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रायसीना की ओर रामनाथ

वह पटना का गांधी मैदान था। फरवरी महीने की सुहानी गुनगुनी धूप ने शहर को अपने उजले आगोश में ले रखा था। हम पुस्तक मेले के पंडाल में राज्यपाल का इंतजार कर रहे थे। वह समय से दो मिनट पहले आए। पद और...

रायसीना की ओर रामनाथ
शशि शेखरTue, 04 Jul 2017 03:35 PM
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वह पटना का गांधी मैदान था। फरवरी महीने की सुहानी गुनगुनी धूप ने शहर को अपने उजले आगोश में ले रखा था। हम पुस्तक मेले के पंडाल में राज्यपाल का इंतजार कर रहे थे। वह समय से दो मिनट पहले आए। पद और परिस्थिति के हिसाब से धारण किया हुआ काला सूट उनके लंबे कद पर खासा जंच रहा था। मैंने गाड़ी का दरवाजा खुलते ही अपना परिचय देते हुए उनका स्वागत किया। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा कि आपको भला किस परिचय की जरूरत है? बताना तो हम लोगों को अपने बारे में चाहिए। 

आमतौर पर आज के राजनेता ऐसा सामने वाले का उपहास उड़ाने के लिए कहते हैं। दंभ और तिरस्कार तमाम भारतीय राजनीतिज्ञों की पहचान बन गई है, पर वह इसके उलट लगे। परिपक्व, शालीन और विनम्र।

मंच पर पाया कि राज्यपाल महोदय मेरी पूरी किताब पढ़कर आए हैं। पुस्तक के जिन अंशों को उन्होंने ‘कोट’ करने के लिए रेखांकित कर रखा था, उनमें से एक को तो मैं श्रोताओं के समक्ष बोलना चाहता था। क्या यह भी मेरी तरह सोचते हैं, दिमाग में सहसा कौंधा। 

उस दिन मैंने अपने भाषण में नाइजीरियन लेखक चिनुआ अचेबे को उद्धृत किया था। अचेबे कहते हैं- ‘जब तक सिंह अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक उनके इतिहास में शिकारियों की शौर्य गाथाएं गाई जाती रहेंगी।’ भाषण के बाद मेरे कान में फुसफुसाते हुए राज्यपाल ने कहा कि आप अच्छा बोले। यह बात भारतीय संदर्भों में कितनी सही है! बाद में उनका भाषण बेहद नपा-तुला और कंटेंट से भरपूर था। इस छोटे से समारोह में शामिल होने के बाद जब वह विदा हुए, तब उनकी विनम्रता, वैचारिक गहराई, सामाजिक प्रतिबद्धता और शालीन तार्किकता की छाप सब पर पड़ चुकी थी। यहां यह जानना गौरतलब है कि पुस्तक मेले का आयोजन ऐतिहासिक गांधी मैदान में होता है, वहां के कार्यक्रमों में शिरकत के लिए किसी निमंत्रण पत्र की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे खुले समारोहों में राज्यपाल जैसे ओहदे पर बैठे लोग जाने से कतराते हैं, पर वह पल भर को नहीं हिचके। 

जमीन से ऊपर उठे और जमीन पर अवतरित हुए नेता में फर्क होता है।

अब आप समझ चुके होंगे कि मैं रामनाथ कोविंद की बात कर रहा हूं। शिक्षा-दीक्षा, विचार और व्यक्तित्व के लिहाज से उनकी उम्मीदवारी पूरी तरह उपयुक्त है। उनके नाम ने चौंकाया अवश्य, क्योंकि वह हमेशा ‘लो प्रोफाइल’ में रहते हुए अपना काम करते रहे हैं, पर कारगर विवाद उठाने की स्थिति में कोई भी दल नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने अद्भुत सियासी दांव चला है। मामला सियासत का है, इसलिए पहले उसकी बात। कोविंद दलित परिवार में जन्मे हैं। जवाब में कांग्रेस को मीरा कुमार को आगे करना पड़ा। वह दलितों को रुष्ट करने का खतरा कैसे मोल ले सकती थी? इसे कहते हैं दिनों का फेर। कांग्रेस ने भी जब केआर नारायणन का नाम आगे किया था, तब विपक्ष के सामने ऐसी ही दिक्कत आई थी। उनकी जीत का रिकॉर्ड आज तक कायम है। 

क्या सियासी घटनाक्रम खुद को दोहराने जा रहा है?

