दिवाली पर क्या आपका भी दम फूला
दिल्ली और एनसीआर के लोग धनतेरस से ही पटाखे छोड़ने के आदी हैं, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लगा कि देश की आला अदालत का फैसला रंग लाया है। क्या बिक्री पर बंदिश की वजह से पटाखों की उपलब्धता कम हो गई है? क्या...
दिल्ली और एनसीआर के लोग धनतेरस से ही पटाखे छोड़ने के आदी हैं, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लगा कि देश की आला अदालत का फैसला रंग लाया है। क्या बिक्री पर बंदिश की वजह से पटाखों की उपलब्धता कम हो गई है? क्या लोगों में जागृति आ गई है? मैंने इन सवालों में उलझने की बजाय सुकून की सांस लेना बेहतर समझा, पर दिल्ली में सुख और संतोष देर तक नहीं टिकते। दिवाली की रात नौ बजे से जो शोर-शराबा शुरू हुआ, वह आधी रात के बाद तक जारी रहा। हर तरह के पटाखे छोड़े गए- देर तक आवाज करने वाले, दूर तक आवाज करने वाले और अधिक से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले। कुछ लोगों ने इसे धार्मिक अस्मिता का सवाल बना रखा था।
मेरी समझ में नहीं आता कि प्रकृति पूजकों के देश में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली कोई हरकत भले ही किसी भी धर्म के लोग करें, उसकी प्रशंसा कैसे की जा सकती है! इस धूम-धड़ाके से पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचता है, वह अपनी जगह है, परंतु छोटे बच्चे, बीमार और बूढ़े जो कष्ट पाते हैं, उन पर लोगों की नजर क्या नहीं जाती? दिवाली की रात की यह तकलीफ अगली दोपहर आए आंकड़ों ने कुछ कम अवश्य की। पिछले साल एयर क्वालिटी इंडेक्स 445 तक पहुंच गया था, जबकि इस बार वह 340 पर ही रुक गया। जाहिर है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने फौरी राहत तो पहुंचाई है, पर अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
कौन कहता है कि पटाखे नुकसानदेह नहीं हैं? इनकी वकालत करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि दिल्ली के फेफड़े तो पहले से ही बेदम होते जा रहे हैं। भरोसा न हो, तो इन आंकड़ों पर नजर डाल देखें। दिल्ली के वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज और सर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टरों ने अपने अध्ययन में पाया है कि राजधानी के युवाओं में तेजी से फेफडे़ का कैंसर पनप रहा है। पहले इस बीमारी से ग्रस्त 90 फीसदी लोग धूम्रपान के लती होते थे, जबकि शेष 10 प्रतिशत मरीजों पर यह प्रकोप किसी अन्य वजह से टूटता था। ताजा अध्ययन में पाया गया कि 100 में से 40 लोग ऐसे हैं, जो बिना धूम्रपान के इसका शिकार बन गए। पहले के मुकाबले अब 30 से 45 वर्ष तक की वय वाले इसकी चपेट में आ रहे हैं। इसका प्रमुख कारण हवा में दिनोंदिन बढ़ रहे जहरीले रसायन हैं। क्या यह वही दिल्ली है, जहां की नर्म गुनगुनी धूप कभी चहलकदमी के लिए प्रेरित करती थी?
दशहरे के दिन मैं परिवार सहित हरिद्वार में था। उन दिनों अंग्रेजों द्वारा बनाई गई गंग नहर सफाई के लिए बंद कर दी जाती है, ताकि दीपावली पर वह पूरी निर्मलता के साथ बह सके। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि विलुप्त होती उस धारा में दर्जनों लोग जलते हुए दीये प्रवाहित कर रहे थे। कुछ लोग उस नाममात्र के जल में स्नान के नाम पर लोटपोट हो रहे थे। जो लोग दीये, फूल-मालाएं आदि फेंक रहे थे, क्या उन्हें यह इल्म न था कि कुछ ही मीटर दूर जाकर उनकी आस्था की यह सामग्री नहर की सूखी तली पर जम जाएगी और उसे नगर पालिका के कूड़ा ढोने वाले वाहनों से दूर फेंकना पड़ेगा?
