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Hindi News ओपिनियन मेरी कहानीक्या कर सकते हैं यही जिंदगी है

क्या कर सकते हैं यही जिंदगी है

टॉम ऑल्टर मेरे करीबी दोस्त हैं। वह खुद एक बेहतरीन अभिनेता हैं। हम थिएटर भी साथ करते हैं। हम दोनों में आए दिन राजेश खन्ना को लेकर बहस होती है, क्योंकि मैं राजेश खन्ना को अभिनेता मानता ही नहीं हूं और...

क्या कर सकते हैं यही जिंदगी है
नसीरुद्दीन शाह, मशहूर अभिनेताSat, 19 Aug 2017 11:10 PM
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टॉम ऑल्टर मेरे करीबी दोस्त हैं। वह खुद एक बेहतरीन अभिनेता हैं। हम थिएटर भी साथ करते हैं। हम दोनों में आए दिन राजेश खन्ना को लेकर बहस होती है, क्योंकि मैं राजेश खन्ना को अभिनेता मानता ही नहीं हूं और टॉम राजेश खन्ना बनने के लिए ही मुंबई आए थे। न वह अपनी बात से हटने को तैयार होते हैं और न मैं हार मानने को तैयार होता हूं। सब अपनी-अपनी पसंद की बात है। एक्टिंग को लेकर आज तक कोई सही मापदंड तो बना नहीं है। कोई ऐसा तराजू तो है नहीं, जिसमें आप बुरी एक्टिंग के मुकाबले अच्छी एक्टिंग को तोल सकते हों। इसलिए जिसकी जो भी राय है, वह सही है। 

कुछ मौके ऐसे भी आए, जब मुझे अपने ही रोल पर पछतावा हुआ। इस बात पर नहीं कि मैंने यह फिल्म क्यों की, बल्कि इस बात पर कि मैं जैसी फिल्म सोच रहा था, वैसी बन नहीं पाई। फिल्म की तो मैंने अपनी मर्जी से ही थी, किसी ने मुझे पिस्तौल दिखाकर तो कहा नहीं था कि तुम्हें यह फिल्म करनी ही है। मैंने सब  फिल्में अपनी मर्जी से चुनीं। इस उम्मीद के साथ कि शायद यह अच्छी बन जाए। कई अच्छी बन पाईं, तो कई नहीं बन पाईं। एक बार मैं एक फिल्म में पुलिस वाले का रोल कर रहा था। उसमें तीन गैंगस्टर होते हैं। वे तीनों गैंगस्टर एक रोज मेरे ऑफिस आते हैं और मुझे धमकी देकर चले जाते हैं कि तुम अपने आप को बहुत ईमानदार समझते हो, हम तुम्हें देख लेंगे। तीनों भाइयों के डायलॉग होते हैं- छोटे-छोटे। हिंदी फिल्मों में इस तरह के डायलॉग को ‘क्लैप-क्लैप’ कहा जाता है, यानी ऐसे डायलॉग, जिस पर खूब तालियां बजती हों। इस सीन के शूट होने के बाद प्रोड्यूसर ने कहा कि अब ब्रेक ले लेते हैं और इतनी देर में आप लोग खाना खा लीजिए। मैं अभी खाना खाने बैठा ही था कि प्रोड्यूसर मेरे पास आया और कहने लगा कि हमें यह सीन दोबारा शूट करना पड़ेगा। मैंने पूछा कि क्यों क्या हुआ? अच्छा तो शूट हुआ था। प्रोड्यूसर ने बताया कि वे जो तीन कैरेक्टर थे मेरे दफ्तर में बैठे हुए, उनमें से एक कैरेक्टर की बैठे-बैठे मौत हो गई थी। उस वक्त जिन्होंने उस फिल्म को लिखा था, वह लेखक साहब भी सेट पर ही मौजूद थे। उन्होंने भी जब सीन शूट हुआ था, तब बहुत तालियां बजाई थीं, पर जब सीन खत्म हो गया, तब पता चला कि अरे, यह तो गलती हो गई। इसके बाद जहां तक मुझे याद है कि उस गलती को सुधारा भी नहीं गया। मैंने ऐसी फिल्में भी की हैं। क्या कर सकते हैं? हर बार आपकी ‘इस्टिंक्ट’ सही ही हा, ऐसा तो नहीं हो सकता। मेरे ख्याल से कलाकारों को ‘इस्टिंक्ट’ पर ही फिल्मों को चुनना होता है। कोई भी ्क्रिरप्ट पढ़कर आप तय नहीं कर सकते कि यह कैसी फिल्म बनेगी? यह फैसला पासा फेंकने जैसा है। कभी-कभी डाइस सही पड़ता है, कभी नहीं पड़ता। अब आप अ वेडनसडे  फिल्म को ही ले लीजिए, जो मेरे करियर की सबसे अच्छी फिल्मों में एक है। उसे करने से पहले मैं उसके डायरेक्टर से कभी मिला तक नहीं था। उन्हें जानता भी नहीं था। उन्होंने उससे पहले ऐसा कोई काम भी नहीं किया था। ऐसे ही खुदा के लिए   जो पाकिस्तानी फिल्म थी, उसे मैं अपने करियर की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक मानता हूं। फिल्म कैसी बनेगी, इस पर कोई कुछ नहीं कह सकता है। हां, फिल्मों को पसंद करने का काम आपका होता है। इसमें कोई भी आपकी मदद नहीं करता। यह खुद ही करना पड़ता है। 

मुझे फारूख शेख और ओम पुरी पर बहुत गुस्सा आता है। स्मिता, फारूख और ओम पुरी, तीनों पर कि उन्होंने अपना ख्याल क्यों नहीं रखा? स्मिता का तो खैर मेडिकल हादसा था , मगर फारूख व ओम ने अपनी सेहत के साथ लापरवाही की। उन्हें समझना चाहिए था कि उनकी कितनी जरूरत थी। दोनों मेरे बड़े अजीज थे। भाई से भी बढ़कर। फारूख मियां के साथ मेरी नोक-झोंक बहुत होती थी। बेहतरीन एक्टर होने के साथ वह बहुत मीठे इंसान थे। मैं और वो अगर कोई सीन साथ में कर रहे हों, तो हमेशा यही बाजी लगती कि देखें कि इस सीन में कौन बेहतर चाल चल सकता है? कौन बेहतर एक्टिंग कर सकता है? यह सिर्फ एक किस्म का मजाक था, क्योंकि मेरे और फारूख में किसी तरह का कोई कॉम्पिटीशन नहीं था। हमें एक तरह के रोल के लिए कभी ‘कंसीडर’ नहीं किया जाता था। ओम के साथ फिर भी ऐसा था कि हम दोनों एक ही तरह के रोल के लिए ‘कंसीडर’ किए जाते थे, लेकिन फारूख और मेरे साथ ऐसा नहीं था। इन सबके जाने का अफसोस करने के सिवाय अब कुछ कर नहीं सकते। अगर ये सब इस वक्त होते, तो इनकी कितनी ‘डेवलपमेंट’ हुई होती? उनके साथ काम करने में कितना मजा आता? कई अच्छी फिल्में बनतीं। लेकिन क्या कर सकते हैं, यही जिंदगी है। 

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