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हिन्दुस्तानियत को जिबह करती भीड़

इस बार दिल दहलाने वाली खबरें झारखंड से आईं। गिरिडीह जिले के दूरस्थ गांव में लोगों ने एक शख्स के घर के बाहर बडे़ जानवर का कंकाल पड़ा देखा। आनन-फानन में अफवाह फैल गई कि यह गो-हत्या का मामला है। फिर क्या...

हिन्दुस्तानियत को जिबह करती भीड़
शशि शेखरTue, 04 Jul 2017 03:29 PM
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इस बार दिल दहलाने वाली खबरें झारखंड से आईं। गिरिडीह जिले के दूरस्थ गांव में लोगों ने एक शख्स के घर के बाहर बडे़ जानवर का कंकाल पड़ा देखा। आनन-फानन में अफवाह फैल गई कि यह गो-हत्या का मामला है। फिर क्या था, लगभग हजार लोगों ने उसका घर घेर लिया और अधेड़ गृहस्वामी की जमकर पिटाई की। पुलिस ने मौके पर पहुंचकर उसकी प्राण रक्षा की कोशिश की। इस कलंक कथा की स्याही सूखती, इससे पहले ही रामगढ़ में दूसरे हादसे ने आकार ले लिया। वहां एक वाहन चालक को इस आरोप में बुरी तरह पीटा गया कि वह प्रतिबंधित मांस ले जा रहा है। उसकी भी अस्पताल जाकर सांस टूट गई।

क्या आपको नहीं लगता कि हम ऐसे विरल दौर में पहुंच गए हैं, जिसमें हत्याएं भीड़तंत्र का शगल बनती जा रही हैं और कानून-व्यवस्था के कर्णधारों का काम सिर्फ लकीर पीटना रह गया है? 

इसके लिए सिर्फ शासन और प्रशासन जिम्मेदार नहीं। हम भारतीयों के अंदर शायद साझा संस्कृति का तत्व कुम्हला रहा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बल्लभगढ़ के पास ईद से पहले ट्रेन में कुछ युवकों की भीड़ द्वारा पिटाई नहीं की जाती। इस हादसे में 16 साल का एक नौजवान जुनैद मारा गया। बेचारा ईद की खरीदारी कर गांव लौट रहा था। इस घटना को जो लोग सिर्फ क्रिया-प्रतिक्रिया का किस्सा मान रहे हैं, वे शायद खुद को गफलत में रखना चाहते हैं। जुनैद की पोस्टमार्टम रिपोर्ट देख लीजिए। मृतक के आधे शरीर को पांच बार चाकुओं से गोदा गया। ऐसा तभी होता है, जब मारने वाला जुनूनी नफरत से बजबजा रहा हो। इससे पहले असम, अलवर और दादरी में लोग पीट-पीटकर मारे जा चुके हैं, अन्य स्थानों पर कइयों की निर्ममतापूर्वक पिटाई हो चुकी है। 

आप इन घटनाओं के क्रम से इस निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी मत कीजिएगा कि सिर्फ अल्पसंख्यक ही हिंसा से पीड़ित हैं। 

श्रीनगर में डीएसपी अयूब पंडित ‘अपने ही लोगों’ के हाथों मारे गए। कश्मीर पुलिस के आला अधिकारियों ने उन्हें ‘बरकतों की रात’ पर निगरानी के लिए ‘जामिया मस्जिद’ के बाहर तैनात किया था। कहते हैं कि भीड़ ने उन पर हमला कर सबसे पहले उनके कपड़े फाड़े। इस 54 वर्षीय पुलिस अफसर को निर्वस्त्र कर लोग देखना क्या चाहते थे? चर्चा है कि उनकी नेम प्लेट पर ‘ए पंडित’ लिखा हुआ था। क्या इस ‘पंडित’ शब्द ने उनकी जान ली? क्या उन्हें निर्वस्त्र करने के पीछे इसी की जांच-परख का इरादा था? इसके बावजूद वह बचे नहीं, मार डाले गए। ये पंडित, पुण्डीर, चौहान या इन जैसे जाति सूचक शब्द धर्म नहीं, परंपरा के प्रतीक हैं। हमारी परंपरा हत्यारी कैसे हो सकती है? 

इन दिनों इंसानों नहीं, हिन्दुस्तानियत को जिबह करने की जुगत हो रही है। 

धर्म के नाम पर हिंसा फैलाना एक आसान नुस्खा बन गया है, मगर जब हिंसा की आग धधक उठती है, तो वह जाति या धर्म पूछकर नहीं जलाती। सहारनपुर की खूंरेजी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वहां टकराव धार्मिक नहीं, बल्कि जातीय समुदायों में हुआ। नतीजतन, तीन लोगों को जान गंवानी पड़ी और सरकारी मशीनरी को जो समय विकास कार्यों में लगाना चाहिए था, वह कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाने में बीत गया। अब भी इस अंचल में बेहद तनाव है। 

समूचा पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे जातीय या धार्मिक विभाजन से जूझ रहा है। पिछले ही हफ्ते बिजनौर में पनप रहे एक सांप्रदायिक तनाव के सिलसिले में जब पुलिस दल वहां पहुंचा, तो उस पर संगठित ग्रामीणों की फौज ने हमला बोल दिया। ध्यान दें, गिरिडीह में भी ऐसा ही हुआ। दहशतगर्दों और दंगाइयों की नीति-रीति में फर्क समाप्त होने लगें, तो आशंकाएं उठनी लाजिमी हैं। यह चौंकाने वाला तथ्य है कि सामाजिक अलगाव की इस आंधी में पुलिस की वर्दी का इकबाल भी डोलता प्रतीत हो रहा है। कश्मीर से लेकर दार्जिलिंग तक जिस तरह पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों पर पत्थरबाजी हुई, उससे कुछ नए पर बेहद डरावने संकेत मिलते हैं। 

जब कानून के रखवाले असुरक्षित हो जाएंगे, तो हमारी रक्षा कौन करेगा?

कुछ ‘विद्वान’ इसे मौजूदा निजाम की देन बताकर निजी स्वार्थों की रोटी सेंकना चाहते हैं। मैं यहां स्पष्ट करना चाहता हूं कि भीड़ की यह अवांछित न्याय प्रवृत्ति दशकों पुरानी है। बीबीसी द्वारा प्रकाशित एक लेख के अनुसार पश्चिम बंगाल के लंबे वामपंथी शासन में ‘मॉब लिंचिंग’ की तमाम घटनाएं सामने आई थीं। सिर्फ 1982 से 84 के बीच में 600 से अधिक लोग देश के विभिन्न हिस्सों में क्रुद्ध भीड़तंत्र के शिकार हुए थे। त्रासदी का यह खुला खेल इतना लंबा कैसे खिंचा?

खून-खराबे के इस लंबे सिलसिले से जाहिर है कि हमारे राजनेताओं को इससे जूझने की बजाय इसे बढ़ाने में आनंद आया। उन्होंने इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की बजाय उसे हवा दी। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री आजम खान ने पिछले दिनों सेना के लिए जो बयान दिया, वह जताता है कि हमारे राजनेता ऐसे मुद्दों पर कितने संजीदा हैं! वह अकेले नहीं हैं। हर पार्टी और दल में इस दलदल को बढ़ाने वाले लोग मौजूद हैं। आप कुछ ‘महाराजों’ और ‘साध्वियों’ के बयान देख या पढ़ लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि आजादी के बाद जिन लोगों पर विभाजन के मारे देश को भावनात्मक तौर पर मजबूत बनाने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही अपने समर्थकों के साथ विश्वासघात किया।

यही लोग देश की संसद या विधानमंडलों में बैठते हैं, मंत्री बनते हैं और कानून बनाते हैं। 

क्या सिर्फ भारत में ऐसा हो रहा है? नहीं। समूची दुनिया इसकी चपेट में है। खुद को विकसित कहलाने का दंभ भरने वाला अमेरिका और उसके पिछलग्गू खुद सामाजिक अलगाव की चपेट में हैं। वहां धार्मिक, नस्लीय और भाषायी विभाजन की खाई हर रोज चौड़ी होती जा रही है। और तो और, बौद्ध धर्म को मानने वाले म्यांमार में, जहां समभाव की सत्ता होनी चाहिए थी, रोहिंग्या मुसलमानों पर कहर टूट पड़ा है। इसका असर हमारे उपमहाद्वीप पर भी पड़ रहा है। भारत में भी वहां से आए हजारों मुसलमान शरणार्थी बस गए हैं, जिससे जम्मू जैसे शहरों का संतुलन गड़बड़ा गया है। इसी तरह, यूरोप के वे देश, जो कभी राजनीतिक विस्थापितों को शरण देकर गौरवान्वित महसूस करते थे, वे खुद अपनी नीतियों पर पुनर्विचार को बाध्य हैं। आज वहां शरणार्थियों के खिलाफ आंदोलन उठ रहे हैं। 

सवाल उठता है कि 21वीं शताब्दी क्या अलगाव और विभाजन की त्रासदी अपने साथ लेकर आई है? इस प्रश्न का उत्तर सत्ता नहीं, बल्कि सामाजिक समूहों को खोजना होगा।

सुकून की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गए गुरुवार को गोरक्षा के नाम पर जारी हिंसा और हत्या की कड़ी निंदा की। वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं, मगर इन कट्टरपंथियों पर कोई असर नहीं पड़ा। उम्मीद है, जरूरत पड़ने पर उनके साथ कड़ाई भी की जाएगी। 

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@shekharkahin 
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