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बारिश और महानगर

मुंबई एक बार फिर जबर्दस्त बारिश और शहर में उतरे ‘समंदर’ से परेशान है। इंसानी मनमानी से उपजे हालात में मानसून की मनमानी ने देश की आर्थिक राजधानी को फिर से हिला दिया है। मुंबई ठहर सी गई है...

बारिश और महानगर
हिन्दुस्तानThu, 31 Aug 2017 12:16 PM
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मुंबई एक बार फिर जबर्दस्त बारिश और शहर में उतरे ‘समंदर’ से परेशान है। इंसानी मनमानी से उपजे हालात में मानसून की मनमानी ने देश की आर्थिक राजधानी को फिर से हिला दिया है। मुंबई ठहर सी गई है और आने वाले खतरे के प्रति सहमी भी। महानगर में जिस तरह सड़कें ठहर गईं, हवाई अड्डों पर पानी आ जाने से विमान सेवाएं अस्त-व्यस्त हो गईं, रेलवे ट्रैक डूबने से ट्रेनें ठप हो गईं और लाखों लोग जहां-तहां फंसकर रह गए, उससे 2005 की तबाही याद आ गई। इस बार इंसानी जानें भले कम गई हों, पर संकट छोटा नहीं है। संकट नया भी नहीं है। यह हर साल आता है और मुंबईकर को रुलाता है। मुंबईकर अब इसके अभ्यस्त हो चले हैं। वे इस बात के भी अभ्यस्त हैं कि प्रशासन ने हमेशा की तरह इस बार भी ऐसा कुछ नहीं किया होगा, जो उन्हें राहत दे सके। लेकिन क्या यह अकेले मुंबई का  ही संकट है? शायद नहीं।

अब समय आ गया है कि हम प्राकृतिक आपदा के नाम पर रुदाली करना बंद करें और अगला सीजन आने से पहले शहर-नियोजन की अपनी खामियों को तलाशें, समझें और उन्हें दूर करके स्थाई समाधान देने की दिशा में कुछ सार्थक और ईमानदार कोशिश करें। यह बारिश के मौसम में हर उस शहर का सच है, जिसे हम आधुनिक और अत्याधुनिक ही नहीं कहते, स्मार्ट सिटी भी बना रहे हैं। मुंबई ही क्यों, दिल्ली, बेंगलुरु, अहमदाबाद, चेन्नई या पुणे को लें या फिर लखनऊ, चंडीगढ़, भोपाल, पटना जैसी राजधानियों को, शहरी विकास के नाम पर विशाल अट्टालिकाओं के बीच पानी की निकासी का कोई इंतजाम नहीं हुआ है। इन सभी शहरों में 20 साल पहले की तेज बारिश में जैसे हालात होते थे, आज उससे कहीं बदतर हैं। होना तो चाहिए था कि विज्ञान के दौर में हम ज्यादा उच्च गुणवत्ता वाली तकनीक के सहारे 20-30 साल पहले वाली मुश्किलों से निजात पा लेते, लेकिन हुआ उलटा। पुरानी समस्याएं तो दूर हुईं नहीं, नियोजन की अदूरदर्शिता और भ्रष्टाचार ने समस्याओं की राई से पहाड़ जरूर खड़े कर दिए। पहले जहां शहर के इक्का-दुक्का इलाके बारिश में जलमग्न होते थे, अब पूरा शहर ही डूबने को हो आता है। दिल्ली-नोएडा-गाजियाबाद वाले इस कल्पना से ही सिहर सकते हैं कि मुंबई जैसी मूसलधार बारिश में इनका क्या हाल होता?

पुरानी कहावत है कि जो शहर या इलाका बारिश की उपेक्षा करता है, बारिश उसे शिकार जरूर बनाती है। हमारे महानगर इस कहावत को बार-बार साबित कर रहे हैं। महानगरों में उगे कंक्रीट के जंगलों में पानी के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई। न जल-संचय के लिए, न जल-निकासी के लिए। नतीजा हमारे शहर बारिश और गरमी, दोनों में प्रकृति की मार के रूप में कभी पानी का संकट झेलते हैं, तो कभी पानी से उपजा संकट, जो दरअसल प्रकृति नहीं, मानव की ही देन है। सच तो यही है कि यह सब हमारे नीति-नियंताओं की नजर या कहें उनकी ‘देख-रेख’ में हुआ। वरना कोई कारण नहीं कि मुंबई, दिल्ली, चेन्नई या बेंगलुरु जैसे शहरों में पिछली गलतियों से सबक लेकर अगली बार के लिए इंतजाम न कर लिए गए होते। मुंबई में राहत की नाव कितनी चली, यह अलग बात है, लेकिन राजनीति के पक्ष-प्रतिपक्ष की नाव जरूर दौड़ पड़ी है। बेहतर होता कि आपदा के ऐसे समय में सभी दल अपने निजी हित छोड़ किसी स्थाई समाधान के रोडमैप पर सहमति बना पाते। राजनीति को छोड़कर यह बात होती कि पुरानी गलती को सुधारने के लिए कौन सी तरकीब निकाली जाए कि कोई भी शहर अब भविष्य में फिर से ऐसी तबाही न भुगते। 

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