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अतिपंथी आंदोलन की आधी सदी

एक सुबह स्कूल जाते समय इलाहाबाद के ‘बच्चा पार्क’ की दीवार पर बांग्ला में नारा लिखा देखा- ‘आमारबाड़ी, तोमारबाड़ी, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी’ यानी मेरा घर, तुम्हारा घर,...

अतिपंथी आंदोलन की आधी सदी
शशि शेखरTue, 23 May 2017 09:04 PM
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एक सुबह स्कूल जाते समय इलाहाबाद के ‘बच्चा पार्क’ की दीवार पर बांग्ला में नारा लिखा देखा- ‘आमारबाड़ी, तोमारबाड़ी, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी’ यानी मेरा घर, तुम्हारा घर, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी। बरसों बाद अल्मोड़ा से गुजरते समय हिंदी में विप्लव का संदेश देते नारे दिखाई दिए थे। दोनों आह्वानों में हंसिया और हथौड़ा का प्रतीक चिह्न समान था। मन में सवाल उभरा कि पीढ़ियां बीत जाने के बावजूद माओवादियों का यह संघर्ष किस मुकाम पर पहुंचा है? 

इस मुद्दे पर बात करने के लिए यह खासा मौजूं समय है, क्योंकि आगामी 25 मई को माओवादी हिंसक आंदोलन अपनी आधी शताब्दी पूरी कर लेगा। 
नई पीढ़ी के लिए बता दूं कि मार्च 1967 में पश्चिम बंगाल स्थित नक्सलबाड़ी इलाके में आयोजित एक सभा में किसान-मजदूर हितैषी शासन लागू करवाने के लिए सशस्त्र आंदोलन का फैसला किया गया। इसके प्रणेता थे, चारू मजूमदार। अगली 23 मई को इसी उद्देश्य से बुलाई गई सभा में पुलिस और ‘जनांदोलनकारियों’ के बीच संघर्ष हो गया, जिसमें एक पुलिस अधिकारी मारा गया। यह सिर्फ शुरुआत थी। दो दिन बाद यानी 25 मई को नक्सलबाड़ी में किसानों की बड़ी सभा पर पुलिस दल ने हमला बोल दिया, जिसमें नौ महिलाओं और बच्चों को जान गंवानी पड़ी। उस समय वामपंथी विचारधारा की मिली-जुली सरकार कलकत्ता की राइटर्स बिल्डिंग पर काबिज थी। ज्योति बसु गृह मंत्री हुआ करते थे। कड़ाई के आदेश का अनुमोदन भी उन्हीं का था।

इसी मुकाम पर पांच दशकों से चले आ रहे इस खूनी खेल का आगाज हुआ। आप इसे माओवादी अतिपंथियों के आंदोलन की आधी शताब्दी भी कह सकते हैं।
पिछले महीने की 24 तारीख को सुकमा में 26 सीआरपीएफ जवानों के मारे जाने के बाद कुछ लोगों को लगा कि यह आंदोलन अभी तक शबाब पर है, लेकिन ऐसा मान बैठना अर्द्धसत्य पर यकीन करना होगा। हकीकत यह है कि शोषण-मुक्ति के नाम पर शुरू हुआ यह संघर्ष धीमे-धीमे ‘नाक की लड़ाई’ में तब्दील होता गया और यहीं से बिखराव की शुरुआत हुई। इस साल 17 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में बताया था कि वामपंथी हिंसा से प्रभावित जिलों की तादाद 106 से घटकर 68 रह गई है। पहले इनका प्रभुत्व 20 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था, जो अब एक-चौथाई से कम में सिमट गया है। यह घटोतरी बरस-दर-बरस हुई है। 2009 में तत्कालीन गृह मंत्री ने संसद को जानकारी दी थी कि देश के 223 जिले कमोबेश नक्सलवाद से प्रभावित हैं। 2011 में इनकी संख्या 203 पर सिमट गई थी। इनमें से 84 जिलों में हिंसक वारदातें हो रही थीं, जबकि 119 जिले वैचारिक प्रवाह की चपेट में थे। तीन साल बाद नक्सली हिंसा की 80 फीसदी वारदातें सिर्फ 26 जिलों में हुईं, फिर भी देश के सात राज्य इससे प्रभावित थे। मौजूदा हालात में देश के छह जिले नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित बताए जाते हैं। 

मतलब साफ है, आंदोलन का रक्तिम आलोक धुंधला पड़ रहा है। क्यों? 
कुछ विश्लेषक इसका श्रेय मनरेगा को देते हैं। मनरेगा ने दमितों-शोषितों की जेब को पहली बार चिर हलकेपन के एहसास से उबारा। इससे असंतोष की मात्रा में कमी आई। इसके साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों ने केंद्रीय बलों की सहायता से आतंक-विरोधी अभियान को चलाने के साथ प्रभावित इलाकों में विकास को तरजीह दी। स्कूल, मोबाइल टावर, आपसी वैमनस्य और अपने लोगों का मोहभंग इस आंदोलन के छीजने का कारण बना। नक्सलवादी हर तरह के विकास के खिलाफ साबित हुए हैं। वे सरकारी मशीनरी के सभी कामों में बाधा पहुंचाने के साथ अपना सबसे बड़ा दुश्मन सड़कों को मानते हैं। यही सड़कें आदिवासियों को बाहर की दुनिया दिखाती हैं। इन्हीं के जरिये विकास वहां पहुंचता है और इन्हीं पर दौड़ते हुए सुरक्षा बलों के वाहन नक्सलियों की मांद तक मार कर पाते हैं। 

सुकमा में सीआरपीएफ के जिन जवानों पर हमला हुआ, वे भी सड़क-निर्माण की निगहबानी कर रहे थे। 
मामला महज सुरक्षा बलों पर हमले तक सीमित नहीं है। रोम की साम्राज्यवादी सेना की तरह माओवादी भी जबरन अबोध बच्चों को अगवा कर लेते हैं। रोमन उन्हें ग्लेडिएटर बनाते थे, जबकि ये उन्हें जन संघर्ष के सिपाही की उपाधि से नवाजते हैं। जो अबोध ‘जन-चेतना’ और ‘जन-युद्ध’ जैसे भारी-भरकम सिद्धांतों से अपरिचित हैं, उनसे जासूसी से लेकर हिंसा तक करवाई जाती है। लोगों को पीटना और उनके अंग-भंग करना नक्सलियों केप्रशिक्षण का हिस्सा होता है। जो बच्चा सबसे पहले हत्याकांड में भाग ले ले, उसे शाबाशी दी जाती है। हिंसक संघर्ष के समर्थक इन बच्चों को रक्त-पिपासु बनने के लिए उकसाते हैं- अगर तुममें वर्ग शत्रुओं की हत्या का जज्बा नहीं जागता, तो तुम संघर्ष के काबिल नहीं। 
कुछ बच्चे अथवा बगावती नौजवान इसे अपनी नियति बना बैठते हैं, पर वक्त की करवट के साथ इस आंदोलन से उचटे कामरेडों की कतार में बढ़ोतरी हो रही है। साल 2011 में जहां 394 वाम अतिवादियों ने आत्मसमर्पण किया था, वहीं 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 1,442 हो गई। इसी तरह, इन संगठनों से जुडे़ 1,840 लोग पिछले साल गिरफ्तार किए गए। एक आत्म-समर्पित वाम उग्रवादी ने पुलिस को बताया था कि मैं शादी कर बच्चे पैदा करना चाहता हूं, और सामान्य जीवन जीना चाहता हूं। मेरे सपने भंग हो चुके हैं। मैंने पाया है कि ‘ये लोग’ कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे। इसी महीने इनके दो एरिया कमांडर भी आत्म-समर्पण करते वक्त कुछ ऐसी ही भाषा बोल रहे थे।

माओवादियों के घोषित नारे- ‘जल, जंगल, जमीन, इज्जत और अधिकार’ का एक चेहरा यह भी है।
आत्म-समर्पित माओवादियों के बयानों का एक और फलितार्थ है, विचारों से उपजी जंग को वैचारिक तौर पर लड़ा और जीता जाना चाहिए। शोषकों और शोषितों की लड़ाई इंसानियत के जन्म के साथ शुरू हुई है। इसे खत्म करने के लिए बंदूकों की नहीं, सोच की जरूरत है। शताब्दियों से जारी इस जंग को मुकाम तक पहुंचाने के लिए हिंसा के फास्टफूड मार्का फलसफे अपर्याप्त हैं।

यही वह बिंदु है, जो सुकमा जैसे हमलों के बावजूद अमनपसंदों को दिलासा देता है कि हिंसा एक बंद गली का आखिरी मकान है। यह अफसोस के साथ समाप्त होती है और इस कष्ट भरे एहसास तक पहुंचने के लिए रक्त-पिपासुओं को त्रासदियों के दुर्गम दर्रों से गुजरना होता है। माओवादी गुरिल्लों को अब समझ जाना चाहिए कि लोकतंत्र में शोषण मुक्ति की रहगुजर सहमति से बनती है, बंदूकों की आग उगलती नलियों से नहीं। वे सही लड़ाई गलत तरीके से लड़ रहे हैं।

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