ब्रिटेन से निकले जनादेश के मायने
ब्रिटेन के मतदाताओं ने खंडित जनादेश ही नहीं दिया, पूरे यूरोप के समीकरणों को उलझा दिया है। प्रधानमंत्री थेरेसा मे को उस धारा की उपज माना जाता था, जो ब्रेग्जिट यानी ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करने...
ब्रिटेन के मतदाताओं ने खंडित जनादेश ही नहीं दिया, पूरे यूरोप के समीकरणों को उलझा दिया है। प्रधानमंत्री थेरेसा मे को उस धारा की उपज माना जाता था, जो ब्रेग्जिट यानी ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करने के आंदोलन से पैदा हुई थी। उन्हीं की कंजरवेटिव पार्टी के पिछले प्रधानमंत्री डेविड कैमरन नहीं चाहते थे कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो, इसलिए ब्रेग्जिट पर हुए जनमत संग्रह में जब उम्मीद के विपरीत उनकी हार हुई, तो उन्होंने फौरन इस्तीफा दे दिया और थेरेसा मे प्रधानमंत्री बनीं। फिर अचानक ही थेरेसा मे ने मध्यावधि चुनाव कराने का फैसला किया। उनका तर्क था कि वह चाहती हैं कि जब वह ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करने की बातचीत के लिए बैठें, तो उनके पास ज्यादा बड़ा जनादेश हो। लेकिन ज्यादा बड़ा जनादेश तो दूर, उनकी पार्टी प्रतिनिधि सदन हाउस ऑफ कॉमन्स में अपना बहुमत भी खो बैठी। हालांकि कंजरवेटिव पार्टी अभी भी सदन का सबसे बड़ा दल है और इसी बिना पर थेरेसा मे ने अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है। भारतीय राजनीति की शब्दावली इस्तेमाल करें, तो हो सकता है कि वह जोड़-तोड़ से कोई उम्मीद पाले बैठी हों, लेकिन ब्रिटेन की आम प्रतिक्रिया तो यही बताती है कि लोगों ने उन्हें पराजित नेता मान लिया है। यह ठीक है कि इस राजनीति में लेबर पार्टी के नेता जर्मी कारबिन की लोकप्रियता बढ़ी है, पर उनकी पार्टी सीटों की संख्या में कंजरवेटिव के मुकाबले काफी पीछे है। वह यदि जोड़-तोड़ से सरकार बना भी लेते हैं, तो उसके लंबा चलने की संभावना नहीं है।
लेकिन यह सब आगे की बात है। फिलहाल तो सवाल यही पूछा जा रहा है कि थेरेसा मे के जाने के बाद अब ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने का क्या होगा? अलग होने की इस प्रक्रिया के लिए ब्रिटेन और यूरोपीय संघ में 19 जून से बातचीत शुरू होने जा रही है। जाहिर है, जो भी सरकार बनेगी, उसकी यह पहली बड़ी जिम्मेदारी होगी। जनमत संग्रह के बाद ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करना अब एक तरह की सांविधानिक बाध्यता है। वहां अनुच्छेद-50 में इसके लिए बाकायदा एक प्रावधान भी कर दिया गया है। यानी अब वहां किसी भी विचारधारा की कोई भी सरकार बने, उसे ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना ही होगा। लेकिन जो भी सरकार अब ब्रेग्जिट की वार्ता में बैठेगी, उसके पास न तो पहले जैसा जज्बा होगा और न पहले जैसा जनादेश। यह भी कहा जा रहा है कि ब्रिटेन में बहुत से मतदाता ऐसे हैं, जो ब्रेग्जिट के पक्ष में वोट डालकर पछता रहे थे, इसलिए इस बार उनका वोट दूसरी तरफ गया है। अगर यह सच भी है, तो ऐसे मतदाता इतने नहीं थे कि उनके वोट कोई निर्णायक बदलाव कर पाते।
कुछ लोग ब्रिटेन के ताजा मध्यावधि आम चुनाव में एक और बदलाव की आहट सुन रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले तक यह कहा जा रहा था कि पूरी दुनिया निर्णायक रूप से दक्षिणपंथ की ओर जा रही है। खासकर डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद तो इसे अटल सत्य माना जाने लगा था। वैसे इसके पहले ब्रिटेन में लगातार दो आम चुनाव कंजरवेटिव पार्टी ने ही जीते थे। लेकिन वहां के ताजा नतीजों ने इस विश्वास को खंडित किया है। हालांकि इसे पूरी तरह से दक्षिणपंथ की मात भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी इसे एक सिलसिले के रूप में फ्रांस के पिछले चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है, जहां दक्षिणपंथी दल को मात मिली थी। लेकिन फिलहाल दक्षिणपंथ और वामपंथ की यह सोच विश्लेषकों के लिए है, ब्रिटेन की जनता को तो एक मजबूत सरकार चाहिए थी, जिसका कोई आश्वासन ताजा चुनाव नतीजों में नहीं है।