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मायावती की इस्तीफा मिसाइल

उस अवाक् कर देने वाले लम्हे ने गुजरे मंगलवार को राज्यसभा में अचानक आकार ग्रहण किया। उप-सभापति पी जे कुरियन ने मायावती को दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर बोलने के लिए तीन मिनट का समय दिया था। वह अपनी बात रख...

मायावती की इस्तीफा मिसाइल
शशि शेखरSun, 23 Jul 2017 06:39 PM
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उस अवाक् कर देने वाले लम्हे ने गुजरे मंगलवार को राज्यसभा में अचानक आकार ग्रहण किया। उप-सभापति पी जे कुरियन ने मायावती को दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर बोलने के लिए तीन मिनट का समय दिया था। वह अपनी बात रख रही थीं कि उप-सभापति ने संकेत सूचक घंटी बजा दी। इस पर वह आग-बबूला हो गईं और यह कहते हुए सदन का बहिर्गमन कर दिया कि मैं जिस समाज से संबंध रखती हूं, उससे जुडे़ मुद्दे उठाने से मुझे कैसे रोका जा सकता है? अगर मैं दलितों के खिलाफ हो रही ज्यादतियों को लेकर अपनी बात सदन में नहीं रख सकती, तो मुझे इस सदन में बने रहने का कोई नैतिक हक नहीं है। 

बाद में फेसबुक पर एक लंबा-चौड़ा खत ‘शेयर’ किया गया, जिसमें ‘बहनजी’ के राज्यसभा से इस्तीफे के निर्णय और उनके कारणों का विस्तार से जिक्र किया गया था। हालांकि, उप-सभापति ने बुधवार को अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए उनसे इस्तीफा वापस लेने को कहा, पर वह अडिग रहीं और दोबारा त्यागपत्र भेज दिया, जिसे स्वीकार कर लिया गया। सवाल उठता है कि क्या उन्होंने आवेग और आवेश के चलते ऐसा किया? संभव है ऐसा हो, पर लोग तो यही कहेंगे कि वह मंझी हुई राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने संसद के मानसून सत्र का बहुत सलीके से अपने हित में इस्तेमाल कर लिया। 

मायावती का करियर ग्राफ शुरुआती दौर में खासा निराशाजनक रहा। 1984, ’85 और ’87 में लोकसभा पहुंचने के उनके प्रयास नाकाम हुए थे। दिसंबर 1989 में वह पहली बार बिजनौर से चुनी गईं। मार्च 1991 में लोकसभा भंग हो गई और फिर अप्रैल 1994 में वह राज्यसभा में दाखिल हुईं। तीन जून, 1995 को भाजपा की मदद से देश के सर्वाधिक विशाल सूबे उत्तर प्रदेश की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री बनीं। तब से पिछली अप्रैल में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों तक मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहीं। वह चार बार इस गौरवशाली प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। यह रिकॉर्ड अब तक सिर्फ चंद्रभानु गुप्त और नारायणदत्त तिवारी जैसे दिग्गजों के नाम रहा है। इस दौरान उन्होंने बड़ी चतुराई से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस, दोनों को हाशिये पर धकेलने में सफलता हासिल की। 

उत्तर प्रदेश मार्च 2012 तक तमिलनाडु के ‘मोड’ में अपना सियासी सफर तय कर रहा था। जैसे वहां गेंद जयललिता अथवा एम करुणानिधि के बीच रहती, वैसे ही यहां सपा और बसपा के बीच सत्ता की लड़ाई होती थी। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़कर 1990 के बाद उपजे इस समीकरण को ध्वस्त कर दिया। भाजपा ने बसपा के अति दलित और  अति पिछड़े वोट बैंक में निर्णायक सेंधमारी की। नतीजतन, बसपा इस विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटों पर सिमटकर रह गई। इतने कम एमएलए मायावती को दोबारा राज्यसभा में नहीं पहुंचा सकते। सफलता के शीर्ष से इस हद तक लुढ़कना यकीनन तकलीफदेह था। 

कौन है इसके लिए जिम्मेदार? 

अगर सफलता मायावती की वजह से मिली थी, तो असफलता का दारोमदार भी उन्हीं पर आता है। 2007 में चौथी बार वह पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बनी थीं और यहीं से उनके सियासी बिखराव की शुरुआत हुई। उनके सलाहकारों ने समझाया कि आपकी जान को खतरा है। उनका सुरक्षा घेरा इतना कस दिया गया कि हवा को भी उन तक पहुंचने के लिए अंगरक्षकों की फौज पार करनी पड़ती है। अगर आप उनसे मिलने जाएं, तो प्रधानमंत्री से भी अधिक ताम-झाम से होकर गुजरना पडे़गा। हो सकता है कि उन्हें वाकई जान का भयंकर खतरा हो, पर इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि बहुजन समाज उनसे कटता गया। कभी वह उन दलितों और वंचितों की उम्मीदों के प्रतीक के तौर पर उभरीं थीं, जिनके लिए पुलिस का सिपाही अथवा पटवारी तक पुराने जमाने के राजाओं अथवा नवाबों से कम नहीं होता। इन हालात में वे भला उन तक अपनी बात सीधे कैसे पहुंचा सकते थे? 