आप अगर सरकार और भाजपा के पिछले कुछ महीनों के क्रिया-कलाप पर नजर डालें, तो पाएंगे कि भगवा पार्टी पूरी तेजी से दलितों को लुभाने में जुटी है। अंबेडकर जयंती के कार्यक्रम हों या एप का नामकरण (मैं भीम एप की बात कर रहा हूं), हर बार नई दिल्ली पर काबिज सत्ता और संगठन की यही कोशिश रहती है कि वह दलितों से खुद को जोड़े। भाजपा नेतृत्व जानता है कि मुस्लिमों के वोट उन्हें कभी नहीं मिलने वाले, इसलिए वे कांग्रेस का मुकम्मल वोट बैंक रह चुके दलितों को अपने पाले में करना चाहते हैं। अगर इस तर्क को प्याज की गांठ मानकर छीलें, तो सियासत की तमाम परतें खुलती जाती हैं। कोविंद कोली समाज से आते हैं। उत्तर प्रदेश का मूल निवासी होने के नाते वह वहां के मतदाताओं पर तो असर डालेंगे ही, साथ ही कर्मभूमि होने के नाते बिहार में भी भाजपा को इसका लाभ मिलेगा। 

बिहार में बहैसियत राज्यपाल उन्होंने हमेशा जन-पक्षधरता के कार्य किए। वह काम के प्रतीक बने, हुकूमत की परंपरा के नहीं। इसका उन्हें लाभ मिल रहा है। नीतीश कुमार ने उन्हें समर्थन देकर राष्ट्रपति भवन की राह हमवार कर दी है। समूचे एनडीए के अलावा अन्नाद्रमुक भी उनके साथ आ खड़ा हुआ है। इससे उनकी जीत पक्की लग रही है।

विपक्ष के लिए यह चुनाव यकीनन अग्नि-परीक्षा साबित होने जा रहा है। लोग इसे 2019 के रिहर्सल के तौर पर देख रहे हैं। अभी तक के आकलन से तो ऐसा लगता है कि कोविंद की जीत पक्की है और विपक्ष इसलिए मैदान में है, क्योंकि वह एनडीए को वॉकओवर नहीं देना चाहते थे। इसके बावजूद मीरा कुमार को प्रतिष्ठा बचाने लायक मत नहीं मिले, तो तय मान लीजिए कि विपक्षी एकता पर से लोगों का भरोसा डगमगा जाएगा। जद (यू) के फैसले ने अभी से ही उसकी साख पर सवालिया निशान जड़ दिया है।

इस सियासी गुणा-भाग से परे एक भला तथ्य यह भी है कि रायसीना पहाड़ी की दौड़ के ये दोनों उम्मीदवार काबिल हैं। उनकी योग्यता पर कोई दाग नहीं। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह सुकून की बात है।

रामनाथ कोविंद के विपक्षी कह सकते हैं कि उन्हें दो बार चुनाव लड़ने का मौका दिया गया, पर वह जीत नहीं सके। चर्चा है कि 2014 में इसी वजह से उन्हें लोकसभा का टिकट नहीं मिला था। ईष्र्या भाव रखने वाले आरोप लगा सकते हैं कि वह सत्ता में आने के लिए हमेशा पिछले दरवाजे का प्रयोग करते रहे हैं। राजनीति में छवि पर ग्रहण लगाने का रामबाण नुस्खा है। अब आप कहते रहिए कि जब बहुत से नेता घुटनों पर चलना सीख रहे थे, तब वह प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के विशेष कार्याधिकारी थे। आप कहते रहिए कि वह सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में वकालत कर चुके हैं। आप कहते रहिए कि राज्यसभा में उनका कार्यकाल शालीनता भरा था, पर यह सियासी नक्कारखाने के निर्लज्ज हठयोगियों को डिगा न सकेगा।

मैं बहस में पड़े बिना विनम्रतापूर्वक यहां अब्राहम लिंकन को याद करना चाहूंगा। वह अनेक बार चुनाव हारे, और दिवालिया हुए। पर उन्होंने वह चुनाव जीता, जिससे संसार का सबसे ताकतवर व्यक्ति चुना जाता है। बहैसियत अमेरिकी राष्ट्रपति उन्होंने घिनौनी दास-प्रथा को खत्म किया। यह ठीक है कि भारतीय राष्ट्र्रपति की अपनी सीमाएं होती हैं, पर राष्ट्रपति भवन में पहुंचने के बाद रामनाथ कोविंद ऐसा बहुत कुछ कर सकते हैं, जिसकी जरूरत है। 

आज भी यह देश दलितों और वंचितों की आवाज नहीं सुनना चाहता। उनके बीच से गए हुए किसी व्यक्ति को ही यह पहल करनी होगी। इतिहास रामनाथ कोविंद की ओर उत्सुक नजरों से देख रहा है। अब यह उन्हें तय करना है कि उनका नाम सिंहों की किस सूची में दर्ज हो- वे जो शिकार होते हैं, या वे जो गौरव-गाथाएं रचने के लिए जाने जाते हैं?  

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@shekharkahin 
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