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हमारे हक का सवाल

उत्तर प्रदेश के कुछ पेट्रोल पंपों पर सरकारी मशीनरी की जांच-पड़ताल में उभरे तथ्य चौंकने पर मजबूर करते हैं। इन पेट्रोल पंपों से जिस तरह नवीनतम टेक्नोलॉजी के जरिये पेट्रोल-डीजल की चोरी हो रही थी, उससे...

हमारे हक का सवाल
शशि शेखरTue, 23 May 2017 09:06 PM
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उत्तर प्रदेश के कुछ पेट्रोल पंपों पर सरकारी मशीनरी की जांच-पड़ताल में उभरे तथ्य चौंकने पर मजबूर करते हैं। इन पेट्रोल पंपों से जिस तरह नवीनतम टेक्नोलॉजी के जरिये पेट्रोल-डीजल की चोरी हो रही थी, उससे जाहिर हो गया है कि जन-साधारण के उपभोक्ता हित कहीं सुरक्षित नहीं। तमाम सुसंगठित गिरोह आपको हर तरफ से लूटने में लगे हैं। 

एक पुराना वाकया याद आ रहा है। 

1980 के दशक में मेरे एक मित्र सड़क दुर्घटना की चपेट में आ गए थे। दुर्घटना के कुछ दिन बाद उन्हें ऐसे पोस्टकार्ड मिलने शुरू हो गए, जिनके प्रेषक दावा कर रहे थे कि वह वकील हैं। उन्होंने लिखा था कि अगर मुआवजा चुकाने से बचना है, तो हमसे संपर्क करें। मेरे दोस्त संवेदनशील इंसान हैं। उन्होंने इन लोगों के झांसे में आने की अपेक्षा दुर्घटना के शिकार दूसरे पक्ष से सीधा संवाद स्थापित किया। दोनों लोग यह जानकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उन्हें समान लोग अलग-अलग भाषा में खत लिख रखे थे। एक व्यक्ति से वायदा किया गया था कि वे मुआवजा बचाने में मदद करेंगे, जबकि वही तथाकथित वकील दूसरे पक्ष को अधिक मुआवजा दिलाने का दावा कर रहे थे।

मेरे मित्र ने गाड़ी का बीमा करा रखा था। उन्होंने चकित भाव से बीमा अधिकारियों से संपर्क किया, तो सलाह मिली कि आप चुप रहें। इस तरह के वाद अदालत में जाते हैं और बीमा कंपनी थोडे़ तर्क-वितर्क के बाद दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को रकम चुका देती है। यह एक ऐसी ‘सेटिंग’ है, जिसमें किसी का कोई नुकसान नहीं, सबका फायदा है। आपकी जेब से कुछ जाएगा नहीं, दूसरा पक्ष कुछ पा जाएगा और थोड़ा-बहुत ‘हम लोग’ भी कमा लेंगे।

उन्हें समझते देर नहीं लगी कि देश के लोग बीमा कंपनियों को जो भारी किस्त अदा करते हैं, उसका ‘उपयोग’ किस तरह हो रहा है! 

इसीलिए 1991 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आर्थिक उदारीकरण की बात कही, तो लगा कि हम सरकारी मकड़जाल से मुक्त हो जाएंगे। एक ऐसी कार्य-संस्कृति विकसित होगी, जहां सब कुछ पारदर्शी होगा। आप याद करें, उन दिनों कंप्यूटर धीमे-धीमे हमारी जिंदगी का हिस्सा बन रहे थे। भरोसा दिलाया जाता था कि इनके जरिये किया गया लेन-देन हर प्रकार की धोखाधड़ी से मुक्त होगा। 

हमें क्या पता था कि यह एक दिलासा भर है!

आए दिन खबरें मिलती हैं कि कोई एटीएम हैक हो गया या किसी के क्रेडिट-कार्ड का दुरुपयोग कर लिया गया। इसके लिए ‘कंप्यूटर लिटरेसी’ के अभाव का रोना रोया जाता है, पर यह एक अद्र्धसत्य मात्र है। बड़े-बड़े संस्थान और उद्योगपति डिजिटल धोखाधड़ी के शिकार बन चुके हैं। कुछ साल पहले देश के एक मशहूर उद्योगपति अपनी पत्नी के साथ मुंबई के रेस्तरां में रात्रि का भोजन करने गए थे। वहां उन्होंने क्रेडिट कार्ड का उपयोग किया। अगले दिन उनके मोबाइल पर संदेश चमका कि उन्होंने ढाई लाख रुपये की रकम खर्च की है। जांच करने पर पता चला कि देश के प्रमुखतम उद्योगपतियों में से एक के कार्ड का ‘क्लोन’ रेस्तरां के साधारण कर्मचारी ने बना लिया था। रेस्तरांकर्मी पढ़ा-लिखा था। वह उस शख्सियत के वकार से भी वाकिफ था, पर वह चोर क्या, जो सीनाजोर न हो। वह गिरफ्तार भी महज इसलिए हो सका कि उसने इतने रसूख वाले व्यक्ति की जेब पर हाथ डाल दिया था।

हमारे चारों ओर सीनाजोर घूम रहे हैं। उनकी धर-पकड़ का कोई सार्थक इंतजाम नहीं है। 

यही वजह है कि धोखाधड़ी के हजारों मामले विभिन्न संस्थाओं और आयोगों में लंबित पड़े हैं। साल 2016 में नेट बैंकिंग और डेबिट-क्रेडिट कार्ड से संबंधित धोखाधड़ी के 14,826 मामले दर्ज थे। ‘डिजिटल फ्रॉड’ की इन घटनाओं ने 77.79 करोड़ की चपत उपभोक्ताओं को लगाई। ये आधिकारिक आंकड़े इलेक्ट्रॉनिक और आईटी मामलों के राज्य मंत्री पीपी चौधरी ने संसद में लिखित जवाब में पेश किए थे। मंत्री महोदय ने अपने जवाब में यह भी कहा था कि 2016 में नेट बैंकिंग संबंधी 77 मामलों का निपटारा हुआ। ध्यान दें, सिर्फ 77! यहां यह भी गौरतलब है कि ये तो वे मामले हैं, जो ‘डिजिटली साक्षर’ लोगों के हैं। जालसाजी के शिकार तमाम लोगों को तो शिकायत का उचित फोरम भी पता नहीं। अगर वे फोरम ढूंढ़ भी लें, तो इस मशक्कत के बदले उन्हें न्याय मिलेगा या नहीं, कोई नहीं जानता। 

लोग सोचते थे कि इस तरह की जालसाजी सिर्फ एटीएम अथवा क्रेडिट कार्ड तक सीमित है। उत्तर प्रदेश के घालमेल वाले पेट्रोल पंपों ने साबित कर दिया कि हमारे हक-हुकूक कहीं सुरक्षित नहीं हैं। 

वहां ‘पेट्रोल डिस्पेंसिंग मशीन’ के केबल में चिप लगाकर रिमोट के जरिये प्रति लीटर 50 से 100 मिलीलीटर पेट्रोल अथवा डीजल चुराया जा रहा था। कार्रवाई हुई, तो खबर उड़ा दी गई कि इससे पेट्रोल-डीजल की आपूर्ति बाधित हो जाएगी, जिससे जनता को तकलीफ होगी। इससे काम न चला, तो कुछ ने अपने पंप पर ताले डाल दिए, मगर सरकार न डरी, न दबी। दांव उलटा न पड़ जाए, इसलिए कुछ घंटों बाद पंप पुन: खुल गए। पेट्रोल पंप मालिकों का यह रवैया क्या दर्शाता है? 

क्या गारंटी देश के अन्य हिस्सों में ऐसा नहीं हो रहा? क्या कोई दावे से कह सकता है कि हम जिन डिजिटल तराजुओं पर भरोसा कर रोजमर्रा के सामान खरीदते हैं, उनके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा रही? मेरा यह आशय कतई नहीं है कि डिजिटल लेन-देन बुरा है, मौजूदा वक्त की जरूरत है यह। मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि उपभोक्ता पहले भी लुट रहा था, आज भी लुटने पर मजबूर है। 

चोरी और सीनाजोरी के इस रवैये पर रोक लगनी चाहिए। 

सवाल उठता है कि इससे बचाव के लिए क्या किया जाए? इस प्रश्न का सहज उत्तर यही है कि हमें अपनी नियामक संस्थाओं को मजबूत करना चाहिए, पर यह हो कैसे? नियम-कायदों को लागू करने वाली संस्थाओं में कई महत्वपूर्ण पद लंबे समय तक खाली पडे़ रहते हैं। ऐसा दो वजहों से होता है। पहली वजह- चयन प्रक्रिया की जटिलता और दूसरी यह किराजनीतिक आकाओं को उनके लिए समय पर ‘उपयुक्त’ उम्मीदवार नहीं मिलते। गत वर्ष देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने कहा था कि देश की न्याय-प्रक्रिया चलाने के लिए विभिन्न स्तर के 70 हजार जजों की जरूरत है। इससे अदालतों पर काम का बोझ बढ़ गया है और न्याय-प्रक्रिया के लिए तमाम खतरे पैदा हो गए हैं। जब न्यायालय रीते पड़े हों, तो भला आयोगों और नियामक संस्थानों को कौन पूछेगा? देश के 24 उच्च न्यायालयों में 400 से अधिक न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं। 

कृपया ध्यान रखें। लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है- नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा। सोशल मीडिया पर पाकिस्तान और चीन से आभासी जंग में व्यस्त महावीर भी सोचने की कृपा करें कि क्या हर जगह लुटते-पिटते उपभोक्ता संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हैं? हमारी सीमाओं की सुरक्षा के लिए सैनिक तैनात हैं। वे जान देकर भी हमारी रक्षा करते हैं, पर इन सफेदपोश लुटेरों से हमें कौन बचाए?

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