फिर वही आपदा
ऐसा क्यों होता है कि बाढ़ जैसी आपदा का हम बार-बार शिकार होते हैं, लेकिन तब तक कुछ नहीं करते, जब तक कि अगली बार की बाढ़ राह नहीं बना लेती। अब तो कई बार बाढ़ को प्राकृतिक आपदा मानने का भी मन नहीं होता। हम...
ऐसा क्यों होता है कि बाढ़ जैसी आपदा का हम बार-बार शिकार होते हैं, लेकिन तब तक कुछ नहीं करते, जब तक कि अगली बार की बाढ़ राह नहीं बना लेती। अब तो कई बार बाढ़ को प्राकृतिक आपदा मानने का भी मन नहीं होता। हम तो मान बैठे हैं कि यह नियति है। हम यह भी मान बैठे हैं कि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा पर तो किसी का जोर है ही नहीं। हां, राहत-बचाव हमारे वश में है, सो जैसी जरूरत होगी, देख लेंगे। बिहार हो या असम, उत्तर प्रदेश हो या बंगाल, साल-दर-साल यही होता आया है। हमने न गलतियों से सीखा, न गलती करना छोड़ा। जब 2008 में प्रशासनिक अकर्मण्यता के कारण कुसहा तटबंध टूटा था, तब भी हम आंखें मूंदे बैठे थे और बिहार का बड़ा हिस्सा त्रासदी का शिकार हुआ था। कुसहा अस्सी के दशक में भी टूटा था, हमने तब भी कोई सबक नहीं लिया था।
इस बार कुसहा बांध भले न टूटा हो और कोसी अब तक अपेक्षाकृत शांत-स्थिर चित्त हो, फिर भी जो नौबत आई, वह चिंता की बात है। इस बार की बाढ़ 2008 से अलग है, 2007 से भी और 1984 की बाढ़ से भी अलग। 2007 से अलग इसलिए कि तब इसका दायरा बहुत बड़ा था। 2008 से अलग इसलिए कि इसका दायरा सिर्फ कोसी क्षेत्र तक भले सीमित रहा हो, लेकिन तबाही बड़ी थी। 1984 की बाढ़ से अलग इसलिए कि इतनी भयावह बाढ़ के बीच वह पहली और शायद अंतिम बार था, जब बिहार में बाढ़ को लेकर राजनीति का पक्ष-प्रतिपक्ष, सही अर्थों में सकारात्मक राजनीति करते दिखाई दिए थे। विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर ने यह कहकर सबको एक कर दिया था कि यह समय बाढ़ पर राजनीति करने का नहीं, बाढ़ से सबक लेकर दीर्घकालीन रणनीति बनाने का है। लेकिन सच यही है कि कुछ ही दिनों में सब इस पहल को भूल गए और कोई भी सरकार इसे लेकर दीर्घकालीन योजना तैयार करने पर कभी संजीदा हुई ही नहीं। कुल मिलाकर, हासिल हिसाब यही कि बाढ़ अब भी अपने पुराने रूपों में बार-बार आ रही है और राजनीति इस पर बस राजनीति से आगे कुछ नहीं कर पा रही।
सबक लेना यूं भी हमारी आदतों में शुमार नहीं। यह किसी एक राज्य की विडंबना नहीं, सभी राज्यों का सच है। एक ऐसा सच, जो बार-बार कहने को बाध्य करता है कि उस गलती से सबक लिया होता, तो इस बार यह गलती न होती। हम नदियों में लगातार जमा होती गाद की बात करते हैं। नदियों के लगातार उठते तल की बात करते हैं। बांधों के संकट और बांधों से संकट की बात करते हैं। लेकिन यह सब भी समय विशेष के बाद भुला दिया जाता है। यह भुला देना ही हमें दीर्घकालिक उपायों से दूर करता गया है। बिहार लंबे समय से गंगा की बाढ़ से बचने के लिए फरक्का बांध को हटाने और नदियों के गाद प्रबंधन की ठोस रणनीति की मांग करता रहा है, लेकिन इस पर भी कोई सुनगुन नहीं दिखाई दी है। सच तो यही है कि बिहार ने बाढ़ की जैसी तबाही साल-दर-साल झेली है, उसमें ऐसी दीर्घकालिक रणनीति बहुत पहले ही बन जानी चाहिए थी, जो इस विनाशलीला को थाम पाती। क्या अब भी हम सोचें कि इस बाढ़, या पिछले कुछ दशक में आईं तमाम बाढ़ के सबक लेकर कोई ऐसा विशेषज्ञ दल बनेगा, जो इसका जमीन पर अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट देगा? और क्या हमेशा की तरह ही यह भी उम्मीद की जाए कि उस अध्ययन दल की रिपोर्ट तमाम रिपोर्टों-सुझावों की तरह फिर सत्ता के कबाड़खाने में नहीं फेंक दी जाएगी? कैसे मान लें कि बाढ़ के पानी की तरह यह चिंता और सारी कवायद भी हमेशा की तरह बहुत ही जल्द भुलाई नहीं जाएगी?