फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन संपादकीयएक सीट का युद्ध

एक सीट का युद्ध

बड़ी-बड़ी मुश्किलें और मुद्दे धरे रह गए। चीन की एक और धमकी भी किनारे धरी रह गई। चंडीगढ़ की बहादुर बेटी वर्णिका के साथ हुई घटना का फॉलोअप भी दबा रह गया। जीएसटी, किसी धरना-प्रदर्शन या राजधानी के जाम की...

एक सीट का युद्ध
हिन्दुस्तानThu, 10 Aug 2017 12:07 AM
ऐप पर पढ़ें

बड़ी-बड़ी मुश्किलें और मुद्दे धरे रह गए। चीन की एक और धमकी भी किनारे धरी रह गई। चंडीगढ़ की बहादुर बेटी वर्णिका के साथ हुई घटना का फॉलोअप भी दबा रह गया। जीएसटी, किसी धरना-प्रदर्शन या राजधानी के जाम की चर्चा तक नहीं हुई, कई राज्यों की बाढ़ को भी न पूछा गया। यह सब महज 14 या 18 घंटों के लिए ही हुआ हो, लेकिन सच है कि पूरा मंगलवार इस घटनाक्रम से गाफिल रहा। न सिर्फ खबरिया चैनलों की दुनिया में, बल्कि सोशल मीडिया पर भी। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि राज्यसभा की किसी या किन्हीं सीटों के चुनाव को बच्चे-बड़े, स्त्री-पुरुष, समाज के हर तबके ने कौतुक के साथ देखा। सरकार, सत्तारूढ़ दल से लेकर विपक्ष तक, शायद ही किसी को याद रहा कि डोकलाम के  गतिरोध को दूर करने के लिए एक साथ दोनों देशों के सैनिक हटाने का भारतीय प्रस्ताव चीन ने न सिर्फ खारिज कर दिया है, बल्कि चार हाथ आगे बढ़कर गीदड़ भभकी वाले अंदाज में ही सही, फिर धमकी भी दे डाली है कि पीछे हटना तो दूर, वह अगर उत्तराखंड के कालापानी क्षेत्र या कश्मीर में घुस आया, तो भारत क्या करेगा? यह सही है कि भारत के रुख ने चीन की चिंता बढ़ा रखी है, लेकिन क्या वाकई हमें इसे महज गीदड़ भभकी समझ  दरकिनार कर देना चाहिए? खबरें पहुंचाने वाले माध्यमों पर मंगलवार को यह सब नदारद था।

इस राज्यसभा चुनाव ने कई संदेश दिए हैं। कई खतरों की ओर इशारा भी किया है। देश ने पहली बार राज्यसभा की एक सीट का ऐसा रोमांच महसूस किया कि जीतने वाला उम्मीदवार भी यह कहता हुआ दिखाई दिया कि कई लोकसभा और राज्यसभा चुनाव लड़ने का अनुभव इस बार के चुनाव के सामने फीका पड़ गया। हरियाणा का चुनाव एक बार महज उम्मीदवार की कलम बदल जाने से विवादास्पद हुआ था, लेकिन इस चुनाव की तो पटकथा ही बिल्कुल अलग थी। अहमद पटेल जीत भले गए हों, उनकी रणनीति अंतत: भले ही कामयाब दिखाई पड़ी हो, लेकिन अपनी जीत का श्रेय उन्हें उन दो कांग्रेसी विधायकों को देना चाहिए, जिन्होंने वोट तो उनके खिलाफ दिए, लेकिन काम अंतत: वे उनके ही आए। न वे अपने वोट अमित शाह को दिखाते, और न यह नौबत आती। यह सब उस अगस्त क्रांति की पूर्व संध्या पर हुआ, जिसने कभी इस देश के अवाम को राह दिखाई थी।

गुजरात के राज्यसभा चुनाव के नतीजे, इसकी तैयारियों और इसे लेकर हुई खेमेबंदी ने आने वाले चुनाव की आहट भी दे दी है। इसने आमने-सामने डटी राजनीतिक सेनाओं को जैसी तैयारी का एहसास कराया है, वह बताता है कि सब यूं ही चौकस रहे, तो आने वाले चुनावी मुकाबले खासे रोचक होंगे। कई बार तो यह तय करना भी मुश्किल लगा कि यह जीतने की लड़ाई है या हराने की? भाजपा और कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज जिस तरह बार-बार चुनाव आयोग की परिक्रमा करते दिखाई दिए, वह भी इतिहास का बिल्कुल अलग अध्याय बन चुका है। हां, इस सबसे ऊपर इसने यह भी दिखाया है कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए यह लड़ाई बहुत जरूरी थी। इस लड़ाई में दोनों खेमों के लिए भी संदेश है। कुछ भाजपा के लिए, तो ज्यादा कांग्रेस के लिए। कांग्रेस के लिए यह मौका विजयी मुस्कान का नहीं, आत्मचिंतन का होना चाहिए। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इस एक सीट के लिए उसका बहुत कुछ कुर्बान हुआ है। बाकी को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस जीत ने गुजरात विधानसभा में कांग्रेस के आंकड़े भले समेट दिए हों, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं में आस्था बची रह गई है। यह इस चुनाव की एकमात्र बड़ी उपलब्धि है। 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें