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कट्टरता का धर्म

न जाने क्यों जब हम कट्टरता की बात करते हैं, तो हमारे मन में धर्म का ख्याल आने लगता है। यह सच है कि कुछ धार्मिक लोग काफी कट्टर होते हैं और वे अपनी कट्टरता पर गर्व भी करते हैं। यह भी सच है कि इतिहास...

कट्टरता का धर्म
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न जाने क्यों जब हम कट्टरता की बात करते हैं, तो हमारे मन में धर्म का ख्याल आने लगता है। यह सच है कि कुछ धार्मिक लोग काफी कट्टर होते हैं और वे अपनी कट्टरता पर गर्व भी करते हैं। यह भी सच है कि इतिहास में कई ऐसे दौर भी आते हैं, जब बहुत से लोग कट्टर हो जाते हैं। लेकिन अगर ऐसी स्थितियों को छोड़ दें, तो यह भी देखा गया है कि आमतौर पर धार्मिक लोग न सिर्फ उदार होते हैं, बल्कि कई मामलों में सहिष्णु भी होते हैं। वे दूसरे धर्मावलंबियों और दूसरे विचारों के खिलाफ उग्र नहीं होते। इसके विपरीत कई नास्तिक लोग भी कट्टर होते हैं। इसी से यह बहस निकली है कि धार्मिक लोगों और नास्तिक लोगों में ज्यादा कट्टर कौन होता है? माना जाता है कि धार्मिक लोगों के पास आस्था होती है, यह आस्था ही उनका सबसे बड़ा तर्क होती है, जबकि नास्तिक लोगों के पास तर्क होते हैं, और ये तर्क ही उनकी सबसे बड़ी आस्था होते हैं। एक सोच यह है कि आस्था या तर्क किसी को कट्टर नहीं बनाते, सहिष्णु होना और असहिष्णु होना हमारी प्रवृत्ति में होता है, इसके लिए आस्था या तर्क को दोष देना ठीक नहीं। बेल्जियम के कैथोलिक विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के अध्येता फिलिप उजरेविक ने इसका जवाब ढूंढ़ने के लिए बाकायदा एक अध्ययन कर डाला। इसके लिए उन्होंने ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन में तकरीबन 700 लोगों का सर्वे किया और जो नतीजे निकले, वे चौंकाने वाले हैं।

उन्होंने पाया कि नास्तिक हालांकि मानते यही हैं कि वे ज्यादा खुले दिमाग के हैं और हर नजरिये को निष्पक्ष ढंग से समझते हैं, लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है। बल्कि इसके विपरीत धार्मिक लोग कई मामलों में ज्यादा खुले दिमाग के होते हैं और बिल्कुल अलग किस्म के नजरिये को स्वीकार करते हैं। इस अध्ययन का मकसद धर्म और बंद दिमाग का रिश्ता ढूंढ़ना था। इसके लिए उन्होंने धार्मिक और नास्तिक लोगों के मानसिक अड़ियलपन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन किया। वह इस नतीजे पर पहंुचे कि हालांकि धार्मिक लोग ज्यादा अड़ियल माने जाते हैं, लेकिन अक्सर अड़ियलपन नास्तिक लोगों में ज्यादा होता है। दिलचस्प बात है कि ये नतीजे मनोविज्ञान में प्रचलित सोच के विपरीत हैं।

इस अध्ययन को अगर छोड़ भी दें, तब भी नास्तिकता और आस्तिकता को लेकर हमारी सोच पिछले कुछ समय में काफी बदली है। पहले यह कहा जाता था कि दुनिया में बड़े पैमाने पर नरसंहार धर्मयुद्धों और सांप्रदायिक दंगों में हुए हैं। यह बात अब भी मानी जाती है, लेकिन इसके साथ यह भी स्वीकार किया जाता है कि सबसे ज्यादा हत्याएं करने वाले शासन-प्रमुख हिटलर, स्टालिन, पोलपोट और माओ रहे हैं, और ये सब के सब नास्तिक थे। हालांकि धर्मयुद्धों, सांप्रदायिक दंगों और इन तानाशाहों की हरकतों में एक बात समान है कि ये सारे कारनामे सत्ता से जुड़े हुए थे। इन्हें सीधे आस्तिकता या नास्तिकता से जोड़कर देखना शायद पूरी तरह सही नहीं होगा। मानव समाज को दिक्कत न तो आस्तिकता से होती है और न ही नास्तिकता से। दिक्कत उन धर्म वालों से होती है, जो जोर-जबर से सबको अपने धर्म में शामिल करने के लिए कमर कस लेते हैं, या उन नास्तिकों से होती है, जो सबको उनकी आस्था से दूर ले जाकर तर्क की दुनिया में बिठा देने की जिद पाल लेते हैं। यही कट्टरता है, जो आस्तिक या नास्तिक किसी में भी हो सकती है, जबकि इसके विपरीत सहिष्णुता यह कहती है कि हर किसी को अपनी आस्था या विवेक के अनुसार जीने का हक है। दुनिया को इसी सहिष्णुता की जरूरत है, इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि असहिष्णुता किसमें कितनी कम है और किसमें कितनी ज्यादा? 

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