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मेरे लिए मेघदूत जियारत की जगह

पढ़ाई में मेरी हालत बहुत खराब थी। बिल्कुल दिल ही नहीं लगता था। न ही मैं लगाने की कोशिश करता था। मैंने आठवीं क्लास में ही सिगरेट पीना सीखा था। उस साल का भी रिजल्ट कार्ड मेरे पास रखा होगा। उसके मुताबिक...

मेरे लिए मेघदूत जियारत की जगह
नसीरुद्दीन शाह मशहूर अभिनेताSat, 29 Jul 2017 10:23 PM
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पढ़ाई में मेरी हालत बहुत खराब थी। बिल्कुल दिल ही नहीं लगता था। न ही मैं लगाने की कोशिश करता था। मैंने आठवीं क्लास में ही सिगरेट पीना सीखा था। उस साल का भी रिजल्ट कार्ड मेरे पास रखा होगा। उसके मुताबिक मैं क्लास में 50वीं पोजीशन पर था। मेरी क्लास में कुल 50 बच्चे ही थे। इसी बीच बाबा का ट्रांसफर अजमेर हो गया। उनका रिटायरमेंट भी करीब था। उन दिनों रिटायरमेंट की उम्र 50 साल हुआ करती थी। अजमेर मुझे बहुत पसंद था। वहां ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। बाबा को वहां का प्रशासनिक अधिकारी बना दिया गया। उनके पैसे भी बढ़ गए थे। तब बाबा ने खुश होकर एक रेडियो खरीदा था। बचपन में कुछ कविता-कहानियों के अलावा मुझे क्रिकेट का जबर्दस्त चस्का था। तब आज की तरह बहुत ज्यादा मैच नहीं खेले जाते थे। मैंने कुछ मैच भी खेले, क्रिकेटर बनने का ख्याल भी आया, लेकिन परेशानी यह थी कि न तो कभी किसी ने मुझे बताया और न ही मैं खुद से समझ सका कि मैं कैसा खिलाड़ी हूं? मुझे इतना जरूर याद है कि प्रभात कपिल नाम के एक लड़के ने एक बार मैच में हैट्रिक ली थी और मैं उसका तीसरा शिकार था। मैं हर हफ्ते मिलने वाली पॉकेट मनी से स्पोर्ट्स ऐंड पास्टाइम  नाम की एक मैगजीन खरीदा करता था।

जब मैं बड़ा हुआ, तब जाकर कहीं पढ़ाई मेें थोड़ा ध्यान लगाना शुरू किया। तब नतीजे भी पहले से बेहतर आने लगे। मैंने अलीगढ़ में पढ़ाई की। वहां पर तीन साल रहकर ही मैंने अपनी जुबान सीखी, क्योंकि उससे पहले मैं अंग्रेजी स्कूलों में था। वहां हर किसी से उर्दू बोलनी पड़ती थी। इससे उर्दू में मेरी थोड़ी रवानी बढ़ गई, जिसका बाद में बहुत फायदा हुआ। वहां जाहिदा जैदी साहिबा थीं, जो इंग्लिश डिपार्टमेंट में थीं और मुनीबुर रहमान साहब इस्लामिक स्टडी में थे। ये दोनों ही लोग ड्रामा के बेहद शौकीन थे और इन दोनों ने मेरी बहुत हौसला अफजाई की। अलीगढ़ ने मुझे जो कुछ दिया, वह एक खजाना है। अलीगढ़ से ग्रेजुएशन के बाद ही मैं नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा गया था। उसके बाद मेरी जिंदगी में थिएटर और एक्टिंग बहुत बड़ी भूमिका में आ गए।  

अलीगढ़ में ही मेरी मुलाकात पहली पत्नी से हुई थी। परवीन तब 34 साल की थीं, जब मैं उनसे मिला, वह एमबीबीएस का उनका आखिरी साल था। वह मुझसे 14  साल बड़ी थीं। उनको यूनिवर्सिटी में सब लोग जानते थे। परवीन ने पहले बीएससी किया था। फिर एजुकेशन में ग्रेजुएशन और उसके बाद एमबीसीएस। वह पाकिस्तानी नागरिक थीं। उनका बचपन कराची में अपने पिता के साथ बीता था और बाद में वह अलीगढ़ में अपनी मां के साथ रहकर पढ़ाई कर रही थीं। भारत में बने रहने के लिए वह एक के बाद एक कोर्स करती जा रही थीं। धीरे-धीरे दोस्ती गहराती गई और हम लगभग हर शाम मिलने लगे। बाद में हम दोनों ने शादी का फैसला किया। यह फैसला हर किसी को पसंद नहीं था, पर हमने शादी की। मैं दिल्ली में था, जब मुझे टेलीग्राम से जानकारी मिली कि परवीन मां बनने वाली हैं। जब तक मैं पहुंचा, हीबा का जन्म हो चुका था। बाद में निजी वजहों से मैं और परवीन अलग हो गए।  

फिल्मों की बात करूं, तो पांच साल की उम्र से लेकर 25 साल की उम्र तक  मेरे जीवन में जिन फिल्मों का महत्व रहा, उनमें से कोई भी हिंदी फिल्म के कलाकार की नहीं थी। ऐसा नहीं कि मुझे हिंदी फिल्में पसंद नहीं थीं। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों मैंने दारा सिंह की फिल्में देखी थीं। शम्मी कपूर मुझे पसंद थे। इसके अलावा वह किशोर कुमार, दिलीप कुमार, बलराज साहनी, देव आनंद जैसे बड़े कलाकारों का दौर था। उस दौर के कलाकारों में मुझे महमूद की एक्टिंग पसंद थी। अभिनेत्रियों में वहीदा रहमान, नरगिस, मधुबाला, नूतन, तनुजा, आशा पारिख का दौर था। मैं अपनी जिंदगी के दूसरे हिस्से में हिंदी फिल्मों की तरफ आया। जो पहली हिंदी फिल्म मैंने देखी, वह थी बहुत दिन हुए।  इसके पीछे शायद दो वजहें रहीं। पहली तो यह कि इस फिल्म में एक बाल अभिनेता था और दूसरी यह कि उस समय बाबा नैनीताल में डिप्टी कलक्टर थे और हम लोग किसी भी सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देख सकते थे। अम्मी ने तब फिल्में देखनी शुरू की, जब मैंने एक्टिंग शुरू की, बाबा भी ज्यादातर अंग्रेजी फिल्में ही देखा करते थे। 

मेरे वालिद ने कभी मेरा कोई नाटक नहीं देखा। जो इकलौता नाटक उन्होंने देखा, वह सुल्तान रजिया  था, जो मेघदूत थिएटर में हुआ था। इब्राहिम अल्काजी के इस थिएटर को बनाने में हमने भी श्रमदान किया था। मेरे लिए मेघदूत थिएटर जियारत की जगह है। हमने थिएटर की दुनिया में चलना वहीं से सीखा। 
(जारी...) 

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