गंगोत्री से गंगासागर तक लाखों लोग प्रतिदिन ‘गंगा मैया’ के साथ यही दुव्र्यवहार करते हैं। प्लास्टिक, कपडे़, फूल-मालाएं और भी न जाने क्या-क्या फेंककर आदि सभ्यता की इस जननी को प्रदूषित किया जा रहा है। हर की पैड़ी के आसपास तो नहर छोटी है, इसलिए सफाई हो जाती है। इस छह किलोमीटर की दूरी से हर वर्ष औसतन 80 हजार क्यूबिक मीटर कचरा निकाला जाता है। इसमें साल-दर-साल पांच हजार क्यूबिक मीटर की बढ़ोतरी हो रही है। अब तक निकाले गए कचरे को अगर एक जगह इकट्ठा कर दिया जाए, तो इस धर्मनगरी से दिखने वाले पहाड़ बौने लगने लगेंगे। जब छह किलोमीटर का यह हाल है, तो गंगोत्री से गंगासागर तक फैले 2525 किलोमीटर के इलाके की सफाई के बारे में सोचकर सिहरन होने लगती है। आपको इस महान नदी की दुर्दशा देखनी हो, तो एक बार इलाहाबाद जरूर जाएं। वहां इसके दो रूप दिखाई पड़ते हैं- संगम से पहले, संगम के बाद। शहर के जिन हिस्सों में यमुना में मिलने से पहले की गंगा बहती है, वहां सामने एक क्षीण धार पसरी दिखती है। पुराने घाटों को काफी पीछे छोड़ चुकी यह महान नदी यमुना के जल को अपने अंदर समाहित कर शक्ति प्राप्त करती है। क्या कमाल है! यमुना को चंबल और गंगा को यमुना जीवनदान देती है।
दुर्दशा का यह सिलसिला गए 50-60 साल में विकराल हो गया है। जिन्होंने 1950-60 के दशक में नदियों को देखा है, वे कह सकते हैं कि तब हर सदानीरा का अपना स्वरूप और अपनी पहचान होती थी। मैं बौद्धिक जुगाली करने वालों से पूछना चाहूंगा कि क्यों नहीं वे कुदाल उठाते और उथली होती इन नदियों की सफाई के लिए श्रमदान में जुट जाते? ये नदियां उत्तर भारत को हरा-भरा बनाती हैं। इनके बिना हम जी नहीं सकते। हरिद्वार में ही हमने पाया था कि तमाम आश्रमों से ‘फुल वॉल्यूम’ पर सिनेमाई गानों की तर्ज पर बनाए गए भजन प्रसारित किए जा रहे हैं। सूखती गंगा और ऊपर से यह शोर, हमसे रहा न गया और एक दिन पहले ही लौट आए। भीमताल को कुमाऊं का प्रवेश द्वार कहते हैं। वहां भी सुबह आपकी नींद पक्षियों की चहचहाहट से नहीं, बल्कि मस्जिद की अजान से टूटती है। मामला दिवाली पर पटाखे छोड़ने का हो या नदियों की सफाई का अथवा ध्वनि प्रदूषण का, हमारे बुद्धिजीवियों ने जन-जागृति की बजाय जन-विकृति का रास्ता चुन लिया है। धार्मिक तुष्टीकरण के नाम पर हमने सभी धर्मों के मौकापरस्त लोगों को खुलकर खेलने की छूट दे दी है। ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि कौन सा धर्म ऐसा है, जो कुदरत के खिलाफ काम करने को प्रेरित करता है?
इधर कुछ वर्षों से हर सुधार को धर्म से जोड़कर देखने-दिखाने की कोशिश होने लगी है। पटाखा बिक्री पर बंदिश संबंधी आला अदालत के स्वागत योग्य निर्णय पर भी सवाल उठाया गया कि ऐसा सिर्फ हिंदुओं के त्योहारों के साथ क्यों होता है? इस कोरस में चेतन भगत जैसे लोग भी शामिल हैं। इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि अगर वे परंपराओं को लेकर इतने ही आग्रही हैं, तो क्या वे सती प्रथा अथवा अस्पृश्यता का भी समर्थन करते हैं? बौद्धिक जुगाली करने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि सनातन हिंदू धर्म एक प्रगतिगामी धर्म है। इसके धर्माचार्यों ने समय-समय पर अपनी जीवन-पद्धति में सुधार किए। यही वजह है कि परदेसियों के आक्रमण के बावजूद हिंदू और हिंदुत्व बचे रहे। क्यों नहीं हम अपनी इस प्रगतिशीलता पर नाज करते?
यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि हमारे वेदों में सूर्य, जल, वायु, ध्वनि को बेहद सम्मानपूर्वक संबोधित किया गया है। हिंदू परंपरा देह के निर्माण में क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर का सम्मिश्रण बताते हैं। इन परम जरूरी तत्वों की रक्षा करने की बजाय कुछ लोग रक्षकों की लानत-मलामत में लगे हैं। क्यों?
दीपावली असत् पर सत् की जीत का पर्व है। हम उससे अपने अंतस में पसर रहे अंधकार से लड़ने की प्रेरणा क्यों नहीं लेते?
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@shekharkahin
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