ऐसा नहीं है कि वह उन्हें अनसुना करना चाहती थीं। इस काम के लिए उन्होंने कैडर आधारित पार्टी बनाई थी। कार्यकर्ताओं का काम था कि वे आम आदमी की आवाज को मंझोले नेताओं तक पहुंचाएं और ये नेता अपने शीर्ष नेतृत्व तक मुद्दे पहुंचाने के लिए जवाबदेह थे, पर यह कड़ी टूट गई। वजह? पार्टी के अधिकांश टिकट धनीमानी लोगों के लिए ‘रिजर्व’ होते गए। दलित, अल्पसंख्यक अथवा पिछड़ी जाति के लोग स्वजातीय होने के बावजूद इन प्रत्याशियों में अपना अक्स नहीं देख पाते थे। इससे विपक्षियों को यह कहने का अवसर भी मिला कि बसपा में टिकट बेचे जाते हैं। 

हालांकि, आरोप लगाने वाले कभी सुबूत नहीं पेश कर सके। 

वह पहले परिवारवाद को कोसती थीं। अपने ‘मिशन’ के लिए उन्होंने खुद का परिवार नहीं बसाया, इसीलिए दलित उन्हें देवी मानते थे। दलित वोट बैंक को विस्तार देते हुए जब उन्होंने अति पिछड़ों को अपने से जोड़ने की कोशिश की, तो कामयाबी मिली। वजह? वंचितों को उनमें संघर्ष और त्याग नजर आता था। लोगों को लगता था कि मायावती की वाणी में उनकी अपनी भावना बह चली है, पर कालांतर में उनके भाई का पार्टी और प्रशासन में दखल बढ़ता गया। अब मायावती का भतीजा भी राजनीतिक मंचों पर उनके साथ दिखता है। इसी बीच नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबू सिंह कुशवाहा और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे जमीनी नेता उनको छोड़कर अलग हो गए। उन्होंने ऐसे आरोप लगाए, जिससे पार्टी की छवि धूमिल हुई। 
जाहिर है, मायावती को पुराने तेवर अपनाने के लिए अपना मौजूदा आवरण उतारना था। राज्यसभा में जब उनका कार्यकाल महज आठ-नौ महीने का रह गया, तो उन्होंने बेहतरीन सियासी चाल चली। इस्तीफे के बाद से वह दलित विमर्श के केंद्र में आ खड़ी हुई हैं। भाजपा ने भीम एप और दलित राष्ट्रपति के जरिए जो सुर्खियां बटोरी थीं, उसका प्रवाह बाधित हो गया है। अगर वह लोकसभा चुनावों तक जमीन पर उतरकर संघर्ष करती हैं, तो दिल दहला देने वाली असफलता का प्रकोप कम हो सकता है।

जो उन्हें चुका हुआ मानते हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा को पहले से ज्यादा मत मिले थे। लोकसभा में थोड़ी सी सही, पर बढ़ोतरी तो हुई ही थी। यह भी सच है कि बसपा आज भी मुल्क की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। सहारनपुर की घटनाओं ने उन्हें अवसर दे दिया है। इसी बीच लालू यादव ने मायावती को राज्यसभा में भेजने की पेशकश कर नए ध्रुवीकरण के संकेत दिए हैं। क्या आने वाले दिनों में हम एक मोदी विरोधी संयुक्त मोर्चे को आकार लेता हुआ देखेंगे? अगर ऐसा होता है, तो इसमें मायावती यकीनन केंद्रीय भूमिका में होंगी। 

फौज की एक कहावत है। अफसर दो किस्म के होते हैं- ‘लॉयल लेफ्टिनेंट्स’ और ‘गुड कैप्टन्स’। देशज शब्दों में इनका अनुवाद कुछ यूं होगा- वफादार और काबिल। तानाशाही के लिए ‘लॉयल लेफ्टिनेंट्स’, तो जंग जीतने के लिए ‘गुड कैप्टन्स’ की दरकार होती है। कभी वह कांशीराम की ‘गुड कैप्टन’ थीं, पर उन्होंने ‘लॉयल लेफ्टिनेंट्स’ को तरजीह दी। अब उन्हें ‘गुड कैप्टन्स’ की दरकार है। क्या वह उन्हें तैयार पाएंगी?

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