय गौरव व जरूरतों को समेटे हुए है। यही वह विमान सेवा है, जो आपात स्थितियों में सरकार की मदद करती है। चाहे दूसरे देशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने की बात हो या फिर बाढ़ या अन्य आपदाओं में फंसे लोगों को निकालने की। अभी क्षेत्रीय संपर्क की महत्वाकांक्षी योजना को साकार करने का जो सपना केंद्र सरकार देख रही है, उसमें एअर इंडिया विमानन कंपनी ही मुख्य भूमिका निभाती दिख रही है। ऐसे में, निजीकरण की पश्चिमी नीति हम नहीं अपना सकते। महज बही-खातों के आधार पर इसे निजी हाथों में नहीं बेचा जा सकता।

सवाल यह भी है कि निजी हाथों में इसे बेचकर आखिर सरकार क्या हासिल करना चाहती है? आखिर इसे किस कंपनी या समूह को बेचा जाएगा? यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि निजी क्षेत्र ने किस कदर एनपीए (बैंकों का कर्ज, जिसे बैंक वापस हासिल करने में नाकाम साबित हुए हैं) बढ़ाया है। स्थिति यह है कि कोई चार हजार करोड़ रुपये की कंपनी है और उसने 17 हजार करोड़ रुपये कर्ज ले रखे हैं। ऐसे में, यदि उन्हीं कंपनियों या समूहों में से किसी का चुनाव किया जाता है, तो हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। जबकि इन कंपनियों या समूहों को चुनना मजबूरी भी होगी, क्योंकि वही एयरलाइन को चलाने की क्षमता रखते हैं; छोटी कंपनियों की तो ऐसी हैसियत भी नहीं है। लिहाजा, जब ऐसी कंपनी को ही एअर इंडिया सौंपना है, जो पहले से ही कर्ज में डूबी हुई है और बाद में उसे राहत पैकेज देने की योजना है, तो फिर एअर इंडिया को ही क्यों न राहत देकर उबारा जाए? यदि विदेशी कंपनियों के हाथों में इसे दिया जाता है, तो कहीं न कहीं राष्ट्रीय गौरव और सुरक्षा से हम समझौता करते दिखेंगे, जो आदर्श स्थिति नहीं होगी।

दिक्कत यह है कि सरकारें अपने अनुभवों से भी नहीं सीखतीं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने एअर इंडिया के विनिवेश की बात कही थी। शुरुआत में काफी लोगों ने इसमें रुचि दिखाई, पर जब कवायद पूरी हुई, तो सभी पीछे हट गए। हालांकि, उस वक्त एअर इंडिया की हालत काफी अच्छी थी, और इस क्षेत्र में किसी तरह की प्रतिस्पद्र्धा नहीं होने के कारण उड्डयन क्षेत्र में उसका एक तरह से साम्राज्य था। जब उस वक्त कंपनियां आगे नहीं आईं, तो आज की गारंटी कौन लेगा? लिहाजा अभी उड़ रही तमाम खबरों को अफवाह ही माना जा सकता है। 

मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो चुके हैं, और सरकारों का आखिरी वर्ष पूरी तरह अगले चुनाव को समर्पित होता है, इस लिहाज से अब इस सरकार के पास काम करने के लिए सिर्फ एक साल का वक्त है। इस एक साल में यदि एअर इंडिया के निजीकरण को लेकर तमाम कार्रवाइयां पूरी नहीं की जाएंगी, तब भी मामला हवा में ही रहेगा। आखिरी वर्ष में सरकार ऐसे फैसले लेने से कतराएगी, जो विवाद पैदा करे। एअर इंडिया का निजीकरण विवाद को न्योता दे सकता है।

अब देश में हवाई जहाज से यात्रा करने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ईंधन की वैश्विक कीमतें भी कम हुई हैं। यानी एअर इंडिया को फायदे में लाने के लिए यह एक आदर्श स्थिति है। चूंकि यह स्थिति लंबे समय तक कायम नहीं रहने वाली, इसलिए इसके प्रबंधन को हम यदि दुरुस्त कर लें, तो तस्वीर बदल सकती है। वैसे भी, निजीकरण करने के लिए एअर इंडिया का संचालन हमें दुरुस्त करना ही होगा, और जब इसका संचालन दुरुस्त कर ही लिया जाएगा, तो फिर इसे निजी हाथों में बेचने की जरूरत भला कहां रहेगी?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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