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शरण और सुरक्षा के बीच रोहिंग्या

दिल्ली से वाराणसी जाने वाले जहाज में अपनी सीट पर विराजते ही मैंने आदतन मोबाइल फोन की स्क्रीन को निहारा, उस पर पत्रकार मित्र निक यानी निकोलस डावेस का ट्वीट चमक रहा था। निक ने ‘ह्यूमन राइट्स...

शरण और सुरक्षा के बीच रोहिंग्या
शशि शेखरWed, 27 Sep 2017 12:08 AM
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दिल्ली से वाराणसी जाने वाले जहाज में अपनी सीट पर विराजते ही मैंने आदतन मोबाइल फोन की स्क्रीन को निहारा, उस पर पत्रकार मित्र निक यानी निकोलस डावेस का ट्वीट चमक रहा था। निक ने ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की वह रिपोर्ट ट्वीट की थी, जिसमें विस्तारपूर्वक म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के दमन का जिक्र है। 

उसे पढ़ना शुरू करने से पहले ही एयर होस्टेस ने वैधानिक घोषणा शुरू कर दी, जिसका आखिरी हिस्सा था- ‘केबिन में हवा का दबाव कम होने पर ऑक्सीजन मास्क खुद-ब-खुद नीचे आ जाएंगे। बगल में बैठे साथी की सहायता करने से पहले आप अपना मास्क लगाइए।’ मेरे चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई। रोहिंग्या शरणार्थियों और भारतीयों का रिश्ता कुछ ऐसा ही है। इस मुद्दे पर हिन्दुस्तान वैचारिक विभाजन का शिकार बन चला है। रोहिंग्या समुदाय के भारत में शरण के मसले पर चर्चा शुरू करने से पूर्व मैं उन हालात का जिक्र करना चाहूंगा, जिनकी वजह से उन्हें म्यांमार छोड़ने को मजबूर होना पड़ा।

‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले दिनों रखाइन प्रांत के मॉन्गडॉ और रथेडांग शहर में वर्दीधारी सुरक्षा बलों ने ऐसा तांडव मचाया कि करीब चार लाख और रोहिंग्या को बांग्लादेश में शरण लेने पर बाध्य होना पड़ा। म्यांमार के आकाश से मानसूनी बादल हटने के बाद जो सैटेलाइट तस्वीरें आईं, उनसे पता चला कि इधर के दिनों में 214 गांवों के 90 प्रतिशत से अधिक घर जलाकर खाक कर दिए गए। इस आगजनी और हिंसा में सुरक्षा बलों की भूमिका से स्पष्ट है कि म्यांमार की हुकूमत इन लोगों के दमन पर आमादा है। यह हाल तब है, जब नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की म्यांमार की ‘स्टेट काउंसलर’ हैं। 

सू की ने इस मुद्दे पर लंबे समय से धारण चुप्पी गए मंगलवार को तोड़ी। उन्होंने इस मसले पर पहली बार राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि विदेश जा चुके रोहिंग्या की वापसी पर कोई एतराज नहीं, मगर घर वापसी से पहले उनकी जांच की जाएगी। यह ‘जांच’ शब्द  बहुतों को चौंका गया। ऐसी ‘जांच’ आमतौर पर आवभगत नहीं, बल्कि अवमानना के लिए की जाती हैं। सू की ने यह भी कहा कि मैं इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय दबाव की चिंता नहीं करती, क्योंकि हम अपनी सरजमीं पर आतंकवाद से लड़ रहे हैं। रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने पुलिस वालों और बेगुनाहों पर हमले किए हैं, इसके बावजूद यदि सुरक्षा बलों के अत्याचार की कोई शिकायत मिलेगी, तो हम जांच के लिए तैयार हैं। सू की आगे बोलीं- 70 साल से जारी अस्थिरता को अब समाप्त करने की जरूरत है। इसके लिए हमने एक ‘शांति समिति’ बनाई, जिसकी अगुवाई के लिए संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान को आमंत्रित किया गया। 

क्या संयोग है? 70 साल से हम भी जम्मू-कश्मीर में सामाजिक विभेद, आतंकवाद, प्रतिरोधी कार्रवाई और पलायन झेल रहे हैं। यही वजह है कि तमाम हिन्दुस्तानी नहीं चाहते कि रोहिंग्या समुदाय के लोग बड़ी संख्या में भारत-भूमि पर अपना आशियाना बना लें। देश में फिलवक्त 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थी हैं, जिनमें से 10 हजार के करीब पहले से हिंसा झेल रहे जम्मू-कश्मीर में डेरा डाले हुए हैं। खुफिया एजेंसियां और स्थानीय जन उन्हें ‘संभावित खतरा’ मानते हैं। भारतीय खुफिया संस्थाओं को जानकारी मिली है कि पाकिस्तान की आतंक फैक्टरी आईएसआई और आईएस के नुमाइंदे शरणार्थियों के भेस में भारत में घुस सकते हैं। रक्षा विशेषज्ञ उनके समर्थन में पिछले दिनों लंदन मेट्रो स्टेशन पर हुए धमाके का जिक्र करते हैं, जिसे एक शरणार्थी ने अंजाम दिया था। यही वजह है कि केंद्रीय हुकूमत ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर उन्हें बाहर करने की हिमायत के साथ म्यांमार से जुड़ी जल-थल सीमाएं सील कर दी हैं। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने सरकार का रुख स्पष्ट करते हुए कहा है कि रोहिंग्या कोई शरणार्थी नहीं हैं, वे अवैध प्रवासी हैं। इन्हें कभी भी भेजा जा सकता है। और म्यांमार रोहिंग्या को वापस लेने को तैयार है, तो फिर उन्हें वापस भेजने का इतना विरोध क्यों हो रहा है? 

कुछ लोग सरकार के इस फैसले की कड़ी आलोचना कर रहे हैं। वे भारतीय सभ्यता का वास्ता देते हुए कहते हैं कि भारत में ईसा-पूर्व से शरणार्थी आते रहे हैं और हमारी सामाजिक संरचना में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हमें रोहिंग्या समुदाय की पीड़ा पर करुणा करनी चाहिए। ऐसे लोग पारसियों से लेकर पंजाबियों और सिंधियों तक के उदाहरण देते हैं। ऐसा कहते वक्त वे भूल जाते हैं कि इतिहास की यही खूबी उस वक्त त्रासदी बन जाती है, जब हम आंखें बंद कर उसका वाचन करना शुरू कर देते हैं। यह ठीक है कि भारत-भूमि पर शरण पाने वाले लोग आला कारोबारी से प्रधानमंत्री तक बने, मगर वे आम नहीं, बल्कि आला लोग थे। भारत से भी कभी हरगोविंद खुराना अमेरिका जाकर नोबेल पुरस्कार पा गए थे। आज भी दिक्कत किसी अदनान सामी अथवा तस्लीमा नसरीन से नहीं, बल्कि उन लोगों से है, जो हजारों की तादाद में हर रोज गैर-कानूनी तौर पर हिन्दुस्तानी सरहद में दाखिल हो रहे हैं। इन लोगों की वजह से पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल के कई इलाकों का सामाजिक संतुलन गड़बड़ा गया है। देश के अन्य हिस्सों में भी वे ‘साधिकार’ फैलते जा रहे हैं, जिससे शासन-प्रशासन के सामने तमाम परेशानियां आ खड़ी हुई हैं। फिर कश्मीर और पूर्वोत्तर में तमाम हिन्दुस्तानी मातृभूमि से बेदखल होकर अपने ही देश में जलावतनी झेल रहे हैं, उनका क्या? क्या उनके दुख दर्द नहीं देते?

भावनात्मक तौर पर करुणा की बातें कहने-सुनने में भले ही कितनी भी अच्छी लगें, मगर रोहिंग्या मसला इतना सहज और सरल नहीं है। अगर यकीन न हो, तो आप 7 जुलाई, 2013 को गया के महाबोधि मंदिर में हुए धमाकों को याद कर देखिए। समूची दुनिया के बौद्धों की आस्था का यह महान केंद्र उस दिन नौ धमाकों से हिल गया था। साजिश सिर्फ मंदिर नहीं, बल्कि उस बोधिवृक्ष को भी उड़ा देने की थी, जिसे सदियों से शांति के संदेशवाहक बुद्ध की स्मृति में सहेज-संवारकर रखा गया है। 

इस सिलसिले में गिरफ्तार आतंकियों ने बाद में पुलिस को बताया कि म्यांमार में रोहिंग्या दमन का बदला चुकाने के लिए यह साजिश रची गई थी। तभी से सवाल उठ रहा है कि जिनकी हमदर्दी में यह साजिश रची गई, वे भी तो दहशतगर्दी का रास्ता अपना सकते हैं। यह ठीक है कि सभी रोहिंग्या आतंकवादी नहीं हो सकते, पर भारत विरोधी आतंकी संगठन उनमें से कुछ लोगों को दहशतगर्द बनाने में सफलता हासिल कर सकते हैं। आतंकवाद का इतिहास पीड़ा से प्रतिशोध को जनने का है। 

इसीलिए सवाल उठ रहे हैं, जब अपने घर में आग लगी हो, तो हम दूसरों के जले पर कितना मरहम लगा सकते हैं? आप चाहें, तो यहां एयर होस्टेस की चेतावनी याद कर सकते हैं। उसकी नसीहत का सार है कि संकट के वक्त अगर आपको दूसरों की सहायता करनी है, तो पहले खुद को सुरक्षित बनाएं। क्या हम इतने सुरक्षित हैं कि दूसरों को अभयदान दे सकें?  

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