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काश, मुर्दे बोल सकते

अगर कुदरत ने मृतकों को अपनी बात रखने का हक-हुकूक दिया होता, तो यकीनन आरुषि तलवार इस वक्त अपनी चिर निद्रा त्यागकर उठ खड़ी होती। वह हिन्दुस्तान की न्याय-व्यवस्था की आंख में आंख डालकर हर हाल में पूछना...

काश, मुर्दे बोल सकते
शशि शेखरSun, 15 Oct 2017 10:31 PM
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अगर कुदरत ने मृतकों को अपनी बात रखने का हक-हुकूक दिया होता, तो यकीनन आरुषि तलवार इस वक्त अपनी चिर निद्रा त्यागकर उठ खड़ी होती। वह हिन्दुस्तान की न्याय-व्यवस्था की आंख में आंख डालकर हर हाल में पूछना चाहती कि ऐसी घटिया मौत भले ही विधाता ने मेरे लिए रची हो, पर क्या यह हमारी कानून-व्यवस्था की हार नहीं है कि मेरे हत्यारे का सुराग किसी के पास नहीं! क्यों उत्तर प्रदेश पुलिस के आला दिमाग अफसर नाकाम रहे? क्यों सीबीआई कातिल का चेहरा बेनकाब न कर सकी? वह यकीनन पूछती कि मामला अयोग्यता का है या नीयत का? 

आरुषि की हत्या संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र को अराजक और अनैतिक भीड़तंत्र भी साबित करती है। ऐसा लगता है, जैसे हम एक विशाल नक्कारखाने में बसर कर रहे हैं, जहां कुछ लोग बेबस तूती की तरह सत्य और न्याय की बेअसर गुहार लगाते दिखते हैं। 

आज जब अपनी याददाश्त के ‘इनबॉक्स’ को फिर से खंगाल रहा हूं, तो पाता हूं कि हमारे सामने मई 2008 और बाद के महीनों में जैसे रोमांचक जासूसी उपन्यास के अध्याय-दर-अध्याय रचे जा रहे थे। एक दिन खबर आती है कि जलवायु विहार में 14 साल की लड़की अपने बेडरूम में मरी पाई गई। उसे किसने मारा, तफ्तीश जारी है। कुछ देर में पुलिस ने पाया कि घर का नौकर हेमराज गायब है, उसी को कातिल मानकर कयास के घोडे़ दौड़ाए जाने लगे। अगले दिन सोसायटी की छत पर हेमराज का शव मिलता है। अब मामला और उलझ गया। अपने बेडरूम में मारी गई बच्ची और छत पर पड़ी नौकर की लाश! घर में कोई लूटपाट नहीं। एक-दूसरे से सटे फ्लैट्स वाले जलवायु विहार में अगल-बगल वालों को भनक तक नहीं! उन्हें किसने मारा? क्यों मारा? कब मारा? 

जितने सवाल, उतने कयास। 
उन दिनों उत्तर प्रदेश पर मायावती की हुकूमत थी। अपराधों को लेकर वह बेहद संवेदनशील थीं। लखनऊ में बैठे हुए आला अफसरों ने स्थानीय पुलिस पर दबाव बनाना शुरू किया। मेरठ में बैठे क्षेत्रीय अधिकारी इसमें कूद पड़े। मामला मुख्यमंत्री के रोष का था, जल्दी नहीं निपटाया, तो न जाने क्या सजा भुगतनी पड़ जाए? लिहाजा, हर रोज एक नई कहानी गढ़ी जाने लगी। लोग मीडिया ट्रायल की बात करते हैं, पर हकीकत यह है कि तरह-तरह के ‘किस्से फीड’ किए जा रहे थे। मृतक बच्ची के चरित्र से लेकर उसके मां-बाप और पारिवारिक मित्रों तक को नहीं बख्शा गया। और तो और, आरुषि के अवयस्क सहपाठियों तक को हिरासत में लेकर पूछताछ हुई। हथियारबंद पुलिस वाले घरों से उठा लाए और घंटों की पूछताछ के बाद उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर छोड़ा गया। अगर उन दिनों की अखबारी कतरनें और न्यूज-वीडियोज को इकट्ठा कर लिया जाए, तो आपको खुद-ब-खुद समझ में आ जाएगा कि हमारा पुलिस तंत्र दूसरों के दर्द पर विकृतियां रचने में कितना महारथी है? 

उत्तर प्रदेश पुलिस ने तो अपने हिसाब से ‘केस’ सुलझा भी लिया था, पर कई अनसुलझे सवाल, जवाबों का इंतजार कर रहे थे, लिहाजा मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। वह सीबीआई, जिसके पास जादुई चिराग है, जो किसी भी नामचीन से डरती नहीं और जो शरलक होम्स की तरह किसी भी उलझे से उलझे मामले को सुलझाकर रख देती है! यह बात अलग है कि कुछ लोग इतनी काबिल संस्था को ‘सरकार का तोता’ कहते हैं। 
उन दिनों इस मामले को सुलझाने की जिम्मेदारी जिस आईपीएस अफसर पर डाली गई, वह खुद बहुत काबिल माने जाते थे। उत्तर प्रदेश काडर का होने के नाते अरुण कुमार से उम्मीद की जाती थी कि वह ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ कर देंगे। उनकी टीम ने अब तक की विवेचना को उलट-पलटकर रख दिया। वे नए किस्से उछाले जाने के दिन थे। ऐसा लगता था कि अपने रक्त रिश्ते घावों के साथ सलीब पर टंगा सच उस केंद्रीय एजेंसी के जादुई स्पर्श से सदेह अवतरित होकर रहेगा। पर हुआ क्या? सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट ‘दाखिल’ कर दी। यानी वे पर्याप्त साक्ष्य नहीं जुटा सके थे, पर अदालत ने उसे नहीं माना। लिहाजा इंसाफ की तुला फिर से हरकत में आ गई। अब, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह मान लिया है कि तलवार दंपति के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं और वे एक बार फिर से खुली हवा में सांस लेने को स्वतंत्र हैं, तो सवाल उठता है कि कहीं कुछ ऐसा है, जो दबा है या दबा दिया गया है।
क्या कोई षड्यंत्र रचा गया? या, पुलिस और सीबीआई अक्षम हैं? या, कहीं और चूक हुई? 

यहां मैं उत्तर प्रदेश पुलिस के अवकाश प्राप्त अधिकारी के पी सिंह की टिप्पणी आप तक पहुंचाना चाहूंगा- ‘सभी जानते हैं कि अगर कोई पति अपनी पत्नी की हत्या अपने बेडरूम में करता है, तो उस घटना का चश्मदीद गवाह मिलना संभव नहीं होगा। बेडरूम, घर तथा परिवार और सभी अपराधी के ही पक्षधर होते हैं। इस असलियत को उच्च न्यायालयों द्वारा भी अनेक बार स्वीकार किया गया है। ऐसे मामलों में परिस्थितिजन्य सुबूत ही न्यायालयों में स्वीकार होते हैं, किंतु आरुषि हत्याकांड में दुर्भाग्यवश यह नहीं माना गया। इस प्रकरण में एक बात और भी विचारणीय है कि अदालत में सजा दिलाने के लिए माननीय न्यायालय, विवेचनाकर्ता के अलावा परदे के पीछे एक तीसरी, किंतु बहुत ही महत्वपूर्ण और सम्मानजनक एजेंसी भी होती है, और वह है अभियोजन अधिकारी की। अपराधी की सजा कराने में यह पक्ष कितनी ताकत लगाता है, बहुत महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से इस विभाग का गठन राजनीति के आधार पर किया जाता है।’ श्री सिंह ने यह टिप्पणी फेसबुक पर आरुषि से संबंधित मेरी एक पोस्ट के जवाब में की थी।

वजह कुछ भी हो, पर यह तय है कि एक किशोर सपने की मौत, एक परिवार की खुशहाली का शोकांतिका में तब्दील हो जाना यूं ही जाया हो गया। सवाल उठने लाजिमी हैं कि तलवार दंपति को किस बात की सजा मिली? बेटी गंवाई, बरसों जेल में काटे, करियर तबाह हो गया और अब बाहर आने के बाद बाकी बची उम्र चुनौती दे रही है। यह त्रासद है कि इस पीड़ागाथा को रचने वाले अफसरों में अधिकांश देश और विदेश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजे जा चुके थे। उनसे बेहतर परिणामों की अपेक्षा थी, पर हुआ क्या? यकीनन, हम ऐसे दौर से गुजरने को अभिशप्त हैं, जहां उम्मीदों के चिराग नाउम्मीदियों के अंधकार के आगे बेदम नजर आते हैं।

क्या यह गम और गुस्से की बात नहीं कि देश के करदाताओं की गाढ़ी कमाई पर पलने वाला तंत्र उन्हीं के साथ बेरहम सुलूक कर इतराता है? उच्च न्यायलय द्वारा तलवार दंपति को बरी किए जाने के बाद यह सवाल फिर से फन फैलाकर समूची व्यवस्था पर फुफकार रहा है कि आरुषि का कातिल कौन? अब इस किंवदंती बन चुके रहस्य पर से अगर कोई परदा उठा सकता है, तो वे हैं खुद आरुषि और हेमराज। मगर करें क्या, मुर्दे बोला नहीं करते। 

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